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न लिखने के सुख

उन्होंने 20 साल से नहीं लिखा/ उन्होंने 30 साल से नहीं लिखा/ इन दिनों वह कुछ लिखने वाले हैं/ इन दिनों वह कुछ लिख रहे हैं/ सुना है कि उनने इधर कुछ लिखा है/ सुना है कि एक लंबी कविता पर काम कर रहे हैं/...

न लिखने के सुख
सुधीश पचौरी, हिंदी साहित्यकारMon, 24 Apr 2017 04:33 PM
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उन्होंने 20 साल से नहीं लिखा/ उन्होंने 30 साल से नहीं लिखा/ इन दिनों वह कुछ लिखने वाले हैं/ इन दिनों वह कुछ लिख रहे हैं/ सुना है कि उनने इधर कुछ लिखा है/ सुना है कि एक लंबी कविता पर काम कर रहे हैं/ वह अपने उपन्यास पर काम कर रहे हैं...।  

एक होता है लिखना, एक होता है लिखने की हवा बांधे रखना। यह हवा बांधने की कला है, जिसमें हिंदी का कोई सानी नहीं। आप कुछ लिखें या न लिखें, आपकी हवा बंधी रहनी चाहिए। आपको इसके लिए कुछ खास नहीं करना। सिर्फ इतना कहना है कि लिखने की सोच रहा हूं, लिखने वाला हूं। यानी मुद्रा धारण किए रहनी है। मुद्रा का मतलब यह नहीं कि आप हर वक्त कुरसी पर बैठ किसी मेज पर अपनी कोहनी टिकाए हाथ में पेन लिए कागज काले करते हुए   दिखते रहें। करना सिर्फ इतना होता है कि जब किसी अपने जैसे न लिखने वाले से मिलें और ‘इस-उस’ की चरचा करें, तो सिर्फ एक अमोघ वाक्य कहें कि इस बकवास पर कुछ लिखने वाला हूं। आपका इतना भर कहना किसी दंगाई अफवाह की तरह फैल जाएगा। दूर-दूर तक सब जानने लगेंगे कि ‘वह’ कुछ लिखने वाले हैं। चमचे कहेंगे कि सर, आप आज्ञा दें, तो ‘कंदुक इव ब्रह्मांड उठावों।’

हिंदी में ऐसे कई लेखक हुए, अब भी हैं, जिनके लिखने से ज्यादा, न लिखने का आतंक रहा है। वे न लिखने की महानता की कमाई खाते रहे हैं। हिंदी में निकम्मा भी कीर्तिवान होता है। ऐसे सौभाग्यशाली को देख हमें बड़ी जलन होती है। एक हम हैं, जो कागज काले किए जाते हैं, एक वे हैं, जो मसि कागद छुयो नहीं, कलम गही नहिं हाथ  वाला विरुद पाले हुए हैं।

हिंदी में कोई बात ठीक या ठोस तरीके से नहीं कही जाती। ‘पोले’ तरीके से कही जाती है। जब कोई यह कहता है कि उन्होंने 20 साल से नहीं लिखा, तो उसका मतलब यह नहीं होता कि कुछ नहीं लिखा, बल्कि यह होता है कि उन्होंने ‘वो’ नहीं लिखा, जिसके लिए वह जाने जाते थे। 

आप पूछेंगे कि वह ‘किसके लिए’ जाने जाते थे? तो यह खुद उनको भी खबर नहीं होती कि किसके लिए जाने जाते थे? हिंदी में लिखने वाले से ज्यादा न लिखने वाले की, ज्यादा लिखने वाले से कम लिखने वाले की, लगातार लिखने वाले की जगह 20 साल से न लिखने वाले की या 20 साल बाद लिखने की धमकी देने वाले की अधिक महत्ता है। 

यह हिंदी का अपना ‘रहस्यवाद’ है, जिसमें मानकर चला जाता है कि जिनने 20 साल से नहीं लिखा, वे अब जब कुछ लिखेंगे, इतना महान लिखेंगे कि सारे रिकॉर्ड तोड़ डालेंगे, लेकिन उधर ‘न लिखने वाला’ डरा रहता है कि अगर लिखा, तो यह पचौरी न जाने किस करवट मारे?  ऐसे लेखकों को ‘चुका हुआ’ लेखक कहा जाता है-  जो सिर्फ दस्तखत करने के लिए, बयान देने के लिए, अध्यक्षता करने, लोकार्पण, उद्घाटन कर्मकांड के लिए रिजर्व हो गया है।

कभी न लिखने वाले की इतनी महिमा रही कि ‘न लिखने वाला’ जब सामने पड़ता, तो हम डरते कि बच के रह। महान आत्मा न जाने क्या गजब लिख डालें? आप इंतजार करते रहते कि अब कलम तोड़ी कि तब कलम तोड़ी, लेकिन वही ढाक के तीन पात।

इस स्वल्प ‘कीर्ति पताका’ का कारण यही है कि हर लेखक का एक ‘पीक टाइम’ होता है। एक ‘पीक’ का मारा वह इतना कन्फ्यूज हो जाता है कि समझ नहीं पाता कि अब क्या लिखे, जो फिर यारों को भरमा सके। इसीलिए हिंदी में लिखने वाले कम हैं, ‘न लिखने वाले’ ज्यादा और उन्हीं का आतंक है।

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