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कहीं पर दर्द, कहीं हमदर्द

अच्छी खबर है कि साहित्य के दिन बहुर रहे हैं। वह ‘घर वापसी’ कर रहा है। लेकिन जरा हटकर कर रहा है। इन दिनों वह नाचता, गाता और ठुमके लगाता हुआ वापसी कर रहा है। यकीन न हो, तो म्यांमार में...

कहीं पर दर्द, कहीं हमदर्द
सुधीश पचौरी हिंदी साहित्यकारSat, 06 Feb 2021 11:15 PM
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अच्छी खबर है कि साहित्य के दिन बहुर रहे हैं। वह ‘घर वापसी’ कर रहा है। लेकिन जरा हटकर कर रहा है। इन दिनों वह नाचता, गाता और ठुमके लगाता हुआ वापसी कर रहा है। यकीन न हो, तो म्यांमार में तख्ता पलटकर आई सैनिक तानाशाही की खबरों के बीच उस ‘मजाहिया नकल’ (मीम) को देख लीजिए, जिसमें एक डांस निर्देशिका किसी गाने की धुन पर ठुमके लगाए जा रही है और जितने ठुमके लगा रही है, उतनी ही वायरल हो रही है, और जितनी वायरल हो रही है, उतनी ही चर्चा में आ रही है। 
क्या दृश्य है : पृष्ठभूमि में तने हुए खुर्राट चेहरों वाले टोपधारी सैनिक हैं और उनके ऊपर उसका ठुमका है, जैसे वह कह रही हो कि तुम्हारी ऐसी की तैसी! यह ठुमका एक निराला उत्तर आधुनिक अनुभव है, जो ‘पॉप कल्चर’ के रूप में लौट रहा है।
इसी तरह, आप पॉप गायिका बहना रिहाना का ट्वीट देख लीजिए। उस एक ‘ट्वीट कविता’ से बड़ी कविता हमने न देखी न सुनी। इधर बहना ने ‘किसानों के बारे में सोचने भर को कहा’ और उधर वह ग्लोबल लेवल पर वायरल हो गई। सत्ता से लेकर कुछ बॉलीवुड वाले तक कहने लगे, ये हमारा अंदरूनी मामला है। लेकिन ये क्या जानें कि उत्तर आधुनिक ग्लोबल पॉप कल्चर में सब ‘ग्लोबल’ होता है। यही ‘पॉप साहित्य’ का उत्तर आधुनिक क्षण है कि कहीं पर दर्द होता है, कहीं हमदर्द होता है और कहीं दवा होती है। कहीं कोई कुछ कह देता है, तो कहीं कोई कुछ सुन लेता है। कोई गाना गा देता है, कोई ठुमका लगा देता है और वायरल हो जाता है, तो वही किसी के लिए खतरे का सायरन हो जाता है। अहंकारी सत्ताएं भी अपने को हिलता महसूस करने लगती हैं। इन दिनों एक ‘पेड लाइन’, एक लटका-झटका, एक ठुमका-झुमका, किसी तोप या बम से बड़ा नजर आता है। इसी का मजा है! बताइए एक पॉप गीत या पॉप ठुमका बड़ा है या ऊपर से सीरियस, शिष्टाचारी, चिर रोंदू साहित्य? पर क्या करें? अपना साहित्य-बोध ही ऐसा ‘रिएक्शनरी’ बना दिया गया है कि हम अब भी ‘पॉप गीत’ और ‘पॉप डांस’ को ‘अपसंस्कृति’ मानते हैं, जबकि यही चीजें सबसे अधिक हिलाने वाली नजर आती हैं। इन दिनों ‘पॉप’ ही वायरल होता है। वही कुछ देर चर्चा में जीता है और कुछ देर बाद मर जाता है, फिर यूट्यूब पर वीडियो बनकर पड़ा रहता है। यारो, ‘पॉप’ में बड़ी ताकत है। ऐसे में, अगर एक बहना रिहाना जैसी ‘पॉप स्टार’ हो, और उसके साथ कोई ‘पर्यावरणवादी पॉप स्टार’ अपनी नाटकीय हमदर्दी की जुगलबंदी कर दे, तो फिर क्या ही कहने। इसे कहते हैं- विरोध की असली कविता, विरोध की असली कहानी, विरोध का ठुमका। ‘पॉप कल्चर’ जब मारती है, तो मजे-मजे में मारती है। नाचते-गाते मारती है। ठुमका लगाते हुए मारती है। ये मारती भी है और बदले में पंद्रह मिनट की अमरता भी चाहती है। हम तो बताते-समझाते थक गए कि साथी, यह उत्तर आधुनिक जमाना है। पॉप कल्चर और उपभोक्ता कल्चर का जमाना है। गंभीरता, विचारधारा, प्रतिबद्धता, सब नाटक हैं। असली चीज है, ‘नाचते-गाते मेरा कमीनापन’। जब तक किसी की टोपी न उतारूं, तब तक क्या तो साहित्य और क्या संस्कृति? इन उत्तर आधुनिक दिनों की असली साहित्य-संस्कृति यही है, जो मजे-मजे में सजा देती है। इस ‘सजा’ में भी श्लेष है- ‘सजा’ यानी ‘दंड’ और ‘साज सज्जा’। यही है ठुमके का ‘विखंडन’। यह ठुमका साहित्य ही अब असली साहित्य है।

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