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Hindi News ओपिनियन तिरछी नज़रअहा! लॉकडाउन भी क्या है

अहा! लॉकडाउन भी क्या है

इन दिनों मैथिलीशरण गुप्त मुझे सबसे बडे़ कवि नजर आते हैं। यूं तो स्वतंत्रता संग्राम के दिनों से ही वह ‘राष्ट्रकवि’ कहलाते थे, लेकिन उनकी यह कीर्ति ‘नई कवितावादियों’ को पची...

अहा! लॉकडाउन भी क्या है
सुधीश पचौरीSat, 25 Apr 2020 10:00 PM
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इन दिनों मैथिलीशरण गुप्त मुझे सबसे बडे़ कवि नजर आते हैं। यूं तो स्वतंत्रता संग्राम के दिनों से ही वह ‘राष्ट्रकवि’ कहलाते थे, लेकिन उनकी यह कीर्ति ‘नई कवितावादियों’ को पची नहीं। नए ज्ञानियों ने उनको एकदम किनारे कर दिया। बहुत दिनों तक वह बीए, एमए हिंदी के कोर्स में लगे रहे, फिर उनको सिर्फ बच्चों के कवि की तरह रहने दिया गया। यह सब बाद के ज्ञानियों की मेहरबानी है। 
पर मैं क्या करूं? जब से ‘लॉकडाउन’ में घर में बंद हूं, तब से वह मुझे हर रोज याद आते हैं। सोचता हूं कि आपको उनकी एक कविता के बारे में बताऊं, ताकि आप समझ सकें कि मुझे वह इन दिनों भी सच्चे कवि क्यों लगते हैं? 
गुप्तजी पेन-कागज के जमाने में भी स्लेट पट्टी पर खड़िया से लिखा करते थे। बार-बार लिखते, बार-बार मिटाते। स्लेट पट्टी पर लिखना-मिटाना आसान था। जब छंद पूरा छन जाता, तो उतार लेते कागज पर। फिर गुप्तजी ठहरे पक्के वैष्णववादी, पूजापाठी, गांधीवादी, खादीवादी, भारत-भारती वादी, खांटी देशभक्त कवि। बताइए ऐसे पुरातन भाव बोध वाले को प्रयोगवादी क्रांतिकारी क्यों भाव देते? 
फिर भी न जाने क्यों, इन दिनों वह मुझे बार-बार याद आते हैं, मानो कह रहे हों- बेटा, बहुत उड़ लिए, अब उतर आओ अपने अड्डे पर। बहुत कह ली इसकी-उसकी कहानी; बहुत उड़ा ली कविता में तितली, चिड़िया, फूल-पत्ती; बहुत मार ली ‘सिंपथी वेव’ कविता में स्त्री, पत्नी, बेटी और मां का जिक्र कर-करके; बहुत नाप लिए कविता में धरती, पृथ्वी, आकाश; और बहुत बहा लिया कविता में जल, पानी, नदी, हवा आदि; बहुत रच ली सामाजिक न्यायवादी ‘पॉलिटिकली करेक्ट’ कविता-कहानी; बहुत कर लिया तीन लाइन में विद्रोह; बहुत मचा ली पांच लाइनों में क्रांति और झटक लिए पांच हजारी, दस हजारी, इक्कीस हजारी इनाम; और बहुत इकट्ठा कर लिए अंगवस्त्रम् व स्मृतिचिह्न, और बहुत कर लिया यत्र-तत्र-सर्वत्र काव्य पाठ और मरवा ली चेलों से तालियां, अब धरती पर आ जाओ मेरे लाल! अब तो लॉकडाउन कर लो, घर के भीतर बंद हो जाओ, वरना कोरोना आ जाएगा और खा जाएगा।
आपकी तरह मैं भी एक महीने से घर में बंद हूं। लेकिन पहली बार लग रहा है कि लॉकडाउन बड़ा ही रचनात्मक है। यह साहित्य का सच्चा हितैषी है। इसके चलते बहुत से ‘अकवि’, ‘कुकवि’ और ‘अद्र्ध कवि’ तक ‘ऑनलाइन’ कवि बन गए हैं। मुझे लगता है कि लॉकडाउन ही मेरा असली शिक्षक है। इसने महीने भर में मुझे साहित्य का सच्चा अर्थ समझा दिया हैै, और मैं समझ गया हूं कि अच्छी और सच्ची कविता की पहचान क्या है? 
इस लॉकडाउन गुरु ने मुझे समझा दिया है कि असली और अच्छी कविता वह होती है, जो वक्त पड़ने पर काम आती है, जो गाढे़ वक्त में अचानक हमारा साथ देती है, जो मुसीबत के वक्त हमें हठात् याद आने लगती है।
गुप्तजी की कविता ऐसी ही कविता है, जो लॉकडाउन के इन गाढे़ दिनों में मुझे बार-बार याद आ रही है और आपको भी याद दिलाने को कह रही है। इस अमर कविता का नाम है : ग्राम्य जीवन!  इसमें गुप्तजी सहज-सरल व अलंकार शून्य भाषा में लिखते हैं : अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है/ क्यों न इसे सबका मन चाहे/ थोडे़ में निर्वाह यहां है/ ऐसी सुविधा और कहां है?
लॉकडाउन ने हम सभी को ‘थोडे़ में निर्वाह’ करने की तमीज सिखा दी है। इसीलिए इस कविता को कुछ बदलकर कहता हूं : ‘अहा, लॉकडाउन भी क्या है।

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