फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियन तिरछी नज़ररिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई

रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई

जब-जब अन्याय हुआ है, उत्पीड़न हुआ है, शोषण हुआ है, और कोई संघर्ष के लिए सड़क पर उतरा है, मैंने हमेशा यही नारा लगाया है, ‘साथी तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं।’ साथी संघर्ष करते रहते हैं...

रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई
सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकारSat, 05 Dec 2020 11:09 PM
ऐप पर पढ़ें

जब-जब अन्याय हुआ है, उत्पीड़न हुआ है, शोषण हुआ है, और कोई संघर्ष के लिए सड़क पर उतरा है, मैंने हमेशा यही नारा लगाया है, ‘साथी तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं।’ साथी संघर्ष करते रहते हैं और मैं ‘हम’ बनकर उनके साथ होता रहता हूं।
बीते बरसों में कितने ही आंदोलन-प्रदर्शन हुए- कभी बोट क्लब पर, कभी जंतर-मंतर पर, तो कभी रामलीला मैदान में, मैंने कभी किसी को निराश नहीं किया, सबसे यही ‘कमिट’ किया- साथी तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं। मैं तो स्वभाव से ही ‘साथी’ हूं। सबका साथी। सबके संघर्ष का साथी। जब तक मैं हूं, दिल्ली में कोई अकेला नहीं है। मैं उसके साथ हूं! मेरा तो नारा ही यह है कि ‘साथी तुम संघर्ष करो, मैं तुम्हारे साथ हूं।’
जब-जब कोई संघर्ष करता है, मेरी हमदर्दी उसके लिए भड़क उठती है और मैं कहने लगता हूं- साथी तुम संघर्ष करो, मैं तुम्हारे साथ हूं! यह नारा है ही ऐसा निराला कि इसके मुकाबले का  दूसरा आज तक नहीं बना। यह ‘थ्री इन वन’ है। इसमें ‘साथी’ है, ‘संघर्ष’ है और उसके साथ मेरे जैसा ‘लेखक’ भी है। यह नारा संघर्ष को लेखक से जोड़ता है और लेखक को संघर्ष से, जनता से जोड़ता है। यह प्रगतिशील आंदोलन की याद दिलाता है और इस तरह मुझ जैसे लेखक को प्रगतिशील बनाता है।
असली लेखक वही माना जाता है, जो जमीन से जुड़ा हो, जनता से जुड़ा हो, उसके संघर्ष से जुड़ा हो और हर हाल में जनता के साथ खड़ा रहे। इस दृष्टि से देखें, तो ‘साथी तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं’ का नारा एक ‘सर्वगुण संपन्न’ नारा है।
इधर साथी संघर्ष कर रहे हैं, उनका दमन हो रहा है और ऐसे गाढे़ वक्त में एक लेखक है कि कहे जा रहा है, साथी तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं। है न हिम्मत की बात! इस नारे को सुनकर संघर्ष करने वाले में जोश का दोगुना संचार होता है। यही तो लेखक की असली भूमिका है। यही हिंदी साहित्य के वीरगाथा काल में महाकवि चंद बरदाई ने किया, यही रीतिकाल में भूषण ने किया और यही इस ‘उत्तर आधुनिक युग’ में मैं करता हूं।
जिस तरह चंद बरदाई युद्ध के मैदान में भी अपनी कविता से जोश दिलाते रहते थे, भूषण छंद लिखकर उत्साह बढ़ाते रहते थे, उसी तरह मैं भी संघर्षकारियों को जोश दिलाता रहता हूं कि साथी तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं।
जिन दिनों कोई किसी का साथ न देता हो, हर कोई दूसरे की टांग खींचने वाला हो, उन दिनों में अगर कोई किसी का साथ देने की बात करता है, तो उससे अच्छा साथी और कौन हो सकता है? यह नारा उस ‘दस्तखत ब्रिगेड’ के बयानों से सवाया है, जो स्वीकृति के बिना भी जिस-तिस के सिग्नेचर मारकर खबर बनाया करते हैं। मैं ऐसी बेईमानी नहीं करता। मैं तो सिर्फ इतना कहता हूं कि साथी तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं!
मैंने तो यह नोम चोम्स्की जी से सीखा है : जिस प्रकार वह अमेरिका में बैठे-बैठे अपने दस्तखत मारकर वापसी ब्रिगेड का हौसला बढ़ा देते हैं, उसी तरह मैं भी कहता रहता हूं, साथी तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं। 
अपने प्रगतिशील आंदोलन ने यही सिखाया है, साथ का साथ और सेफ का सेफ। नो रिस्क, यानी रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई!  यही इस नारे की खूबी है। साथी संघर्ष करते रहते हैं, हम जैसे लेखक उनके संघर्ष के टूरिस्ट बन जाते हैं और गले में पोस्टर लटका लेते हैं, साथी तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं!

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें