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Hindi News ओपिनियन तिरछी नज़रमेरा नाम चल रहा है ‘उसके लिए’

मेरा नाम चल रहा है ‘उसके लिए’

यह दूसरी बार था, जब उन्होंने खुद बताया कि उनका नाम चल रहा है और जरा खुलकर बताया कि हां, मेरा नाम चल रहा है। पहली बार जब बताया था, तब उससे पहले अखबार में उनके नाम के चलने की खबर आ चुकी थी, और उस खबर का

मेरा नाम चल रहा है ‘उसके लिए’
सुधीश पचौरी,हिंदी साहित्यकारSat, 09 Apr 2022 10:14 PM

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हिंदी में हल्ला था कि इस बार उनका नाम ‘उसके लिए’ चल रहा है। ‘चल रहा है’, यानी ‘कंसीडर’ किया जा रहा है, यानी उनके नाम पर विचार हो रहा है। जब वह मिले, तो मैंने आंखों ही आंखों में इशारा हो गया  वाली शैली में पूछा। वह भी उसी अंदाज में बोले, यानी ऐसा ही है! मेरा चमचत्व फौरन एक्शन में आ गया और उनके कान में कहने लगा- अभी बहुत फैलाइए नहीं भाई साब, नहीं तो हिंदी वाले भांजी मार देंगे। अभी किसी और को तो नहीं बताया? 
यह दूसरी बार था, जब उन्होंने खुद बताया कि उनका नाम चल रहा है और जरा खुलकर बताया कि हां, मेरा नाम चल रहा है। पहली बार जब बताया था, तब उससे पहले अखबार में उनके नाम के चलने की खबर आ चुकी थी, और उस खबर का असर ऐसा था कि उस वक्त वाले कनॉट प्लेस के ‘टी हाउस’ में दोस्तों की सीटों की तरफ हल्ला था, लेकिन दुश्मनों की सीटों पर सन्नाटा था। इधर कॉफी के कप खनखना रहे थे, उधर खाली कप भिनभिना रहे थे, और जिनका नाम ‘चल रहा’ बताया जा रहा था, वह कई मित्रों के बीच बैठे किसी दिव्यात्मा की तरह जगमगा रहे थे। उनकी रेशमी दाढ़ी उनके रेशमी कुरते से स्पद्र्धा करती थी।
इस हल्ले के बाद दिल्ली का हिंदी साहित्य कई दिनों तक चूल्हा रोया चक्की रही उदास  वाली कविता के मोड में चला गया। कई दिनों तक दुश्मनों को नींद नहीं आई। कइयों ने तो ‘टी हाउस’ ही आना बंद कर दिया। कई इब्ने सफी के जासूस ‘विनोद’ और ‘हमीद’ बनकर इस अफवाह के स्रोत तक पहुंचने में लगे रहे। कई उस रिपोर्टर के पीछे पडे़ रहे कि ‘सच बताओ क्या है?’ और वह कहता रहा कि रिपोर्ट मैंने नहीं, एजेंसी ने दी थी। एजेंसी से पता किया गया, तो मालूम हुआ कि खबर ‘फॉरेन’ से आई थी और ज्यों की त्यों उठा ली गई थी।
कुछ दिनों बाद एक प्रगतिशील साथी ने भंडाफोड़ किया : इसके पीछे सीआईए है, अमेरिका है। वह हाल ही में वहां से लौटा है। साथियो, यह हिंदी साहित्य में सीआईए की घुसपैठ है। सीआईए मुर्दाबाद! अमेरिका मुर्दाबाद! कई दिनों तक हिंदी साहित्य में ‘कोल्ड वार’ सी स्थिति बनी रही। जब खबर आई कि इस बार का नोबेल किसी लीतीनी को मिला है, तब जाकर हिंदी साहित्य की जान में जान आई। उन दिनों न कहीं आज वाला सोशल मीडिया था, न कहीं ‘फेक न्यूज’ थी, तब भी हिंदी के फेंकू ऐसी-ऐसी फेंका करते थे कि बाकी सब उसे समेटने में लगे रहते। साहित्य का एक कर्म मनोरंजन भी था। 
सीजन आते ही कोई चतुर सुजान यूं ही उड़वा देता कि इस बार के अकादेमी के लिए उसका नाम चल रहा है। खबर फैलते ही हिंदी में ‘आह-कराह’ का धुआं उठने लगता। जलने वाले मंडी हाउस के चक्कर काटते रहते। मंडी हाउस गोल चक्कर से कभी त्रिवेणी, कभी बंगाली मार्केट, कभी श्रीराम सेंटर, कभी सप्रू हाउस, तो कभी पुश्किन की मूर्ति के नीचे खडे़ अकादेमी के गेट पर निगाहें जमाए रहते कि कौन अंदर जा रहा है, कौन निकल रहा है?
जब किसी अन्य का नाम घोषित हो जाता, तब जाकर हिंदी साहित्य का रक्तचाप सामान्य होता। लेकिन ‘चलाने’ वाला ‘दुष्ट’ अपने को ‘परम तुष्ट’ महसूस करता कि देखा, सबको कैसा बनाया? साहित्य में खुद बनने से अधिक दूसरे को बनाने में मजा था। यही ‘साहित्यिक कल्चर’ थी!
आज सोशल मीडिया का जमाना है। इन दिनों तो साहित्य के ‘एंट्री पॉइंट’ पर ही अधिकांश लेखक अपना नाम लिखवाने और उछलवाने की कला में पीएचडी कर लेते हैं और ‘फेंक कला’ व ‘फेंकू कला’ के उस्ताद हो जाते हैं। लेकिन वह मजा नहीं है, जो एक दूसरे को बनाने, चलाने, टहलाने और उल्लू बनाने में मिला करता था और ‘टी हाउस’ में सामने बैठ बुक्का फाड़कर हंसा जाता था! 

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