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लोक सेवा आयोगों में बदलाव का समय

देश में केंद्र और सभी राज्यों का अपना-अपना लोक सेवा आयोग है। इन सबका गठन भारत सरकार अधिनियम, 1935 से हुआ है। इनके गठन के पीछे एक ऐसी व्यवस्था बनाने की भावना थी, जो राजनीतिक प्रभाव, भाई-भतीजावाद या...

लोक सेवा आयोगों में बदलाव का समय
मोहन भंडारी, पूर्व अध्यक्ष, उत्तराखंड लोक सेवा आयोगSun, 24 Jun 2018 10:42 PM
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देश में केंद्र और सभी राज्यों का अपना-अपना लोक सेवा आयोग है। इन सबका गठन भारत सरकार अधिनियम, 1935 से हुआ है। इनके गठन के पीछे एक ऐसी व्यवस्था बनाने की भावना थी, जो राजनीतिक प्रभाव, भाई-भतीजावाद या किसी भी तरह के दबाव या पक्षपात से मुक्त होकर योग्यता के आधार पर सार्वजनिक सेवाओं के लिए पेशेवरों के चयन की राह खोले। किसी की निजी पसंद-नापसंद की कोई भूमिका चयन प्रक्रिया में नहीं थी।  सुखद आश्चर्य है कि लोक सेवा आयोग के गठन के पीछे जो सिद्धांत व लक्ष्य तय किए गए थे, वे आज भी अपनी उसी भावना के साथ कायम हैं।

यह समझना होगा कि राज्य स्तर पर संसाधनों का लगभग 69 फीसदी हिस्सा कर्मचारियों, उनके वेतन और इससे संबंधित मदों में खर्च होता है। राज्यों के लिए मानव संसाधन सबसे महत्वपूर्ण निधि है। लिहाजा भारत को आज एक खास लाभ हासिल है कि यहां की बड़ी आबादी नौजवानों की है। ऐसे में, यह उचित समय है कि हम इस लाभांश का बेहतर इस्तेमाल करें। यह इसलिए भी जरूरी हो जाता है कि अगले 25-30 वर्षों तक भारत को इस युवा आबादी का फायदा मिलेगा। राज्यों में लोक सेवा आयोगों के माध्यम से भर्ती होने वाले कर्मचारी बेहतर शासन-व्यवस्था सुनिश्चित करके युवा-शक्ति को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। इसलिए केंद्र व राज्य सरकारों को संघ व राज्य स्तरीय लोक सेवा आयोगों को समान महत्व देना चाहिए। चूंकि हमारी अर्थव्यवस्था तेजी से आगे बढ़ रही है, इसलिए यही समय है, जब युवा-शक्ति के बेहतर इस्तेमाल की दिशा में कदम बढ़ाए जाएं। वरना, जिस युवा आबादी को हम अपना जनसांख्यिकीय लाभांश मान रहे हैं, वही हमारे लिए आपदा साबित हो सकती है।

इसमें कई चुनौतियां हैं। वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण ने दुनिया को एक वैश्विक गांव में तब्दील कर दिया है। इससे सार्वजनिक सेवाओं की भूमिका और प्रासंगिकता में भी उल्लेखनीय बदलाव हुए हैं। ब्रिटेन आज अपने सिविल सर्विस कमीशन के जरिए सार्वजनिक सेवाओं से जुड़े महज पांच फीसदी पदों पर नियुक्ति करता है। कनाडा, दक्षिण अफ्रीका और ऑस्ट्रेलिया भी पूरी तरह से या फिर आंशिक तौर पर सार्वजनिक सेवाओं की विकेंद्रित नियुक्ति (विभागों या मंत्रालयों द्वारा अलग-अलग चयन करना) करने लगे हैं। दुनिया के कई हिस्सों में ऐसी नियुक्ति प्रक्रिया करीब-करीब निजी हाथों को सौंपी जा चुकी है। ज्यादातर राष्ट्रमंडल देशों में भी सरकारें इस नियुक्ति के मूल कार्य से पीछे हट गई हैं। ऐसे में, यह बहस का विषय है कि सिविल सेवाओं के शीर्ष स्तर पर नियुक्ति के लिए संघ और राज्यों के लोक सेवा आयोगों की भूमिका क्या अब भी मुख्य भर्ती एजेंसी के रूप में बनी रहनी चाहिए?

