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अफवाहों को विश्वसनीयता देता तंत्र

कहते हैं, झूठ के पांव नहीं होते, मगर उसके सहोदर अफवाह के तो पैर के साथ-साथ पर भी होते हैं। झूठ कदमों चलकर जहां चंद घंटों में पहुंचता है, अफवाह उड़कर वहां कुछ मिनटों में ही अपना खेल खेलने लगती है। भारत...

अफवाहों को विश्वसनीयता देता तंत्र
विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारीMon, 22 Oct 2018 11:46 PM
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कहते हैं, झूठ के पांव नहीं होते, मगर उसके सहोदर अफवाह के तो पैर के साथ-साथ पर भी होते हैं। झूठ कदमों चलकर जहां चंद घंटों में पहुंचता है, अफवाह उड़कर वहां कुछ मिनटों में ही अपना खेल खेलने लगती है। भारत जैसे समाज में तो अफवाह कुछ अधिक ही रचनात्मक हो उठती है। हम गल्प और इतिहास में बहुत कम फर्क करते हैं और कहा जाता है, सुना जाता है या माना जाता है, जैसे शब्दों से शुरू हमारे विवरणों में कितना सच है, कितना अद्र्र्धसत्य और कितना सिर्फ झूठ- इसका अनुमान लगाना असंभव नहीं, तो मुश्किल जरूर होता है। फिर एक औसत भारतीय गजब का किस्सागो होता है... इतने आत्मविश्वास से आंखों देखा हाल सुनाएगा कि जानते हुए भी कि वह झूठ बोल रहा है, आप उसका कहा सच मानने को मजबूर हो जाएंगे। विश्व के महान गल्प में सम्मिलित कथासरित्सागर, पंचतंत्र  या महाभारत हमारी इसी रचनात्मकता के उत्स हैं। अफवाहें फैलाने में यही प्रतिभा हमारे काम आती है। 

प्राकृतिक आपदा, रेल दुर्घटना या सांप्रदायिक दंगों के दौरान तो भारतीय प्रतिभा अपने चरम पर होती है। प्रतिभा के इस विस्फोट से मेरा पहला साबका अपनी नौकरी की शुरुआत में ही पड़ा। 1980 की गरमियों में इलाहाबाद की एक सुबह पानी के सार्वजनिक नल पर हुए विवाद के बाद भड़की हिंसा दिन डूबने तक काबू में आ पाई। हिंसा में दो लोग मारे गए थे। डेढ़-दो बजे रात जब मैं थका-मांदा घर लौटा, तो मेरी नव विवाहिता पत्नी मेरी प्रतीक्षा में जाग रही थीं। उन तक ‘खबर’ पहुंच चुकी थी कि शहर में सैकड़ों लोग मारे जा चुके हैं और काफी लाशें तो पुलिस ने ट्रकों पर लादकर गंगा में बहा दी हैं। मैं मुंह बाए सुनता रहा। पता चला कि यह आधिकारिक सूचना प्रसारित करने वाले मेरे बंगले के बाहर तैनात गारद के सिपाही ही थे। इस तरह की अफवाहों पर तो आप हंस सकते हैं, पर उन अफवाहों का क्या करेंगे, जो पूरे समाज को हिंसा की आग में झुलसा सकती हैं। 

इलाहाबाद का ही एक और अनुभव। दिसंबर 1990 में अयोध्या की बाबरी मस्जिद पर कार सेवकों ने पहली गंभीर चढ़ाई की थी, दोपहर में उन्हें रोकने के लिए पुलिस ने फायरिंग की, मरने वालों की संख्या 20 से भी कम थी। पर शाम होते-होते वहां से सिर्फ सौ किलोमीटर दूर इलाहाबाद जब यह खबर पहुंची, तो संख्या 2,000 से होती हुई 20,000 तक पहुंच चुकी थी। कई हिंदी दैनिकों ने भड़काऊ  शीर्षक के साथ अपने विशेष संस्करण भी छाप डाले। देर शाम जब मैं जिलाधिकारी के साथ एक वरिष्ठ सैन्य अधिकारी से जरूरत पड़ने पर अगले दिन सेना की उपलब्धता के बारे में बात करने गया, तो उनके पास एक खौफनाक सूचना थी। यह सूचना बता रही थी कि अयोध्या में पीएसी और सेना के बीच गोलियां चल रही हैं। एक बार तो मैं चकरा गया। इतने खतरनाक घटनाक्रम से मैं पूरी तरह अनभिज्ञ था, मैं तुरंत बाहर भागा। अपनी कार में लगे संचार उपकरणों से सूचनाएं एकत्रित करने के बाद मेरी चिंता समाप्त हुई और वापस अंदर जाकर अपने आतिथेय को बता सका कि उनके पास उपलब्ध सूचना सिर्फ अफवाह है। 

