ताकि अगली पीढ़ी को भी पानी मिले
ब्रिटिश कवि सैम्युअल टेलर कॉलरिज की कविता द राइम ऑफ द एनसिएंट मरीनर में एक पंक्ति है वाटर, वाटर एव्रीवेयर, नॉर एनी ड्रॉप टु ड्रिंक यानी पानी तो हर जगह है, पर एक बूंद भी पीने के काबिल...
ब्रिटिश कवि सैम्युअल टेलर कॉलरिज की कविता द राइम ऑफ द एनसिएंट मरीनर में एक पंक्ति है वाटर, वाटर एव्रीवेयर, नॉर एनी ड्रॉप टु ड्रिंक यानी पानी तो हर जगह है, पर एक बूंद भी पीने के काबिल नहीं। करीब दो सदी पहले इन शब्दों को रचते हुए सैम्युअल क्या आने वाले वर्षों की भविष्यवाणी कर रहे थे? क्या वह जाने-अनजाने उस जल संकट का कयास लगा रहे थे, जिसका सामना 21वीं सदी की दुनिया करने वाली थी?
ये सवाल इसलिए, क्योंकि दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन का गंभीर जल संकट दुनिया भर के सभी खास-ओ-आम के लिए चेतावनी की घंटी है। ऐसी ही समस्या दुनिया के कई अन्य शहरों में भी सिर उठा रही है, जिसमें बेंगलुरु सहित भारत के कई अन्य महानगर भी शामिल हैं। हालात अब इतने गंभीर हैं कि दुनिया भर के 12 नेताओं (पानी पर बने उच्चस्तरीय पैनल में शामिल 11 देशों के शासनाध्यक्ष और एक विशेष सलाहकार) ने एक हफ्ता पहले ‘खुला पत्र’ जारी किया है, जिसमें लिखा गया है कि विश्व एक गंभीर जल संकट से गुजर रहा है। उनके शब्द हैं, ‘हमें पानी की हर बूंद का हिसाब रखने की जरूरत है’। इस पैनल में मॉरीशस, मेक्सिको, हंगरी, पेरू, दक्षिण अफ्रीका, सेनेगल और ताजिकिस्तान के राष्ट्रपति शामिल थे, तो ऑस्ट्रेलिया, बांग्लादेश, जॉर्डन, नीदरलैंड के प्रधानमंत्री। बतौर विशेष सलाहकार कोरिया के पूर्व प्रधानमंत्री भी इस पैनल का हिस्सा थे। इस समूह का साफ कहना है कि समाज के लिए पानी के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व पर्यावरण से जुड़े मूल्यों का पुन: आकलन होना चाहिए। पैनल मानता है कि ‘पानी का इस तरह बंटवारा होना चाहिए कि समाज को अधिक से अधिक लाभ मिले।
हकीकत यही है कि केपटाउन के जलाशय लगातार तीन सूखे की वजह से सूख रहे हैं। इससे एक बार फिर यह साबित होता है कि अप्रत्याशित व असामान्य गंभीर घटनाएं सामान्य मौसमी पैटर्न को बुरी तरह प्रभावित कर रही हैं, और अतीत अब ज्यादा दिनों तक भविष्य का बैरोमीटर नहीं हो सकता। ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु परिवर्तन से जुड़ी मौसमी परिघटनाएं बार-बार घटित हो रही हैं। लिहाजा योजनाकारों और नीति-निर्माताओं को इसके मद्देनजर आपातकालीन योजनाओं के साथ तैयार रहना ही होगा।
हम भारतीय भी इसे लेकर अब और उदासीन नहीं रह सकते। अपने यहां बढ़ती आबादी, पर्याप्त योजनाओं के अभाव, कमजोर पड़ते इन्फ्रास्ट्रक्चर, बोरवेल की अंधाधुंध खुदाई, भारी मात्रा में पानी की खपत और बेपरवाही से इसके इस्तेमाल को लेकर मुगालता पालने की वजह से हालात बिगड़ रहे हैं। यदि अब भी पानी के संरक्षण व इसके कम इस्तेमाल को लेकर कठोर कदम नहीं उठाए जाएंगे, तो वह दिन दूर नहीं, जब बेंगलुरु जैसे नगरों में राशन की तरह पानी की आपूर्ति करने के लिए भी प्रशासन को मजबूर होना पड़ेगा। गौर करने वाली बात है कि बेंगलुरु उन 11 वैश्विक नगरों में दूसरे स्थान पर है, जहां पानी तेजी से खत्म हो रहा है। इस सूची में साओ पाउलो पहले स्थान पर है, जबकि बीजिंग, काहिरा, जकार्ता, मास्को, इस्तांबुल, मेक्सिको सिटी, लंदन, टोक्यो और मियामी भी सिमटते जल वाले वैश्विक शहरों में शामिल हैं। अनुमान है कि अगले तीन दशकों में शहरी क्षेत्रों में पानी की मांग 50-70 फीसदी बढ़ेगी। भारत को अभी हर साल लगभग 1,100 अरब घनमीटर पानी की जरूरत होती है, जिसके साल 2050 तक बढ़कर 1,447 अरब घनमीटर होने का अनुमान है।
