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वृद्ध पूंजीवाद के दौर में मोहब्बत

राजनीति में मोहब्बत की दुकान खुले न खुले, उसमें मोहब्बत मिले न मिले, पर हिंदी साहित्य के इतिहास में मोहब्बत ही मोहब्बत रही है। ऐसा दावा करते हुए आप हिंदी साहित्य के इतिहास में दर्ज ‘प्रेम काव्य’...

वृद्ध पूंजीवाद के दौर में मोहब्बत
Pankaj Tomarसुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकारSat, 10 Aug 2024 09:58 PM
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राजनीति में मोहब्बत की दुकान खुले न खुले, उसमें मोहब्बत मिले न मिले, पर हिंदी साहित्य के इतिहास में मोहब्बत ही मोहब्बत रही है। ऐसा दावा करते हुए आप हिंदी साहित्य के इतिहास में दर्ज ‘प्रेम काव्य’ की महान परंपरा की लाख दुहाई दें और कहते रहें कि आदि कवि का पहला श्लोक ही एक मिथुनरत क्रौंच पक्षी के प्रेम के पक्ष में लिखा गया शिकायतनामा है- मां निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:... या आप सिद्ध करते रहें कि हिंदी साहित्य का अतीत प्रेम का, इश्क का, मुहब्बत का महासागर है और उसने हमेशा प्रेमा पुमर्थो महान के गीत गाए हैं। 
आप यह भी कह सकते हैं कि जयदेव से लेकर आधुनिक काल के एक बड़े हिस्से तक प्रेम रस ही साहित्य की मुख्यधारा रहा है। वह कबीर, सूर, तुलसी, मीरा, जायसी, कुतुबन, मंझन, रहीम, रसखान, घनानंद, बोधा आदि की कविताओं में छाया रहा है। फिर प्रसाद के आंसू व कामायनी ने, महादेवी के गीत और निराला-पंत आदि ने आधुनिक प्रेम कविताओं को संभव किया और फिर बच्चन ने इस पार प्रिये तुम हो मधु है, उस पार न जाने क्या होगा और मधुशाला जैसे प्रेम काव्य दिए। 
इसी क्रम में नीरज ने प्रेमगीतों की गंगा बहाई और धर्मवीर भारती ने कनुप्रिया के साथ-साथ इन फिरोजी होठों पर बर्बाद मेरी जिदंगी जैसे ऐंद्रिक गीत लिखकर पे्रम काव्य को नए आयाम दिए, पर एक दिन इस प्रेम कविता को विचारधारा और आधुनिकतावाद की ऐसी नजर लगी कि प्रेम कविताओं की जगह अज्ञेय की कलगी बाजरे की ने ले ली। कवि बाजरे की कलगी रूपी ‘मिस इंडिया’ के छत्तीस-चौबीस-छत्तीस के हिसाब से उपमान खोजता रहा कि ये (पुराने) उपमान मैले हो गए हैं। इस चक्कर में प्रेम तो गया ही ‘मिस इंडिया’ भी हाथ से निकल गई।
फिर अकविता ने ‘जीभ और जांघ का चालू भूगोल’ चलाकर हिंदी कविता को प्रेम के कोमल भाव से मुक्त कर दिया। प्रेम कविता या तो मंचीय हो गई या फिल्मी गीतों में रह गई। हिंदी की ‘पॉपुलर कल्चर’ में जो कुछ ‘पॉप प्रेेम’ बचा, वह फिल्मी प्रेमकथाओं व गीतों के कारण बचा। हिंदी के प्रगतिशीलों ने प्रेम कविता को सीधे प्रतिक्रियावादी खित्ते में डाल दिया!
हिंदी में ऐसे कई प्रगतिशील ब्रह्मचारी हुए, जिन्होंने प्रेम कविता को अपराध बना दिया। यूं कइयों ने एक गांव में छोड़ी, दूसरी दिल्ली में की। वे ‘फॉरेन’ प्रेम कविता पर तो कुर्बान होते, लेकिन देसी प्रेम कविता को क्रांति विरोधी बताते। एक ओर विचारधारा की मार, दूसरी ओर कॉरपोरेट की डबल मार ऐसी कि प्रेम की जगह सेक्स ने ले ली और हालत यहां पहुंच गई कि यशेषणा का मारा या मारी कोई जब तक सेक्स पर खुलकर बात न करे, तब तक कविता क्या और कहानी क्या?
वृद्ध पूंजीवाद के इस दौर में मोहब्बत या प्रेम या इश्क की यही परिणति होनी थी, क्योंकि आज ‘हेट’ ही ‘मार्केट’ की सुचालक है। इस मार्केट में बिकने वाले प्रेम का विखंडन करें या उसे जरा सा खुरचें, तो उसके नीचे ‘हेट’ निकलती है, लेकिन नफरत से कविता नहीं होती। घृणा कविता की दुश्मन है। इसलिए अच्छी कविता अब एक ‘असंभावना’ है! 
अगर कविता को संभव करना है, तो हे कवि! कविता में प्रेम रस को वापस लाओ। कविता को प्रेम की भाषा सिखाओ, नहीं तो कविता ‘ईलू-ईलू’ करती रह जाएगी और कोई न कोई हमें चुल्लू में उल्लू बनाता रहेगा। याद करें, ऐसे ही ‘हेट’ भरे में समय में कभी कबीर ने कहा था कि प्रेम खरीदने-बेचने की चीज नहीं, क्योंकि प्रेम न बाड़ी ऊपजै, प्रेम न हाट बिकाय!/ राजा परजा जेहि रुचै, सीस देई ले जाय!! 
इसलिए मैं अभी भी इंतजार में हूं कि कोई आए, कविता में प्रेम रस बरसाए और सारी ‘हेट’ बह जाए; जो सबको बताए, ‘हेट’ आसान है, मगर ये इश्क नहीं आसां इतना ही समझ लीजे, इक आग का दरिया है और डूब के जाना है!