हम इतनी आसानी से अफवाहों पर विश्वास कैसे कर लेते हैं? ऊपर जिन फौजी अफसर का मैंने जिक्र किया, वह सिर्फ एक फोन घुमाकर सच्चाई जान सकते थे, पर इस सुविधा के मुकाबले उन्होंने उन सूचनाओं को तरजीह दी, जो पूरी तरह से बेबुनियाद थीं। इसका एक बड़ा कारण तो शायद सरकारी मशीनरी की आदतन झूठ बोलने की परंपरा है। पहले तो हम जनता को कुछ बताना नहीं चाहते और अगर बताना ही पड़़े, तो उसमे सच का अंश बहुत कम होता है। हो सकता है कि जिन ब्रिटिश महाप्रभुओं ने इस नौकरशाही की नींव डाली थी, उनसे यही प्रशिक्षण हमें मिला हो। पर स्वतंत्रता के बाद क्यों नहीं ऐसी परंपरा बन पाई, जिसमें जनता की सच तक रसाई आसान हो सके? आदतन झूठ बोलने के कारण विश्वसनीयता इतनी कम हो गई है कि राज्य किन्हीं दुर्लभ क्षणों में सच बोले भी, तो लोग उस पर यकीन नहीं करते। लोक के बीच ऐसे मुहावरे प्रचलित हो गए हैं, जिनका प्रयोग किसी प्राकृतिक आपदा या रेल दुर्घटना में जान-माल के नुकसान के सरकारी आंकड़ों को झूठा साबित करने के लिए किया जाता है। 

पूरी तरह से ढक-छिपकर किया जाने वाला सरकारी प्रयास और उसके बरक्स पारदर्शी गतिविधि के बीच कितना फर्क हो सकता है, इसे समझने के लिए एक ही उदाहरण काफी है। 1984 में स्वर्ण मंदिर में किया गया ऑपरेशन ब्लू स्टार जनता को विश्वास में न लिए जाने का एक खराब उदाहरण है। सच छिपाया गया या आधा-अधूरा बताया गया, इसलिए अफवाहें मजबूत पंखों पर उड़ीं। आज भी पंजाब के लोग इस ऑपरेशन के सरकारी विवरणों पर विश्वास नहीं करते। स्वर्ण मंदिर में 1988 में एक अन्य ऑपरेशन केपीएस गिल के नेतृत्व में ऑपरेशन ब्लैक थंडर के नाम से हुआ। इसमें शुरू से पारदर्शिता बरती गई, यहां तक कि पत्रकारों को सुरक्षा बलों के साथ रखा गया। दोनों के नतीजे सामने हैं।

अफवाहों की निर्मिति में हमारी दुर्भावनाएं और पूर्वाग्रह बड़ी भूमिका निभाते हैं। मुझे याद है कि 1987 के मेरठ दंगों के दौरान वहां से सिर्फ 60 किलोमीटर दूर गाजियाबाद में रहने वाली अधिकांश आबादी के बीच जो तथ्य प्रचारित किए जा रहे थे, वे पूरी तरह से झूठे और निराधार थे, पर पूरे प्रयासों के बावजूद हम जनता को यह नहीं समझा पा रहे थे। विश्वसनीयता के संकट के अलावा इसके पीछे कुछ खास तरह की धार्मिक दुर्भावनाएं भी थीं। हाल के दिनों में सड़कों पर भीड़ हत्या की घटनाएं धार्मिक दुर्भावनाओं से उपजी अफवाहों की ही करामात है, जिनमें लोग पूरी तरह विवेक शून्य होकर नृशंसता की सीमा पार कर जाते हैं। गणेशजी के दूध पीने या 1984 में श्रीमती गांधी की हत्या पर सिखों के मिठाई बांटने की अफवाह पूरे देश में एक साथ फैली। इन जैसी अफवाहों ने देश और समाज का कितना नुकसान किया, किसी से छिपा नहीं है। मुझे लगता है, भारत में अफवाहें किसी गहरी समाजशास्त्रीय चिंता का विषय होनी चाहिए। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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