जिन्ना को लेकर जिद क्यों?
जिन्ना भारतीय राजनीति में एक दिलचस्प उपस्थिति हैं। उनका जिक्र किए बिना आप 20वीं शताब्दी में एक राष्ट्र राज्य में तब्दील होते भारत को नहीं समझ सकते। विश्व में ऐसा कोई दूसरा उदाहरण विरला ही मिलेगा, जब...
जिन्ना भारतीय राजनीति में एक दिलचस्प उपस्थिति हैं। उनका जिक्र किए बिना आप 20वीं शताब्दी में एक राष्ट्र राज्य में तब्दील होते भारत को नहीं समझ सकते। विश्व में ऐसा कोई दूसरा उदाहरण विरला ही मिलेगा, जब किसी अकेले व्यक्ति ने हवा में नक्शा खींचकर उसे एक भौगोलिक हकीकत के रूप में जमीन पर उतार दिया हो। यह कहना सरलीकरण होगा कि जिन्ना को लेकर हालिया विवाद सिर्फ कर्नाटक के चुनावों को ध्यान में रखकर उठा था। जिन्होंने विवाद उठाया था, वे जिन्ना की तस्वीर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) के छात्र संघ दफ्तर में न टंगी होती, तब भी कोई और मुद्दा उठाकर सांप्रदायिक विभाजन करते। चुनावों का मौसम न भी हो, तब भी विभक्त भारतीय समाज के किसी भी गंभीर विमर्श में जिन्ना का प्रेत मौजूद रहता ही है।
शिक्षाविद् और कानून विशेषज्ञ फैजान मुस्तफा का कहना सच है कि भारतीय उपमहाद्वीप के मुसलमानों का सबसे बड़ा नुकसान जिन्ना ने किया था। पाकिस्तानी मोहाजिर नेता अल्ताफ हुसैन की तरह वह भी मानते हैं कि विभाजन के कारण इस खित्ते के मुसलमान तीन टुकड़ों में बंट गए व कमजोर हुए। इसके बावजूद एएमयू छात्र संघ इस बात पर क्यों अड़ा है कि जिन्ना की तस्वीर दीवार से नहीं उतरेगी? तर्क दिए जा रहे हैं कि यह तस्वीर तो दशकों से टंगी है, फिर अभी अचानक क्यों हाय-तौबा मचाई जा रही है या संसद में टंगे एक ग्रुप फोटोग्राफ में भी जिन्ना झांकते दिख रहे हैं, उसे क्यों नहीं हटाते?
भारतीय उपमहाद्वीप दुनिया की दो बड़ी धार्मिक आस्था- हिंदू व इस्लाम के पारस्परिक लेन-देन की अद्भुत प्रयोगशाला रहा है। हजार से भी अधिक वर्ष के इनके साथ ने अनंत संभावनाओं वाली दुनिया निर्मित की है। दोनों ने मिलकर संगीत, स्थापत्य, परिधान, विभिन्न दृश्य व श्रव्य कलाओं, साहित्य, यहां तक कि पाक शास्त्र में भी बेहतरीन मिली-जुली उपलब्धियां हासिल की हैं। पर यह सोचना कि दुनिया के दो बडे़ धर्मों के अनुयायी साथ रहते हुए सिर्फ रचनात्मक लेन-देन करते रहे, सरलीकरण ही होगा। यह सोचना भी सरलीकरण होगा कि दोनों के बीच लड़ाई-झगडे़ सिर्फ ब्रिटिश उपनिवेशवाद की देन थे। अंग्रेज न लड़ाते, तो ये न लड़ते। संघर्ष के बीज तो दोनों के भीतर कहीं गहरे छिपे हैं, अंग्रेजों ने तो सिर्फ खाद-पानी देने का काम किया। जिन्ना भी इसी मेल-जोल और लड़ाई-झगडे़ की उपज हैं। एक तटस्थ व वस्तुपरक मूल्यांकन ही समझा सकता है कि एक समय में हिंदू-मुस्लिम एकता के हामी या तिलक और भगत सिंह के लिए अदालत में बहस करने वाले जिन्ना क्यों पृथक मुस्लिम राष्ट्र के पुरोधा बने और कैसे सिर्फ दस वर्षों (1937-1947) में उन्होंने इसे हासिल करके दिखा दिया? इसके लिए पहले तो हमें अपने दिमाग में लगे इस जाले को साफ करना होगा कि ‘दो राष्ट्रों का सिद्धांत’ जिन्ना के दिमाग की उपज है।