जल संरक्षण और पानी के विवेकपूर्ण इस्तेमाल को लेकर हमें अब और देरी नहीं करनी चाहिए। एशियाई विकास बैंक ने अपने पूर्वानुमान में बताया है कि साल 2030 तक भारत में 50 फीसदी पानी की कमी हो जाएगी। हमारे देश में पानी की जरूरतें मूल रूप से नदियों और भूजल से पूरी होती हैं। चूंकि हमारी अधिकतर खेती वर्षा पर आधारित है, इसलिए पानी की कमी यहां खाद्यान्न उत्पादन पर भयानक असर डाल सकती है। हमें जल-संचयन को शीर्ष प्राथमिकता में रखना ही होगा, क्योंकि सिंचाई-कार्यों की लगभग 60 फीसदी जरूरत भूजल से पूरी होती है, जबकि ग्रामीण इलाकों में पीने के पानी की 85 फीसदी जरूरत और शहरी जरूरतों का 50 फीसदी हिस्सा इस पर निर्भर है।
सरकार विश्व बैंक की सहायता से 6,000 करोड़ रुपये की ‘अटल भूजल’ योजना शुरू कर रही है। इस योजना के तहत सामुदायिक भागीदारी सुनिश्चित करते हुए देश के सात राज्यों के उन इलाकों में सतत भूजल प्रबंधन सुनिश्चित किया जाएगा, जहां पर इसका सर्वाधिक दोहन हो रहा है। अध्ययन में यह पाया गया है कि देश के 6,584 ब्लॉक में से 1,034 ब्लॉक में पानी का अत्यधिक दोहन हो रहा है। पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय की वार्षिक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में लगभग 77 प्रतिशत बस्तियों ने राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल परियोजना के तहत शत-प्रतिशत लक्ष्य हासिल कर लिया है, यानी 40 लीटर पानी प्रति व्यक्ति प्रतिदिन की खपत वहां हो रही है। इतना ही नहीं, 55 फीसदी ग्रामीण आबादी अब नल के पानी का इस्तेमाल करने लगी है। रिपोर्ट के अनुसार, पानी की गुणवत्ता को लेकर भी मंत्रालय ने खास कदम उठाए हैं। एक सब-मिशन योजना चलाई जा रही है, जिसके तहत 2020 तक आर्सेनिक व फ्लोराइड से प्रभावित 28,000 बस्तियों में पानी की गुणवत्ता सुधार ली जाएगी। एक अन्य गंभीर मसला, शहरों की जीर्ण-शीर्ण पाइपलाइन व्यवस्था है। इसके कारण भी काफी सारा पानी बेकार चला जाता है।
इससे पहले कि स्थिति गंभीर हो जाए, हमें तत्काल सामूहिक प्रयास शुरू कर देना होगा। तालाबों, पोखरों व जल संचयन की अन्य संरचनाओं को पुनर्जीवित व सुरक्षित करना होगा। खेती में पानी के कुशल उपयोग को बढ़ावा देना होगा। शहरी व ग्रामीण, दोनों क्षेत्रों की तमाम इमारतों में वर्षा जल संचयन की व्यवस्था अनिवार्य बनानी होगी। एक-एक बूंद पानी बचाने की हर व्यवस्था को बढ़ावा देना होगा। अगर हम जीवन से समृद्ध इस ग्रह को अगली पीढ़ी के लिए सुरक्षित रखना चाहते हैं, तो हमें ‘रीडूस’ यानी कम खपत, ‘रीयूज’ यानी फिर से उपयोग करना और ‘रीसाइकिल’ यानी फिर से इस्तेमाल लायक बनाने को अपना मूलमंत्र बनाना होगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं)