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Hindi News ओपिनियन तिरछी नज़रछाया भी मत छूना मन

छाया भी मत छूना मन

जिस ‘घर’ में हिंदी के कवि ने ढेर सारी कविताएं लिखीं और खूब ख्याति पाई, उसी घर को अब कविता नहीं, दूध-चाय-सब्जी-आटा-दाल-तेल की जरूरत है। जिस ‘पत्नी’ को ढेर सारी कविता लिखकर...

छाया भी मत छूना मन
सुधीश पचौरीSun, 03 May 2020 09:06 AM
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जिस ‘घर’ में हिंदी के कवि ने ढेर सारी कविताएं लिखीं और खूब ख्याति पाई, उसी घर को अब कविता नहीं, दूध-चाय-सब्जी-आटा-दाल-तेल की जरूरत है। जिस ‘पत्नी’ को ढेर सारी कविता लिखकर हिंंदी का कवि बेवकूफ बनाता रहा, वही पत्नी अब कह रही है- ए जी! बाहर जाकर घर का सामान ले आओ जी।
घर पर कविताएं लिखने का शौकीन कवि कोरोना के डर के मारे तीस दिन से घर से बाहर नहीं निकला है। कवि डर रहा है कि बाहर कैसे जाएं और सामान कैसे लेकर आएं? छह फीट दूर से पत्नी कवि से कहती है कि खडे़-खडे़ मेरा मुंह क्या देख रहे हो? मुंह पर मास्क लगाकर फिजिकल डिस्टेंसिंग करते हुए अभी सब्जी लेकर आओ।
अगले सीन में कवि मास्क लगाकर सब्जी लेने चल पड़ा है। वह सहम-सहमकर एक-एक कदम बढ़ाता है और सब्जी वाले के ठेले से छह फीट दूर खडे़ होकर मास्क में मुस्कराता है। वह पास आकर आलू छूना चाहता है, प्याज को टच करना चाहता है, टमाटर की सख्ती को महसूस करना चाहता है, भिंडी को तोड़कर देखना चाहता है कि ताजी है कि नहीं, लेकिन फिर डर के मारे ठिठक जाता है कि कहीं किसी ने पहले तो इनको नहीं छुआ? अचानक उसे गिरिजाकुमार माथुर के गीत की पंक्तियां सहारा देती हैं : छाया मत छूना मन! होगा दुख दूना मन!!
वह नहीं छूता और सब्जी वाले को छह फीट दूर से ही सब्जी का ऑर्डर देता है। मास्क लगाए सब्जी वाला सब्जी तोलकर, पैक करके कवि के पास देने आता है, तो कवि चिल्ला उठता है: ‘फिजिकल डिस्टेंसिंग’ को मत तोड़ो, वहीं रख दो। दूर हट जाओ। वह हट जाता है। कवि आगे बढ़ता है और सब्जी के पैसे रख देता है। फिर थैला उठाने से पहले सैनेटाइजर हाथ में लगाता है। सत्ता को रोज ललकारने वाले बहादुर कवि को अपनी जान बहुत प्यारी है।
कवि घर पहुंचता है, सब्जी किचन में रखकर बीस सेकंड तक हाथ धोता रहता है। बीच में भूल जाता है कि कितने सेकंड हुए और फिर से हाथ धोने लगता है। इस तरह कई मिनटों तक हाथ धोता रहता है। पत्नी उलाहना देती है कि कब तक हाथ ही धोते रहोगे कि कुछ और भी करोगे? 
अब कवि मास्क उतारता है, पर मास्क उतरता ही नहीं। उसे लगता है कि मास्क उसके चेहरे पर चिपक गया है। कवि और डर जाता है। सोचता है, क्या उसके चेहरे से यह मास्क कभी नहीं उतरेगा? लोग क्या कहेंगे? पत्नी कहती है, अब चिपक गया है, तो चिपके रहने दो। यूं भी तुम कवि लोग कोई न कोई मास्क पहने ही रहते हो। कभी ब्रेख्त का, कभी लोरका का, कभी मायकोवस्की का... चलो, किसी तरह तुम्हें अपना चेहरा तो मिला।
‘लेकिन मेरी पहचान?’ 
‘लॉकडाउन में भी तुम्हें पहचान की पड़ी है? मास्क ही अब हम सबकी पहचान है। फलां विशेषज्ञ बता रहा था कि लॉकडाउन या नो लॉकडाउन, मास्क अब पहनना ही पहनना है’- पत्नी ने समझाया। 
कोरोना ने सबको मास्क पहना दिया है। सबका चेहरा बदल दिया है। कवि के चेहरे पर मास्क है, आलोचक के चेहरे पर मास्क है। ‘मास्कवाद’ साहित्य का भविष्य‘वाद’ है। 
भविष्य की कविता मास्क्ड कविता होगी और हर कवि छह फीट की दूरी से कविता लिखेगा। इसके लिए चीन छह फीट लंबी ‘कोरोना ब्रांड’ कलम भी बना देगा। क्या पता, उसने बनानी भी शुरू कर दी हो।

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