19वीं शताब्दी के उत्तराद्र्ध र्में ंहदू-राष्ट्र शब्द का प्रयोग शुरू हो गया था और इसमें सबसे महत्वपूर्ण बौद्धिक योगदान महर्षि अरबिंदो घोष के मामा राज नारायण बसु और उनके सहयोगी नाभा गोपाल मित्र का है। मित्र ने भाषा और क्षेत्र की सीमाओं से परे एक हिंदू राष्ट्र का सपना देखा। उत्तर भारत में आर्य समाजी भाई परमानंद ने 20वीं शताब्दी की शुरुआत में हिंदुओं के अलग राष्ट्र की परिकल्पना की थी। यहां तक कि वे 1908-09 में आबादी की अदला-बदली कर हिंदुओं और मुसलमानों को अलग-अलग इलाकों में बसाने की वकालत कर रहे थे। 1924 में लाला लाजपत राय ने लगभग वही खाका पेश कर दिया, जिस पर आगे चलकर रेडक्लिफ लाइन खींची गई। उनके अनुसार, फ्रंटियर, पश्चिमी पंजाब, सिंध और पूर्वी बंगाल के रूप में मुसलमानों के चार राज्य बनने चाहिए थे। मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने तो इन सबके बाद दो राष्ट्रों के सिद्धांत को मूर्त रूप देना शुरू किया। मुस्लिम लीग के इलाहाबाद अधिवेशन (1930) में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच की सांस्कृतिक खाई को रेखांकित करने वाला इकबाल का भाषण, कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के छात्र चौधरी रहमत अली द्वारा पहली बार (1933) पाकिस्तान शब्द का इस्तेमाल और लाहौर सम्मेलन (1940) में मुस्लिम लीग द्वारा स्वायत्त मुस्लिम राज्यों का प्रस्ताव लाला लाजपत राय की स्थापना के तार्किक विस्तार ही हैं। 1947 में लालाजी की कल्पना पूरी हुई। फर्क सिर्फ इतना था कि चार राज्यों की जगह एक मुस्लिम राष्ट्र बना।
पता नहीं, इतिहास में काश का कोई अर्थ होता भी है या नहीं। पर आज हम कह सकते हैं कि काश, 1937 में कांग्रेस ने युक्त प्रांत में सरकार बनाते समय मंत्रिमंडल में वायदे के मुताबिक दो जगह मुस्लिम लीग को दे दी होती; काश, कैबिनेट मिशन प्लान नेहरू और पटेल ने मान लिया होता; काश, जिन्ना ने डायरेक्ट एक्शन डे जैसा कार्यक्रम न आयोजित किया होता... ऐसे कई काश हैं, जिनके भिन्न उत्तर होते, तो देश का विभाजन न होता और करोड़ों लोगों के विस्थापन और खून-खराबे से बचा जा सकता था। फैजान मुस्तफा को इस पर भी आश्चर्य है कि कानून के माहिर जिन्ना क्यों नहीं भांप पाए कि आजाद भारत में एक धर्मनिरपेक्ष संविधान ही बनेगा और उसमें मुसलमानों को बराबरी का हक मिलेगा? शायद यह जिन्ना की बौद्धिक सीमा थी। उनके समकालीन सभी बड़े नेता- गांधी, नेहरू, मौलाना आजाद आदि प्रकांड विद्वान और विचारक थे, जिसका नमूना उनका लेखन है। जिन्ना अपवाद थे। उन्होंने एक अखबार डॉन जरूर शुरू किया, पर उसमें उनका लिखा कुछ भी नहीं मिलता। इससे उनके अंदर जो हीन ग्रंथि पैदा हुई, शायद वह भी जिम्मेदार थी कई बडे़ फैसलों की। इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेसी नेताओं द्वारा उनकी अपमानजनक उपेक्षा की गई, पर यदि उनके अंदर बौद्धिक प्रौढ़ता होती, तो उन्होंने जल्दबाजी में वे सब फैसले न लिए होते, जिनके लिए वह बाद में पछताए। यह तो उनके करीबियों ने लिखा है कि पाकिस्तान बनाने के बाद वह अंतिम दिनों में अफसोस करते रहे। एक बार धर्माधारित राज्य बनाने के बाद नेशनल असेंबली में 11 अगस्त के उनके इस वक्तव्य का कोई अर्थ नहीं रह जाता कि पाकिस्तान में कोई हिंदू, मुसलमान, सिख या ईसाई नहीं होगा और राज्य सबके साथ बराबरी का व्यवहार करेगा।
एएमयू के छात्रों की जिद कि वे जिन्ना का चित्र नहीं हटाएंगे, सिर्फ दक्षिणपंथी हिंदुत्व की मदद करेगा, क्योंकि कुछ भी हो, यह जिन्ना ही थे, जिनकी वजह से ‘दो राष्ट्रों के सिद्धांत’ को एक भौगोलिक स्वरूप मिला था। (ये लेखक के अपने विचार हैं)