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Hindi News ओपिनियन तिरछी नज़रमैं तुझे कुबूल तू मुझे कुबूल

मैं तुझे कुबूल तू मुझे कुबूल

हिंदी का हरेक लेखक अपना मूल्यांकन कराने के लिए तड़पता रहता है कि कोई आए और उसकी प्रतिभा को समझे, उसका  मूल्यांकन करे, मूल्यांकन यानी ‘सही मूल्यांकन’, यानी वैसा मूल्यांकन जैसा वह चाहता है।

मैं तुझे कुबूल तू मुझे कुबूल
सुधीश पचौरी,हिंदी साहित्यकारSat, 02 Apr 2022 09:34 PM

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उनको मलाल है कि उनका मूल्यांकन ठीक से नहीं हुआ। इनको मलाल है कि इनका ठीक से नहीं हुआ। इसको भी मलाल है कि इसका नहीं हुआ, उसको भी मलाल है कि उसका नहीं हुआ। 
अफसोस और मलाल हिंदी लेखक के स्थायी भाव हैं : नौकरी है, मकान है, बीवी है, बच्चे हैं; कवि, कलाकार और बुद्धिजीवी कहाते हैं; दर्जनों किताबें छपवा चुके हैं; कई बडे़ सम्मान ग्रहण कर चुके हैं; ग्रंथावली आने वाली है; आईआईसी से हैबिटेट तक रोज आते-जाते हैं, लेकिन तब भी एक मलाल रहता है कि हिंदी वाले ‘कृतघ्न’ हैं; कि उनका ‘मूल्यांकन ठीक से नहीं हुआ’; कि उनके संग न्याय नहीं हुआ।
हिंदी का हरेक लेखक अपना मूल्यांकन कराने के लिए तड़पता रहता है कि कोई आए और उसकी प्रतिभा को समझे, उसका  मूल्यांकन करे, मूल्यांकन यानी ‘सही मूल्यांकन’, यानी वैसा मूल्यांकन जैसा वह चाहता है।
हिंदी का हरेक रचनाकार अगर हर समय रूठा हुआ, नाराज व चिड़चिड़ा और साक्षात ‘आरडीएक्स’ की तरह दिखता है, तो उसका कारण उसका यही रोना है कि उसका ठीक से मूल्यांकन नहीं हुआ। ठीक से का मतलब ‘दिल भरने’ से होता है और दिल है कि कभी भरता ही नहीं, बतर्ज दिल अभी भरा नहीं।
यही कारण है कि हिंदी का हरेक लेखक एक ‘परमानेंट कंपलेंट बॉक्स’ होता है, जिसमें वह रोज हजार किस्म की शिकायतें डालता रहता है और सबसे बड़ी शिकायत यही होती है कि उसका मूल्यांकन ठीक से नहीं हुआ। लेखकों का मूल्यांकन परीक्षार्थियों की तरह तो होता नहीं कि सौ में से ठीक अंक न आने पर पुनर्मूल्यांकन की अर्जी दे दें और फिर जो आए, उस पर सब्र करें। 
लेखक की बेचैन आत्मा को सब्र कहां? इसलिए किसी बिगडै़ल बच्चे की तरह हरदम शिकायत करता रहता है कि उसके संग न्याय नहीं हुआ। उसका मूल्यांकन ठीक से नहीं हुआ। ऐसे ही एक परम रोंदू लेखक के संग एक बार जो हुआ, वह किसी के संग न हो।
वह लेखक बार-बार कहता रहता था कि मेरा सही मूल्यांकन नहीं हुआ। मैं लिख-लिखकर मर चला, लेकिन मेरे साथ न्याय नहीं हुआ। सही मूल्यांकन नहीं हुआ। इस पर एक आलोचक ने उसका सचमुच का ‘पुनर्मूल्यांकन’ कर डाला और ऐसा कर दिया कि वह पहले के मूल्यांकन से भी गया-बीता लेखक नजर आने लगा! 
इस प्रकरण से हिंदी का सीन कुछ दिनों के लिए इतना तनावग्रस्त रहा कि ‘तनाव’ ही ‘नई कविता’ का मानक शब्द बन गया। आलोचना और कविता में तनाव रहने लगा। वह कवि खुद आलोचना करने लगा और छद्म नाम से अपना ‘सही मूल्यांकन’ करने लगा। दुष्ट आलोचक  भी उसके पीछे पड़ा रहा और अंत में आलोचक ही जीता।
इसीलिए जो हरेक वक्त शिकायत करते रहते हैं कि मेरा सही मूल्यांकन नहीं हुआ, मेरे संग न्याय नहीं हुआ, उनसे मेरा तो मित्रवत निवेदन यही है कि साथी, जितना और जैसा मूल्यांकन हो गया है, उसी में अपने को धन्य समझ, आलोचक जमात को ज्यादा तंग न कर। अगर करेगा, तो तय मान कि तू मरेगा। 
शायद इसी को  देखते हुए बाबा नागार्जुन ने एक छोटी सी कविता लिखी, जो आज के लेखक-आलोचक की ‘अन्योन्याश्रयता’ को स्पष्ट करती है: 
अगर कीर्ति का फल चखना है/ कलाकार ने फिर-फिर सोचा/ आलोचक को खुश रखना है!/  अगर कीर्ति का फल चखना है/ आलोचक ने फिर-फिर सोचा/ कवियों को नाथे रखना है।
इसीलिए हिंदी में हर कवि का एक ‘गोद लिया आलोचक’ होता है, हर आलोचक का एक ‘गोद लिया कवि’ होता है। सोचता हूं कि मैं भी किसी लेखक को गोद ले लूं, ताकि वह मेरी चंपी करता रहे और मैं उसकी करता रहूं और दोनों मिलकर गाते रहें- 
मैं तुझे कुबूल, तू मुझे कुबूल...! 

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