यह सही है कि भारत का सिविल और प्रशासनिक चरित्र बाकी दुनिया से बिल्कुल अलग है, पर यही उचित समय होगा, जब हम पुराने मॉडल को दुरुस्त करें, ताकि वे सार्वजनिक सेवाओं के अनुकूल बन सकें। इसके लिए इसके अंदर सुधार करना होगा। इसका एक हिस्सा परीक्षा व्यवस्था में सुधार भी है, जिसे ई-गवर्नेंस के उद्देश्यों व जरूरतों के मुताबिक ढालना होगा।

दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारा संविधान इन आयोगों के अध्यक्ष और सदस्यों की नियुक्ति की बात तो कहता है, पर इनकी चयन प्रक्रिया पर मौन है। मौजूदा व्यवस्था में राज्य लोक सेवा आयोगों के आधे से अधिक सदस्यों का चयन पूरी तरह से कार्यपालिका के विवेकाधिकार पर निर्भर है। जबकि अध्यक्ष के मामले में एक ‘सर्च कमेटी’ का गठन किया जाता है, जो तीन उपयुक्त लोगों के नाम ‘शॉर्ट लिस्ट’ करती है। जाहिर है, सदस्यों के मामले में भी यही प्रक्रिया अपनाई जानी चाहिए। इसमें निवर्तमान अध्यक्ष की सलाह अनिवार्य होनी चाहिए। इतना ही नहीं, ऐसी नियुक्तियां संविधान के मुताबिक योग्य व्यक्ति की होनी चाहिए, मगर वास्तव में ऐसा नहीं होता। अपने लोगों की नियुक्ति के लिए राजनेताओं व नौकरशाहों के तमाम दबाव काम करते हैं, जिसके घातक नतीजे निकलते हैं। सदस्य अपने उत्तरदायित्व, पेशेवर रुख और विश्वसनीयता से समझौता करते हैं। पंजाब, महाराष्ट्र, झारखंड, बिहार जैसे राज्यों के लोक सेवा आयोगों के बाद अब उत्तर प्रदेश का मामला हमारे सामने है।

लोक सेवा आयोगों के कामकाज में केंद्र और राज्य सरकारों ने अपनी दखल बढ़ा दी है। राज्य सरकार आयोगों के माध्यम से गजेटेड पोस्ट की भर्ती के लिए नियमित अधिसूचनाएं जारी न कर खुद चयन कर रही हैं। यह भी देखा गया है कि केंद्र व राज्य सरकारें और कार्यपालिका भी संबंधित लोक सेवा आयोगों के बारे में गंभीर नहीं हैं, क्योंकि वे उन्हें संविधान प्रदत्त एक स्वायत्त व्यवस्था के रूप में नहीं, बल्कि बतौर सहायक देखती हैं। रही-सही कसर इन्फ्रास्ट्रक्चर या स्टाफ की कमी पूरी कर देती है, जिसके लिए आयोगों को पर्याप्त बजट नहीं मिलता। साफ है, राज्य लोक सेवा आयोगों को सांविधानिक प्रावधानों के तहत वित्तीय स्वायत्तता तो मिलनी ही चाहिए, विधायिका द्वारा बजट की मंजूरी मिलने के बाद उन्हें अपने बजट के इस्तेमाल का पूरा अधिकार भी मिलना चाहिए।

सच यह भी है कि अदालती मुकदमों ने भी आयोगों के कामकाज को प्रभावित किया है; फिर चाहे यह परीक्षा को रोकने के लिए हो या फिर आयोग के सांविधानिक कामकाज के संदर्भ में। राज्यों की विभिन्न परीक्षाओं में सेवा, वेतन, भत्ते या प्रक्रियाओं को लेकर भी समानता नहीं है। आलम यह है कि संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य 65 साल की उम्र तक अपनी सेवा दे सकते हैं, जबकि राज्य लोक सेवा आयोग के सदस्य 62 वर्ष की उम्र तक। इसी तरह, कुछ राज्य क्षेत्रीय विषयों को अनिवार्य विषय की मान्यता दे चुके हैं। और भी कई विसंगतियां हैं। मगर मूल मसला यह है कि आयोगों में अगर किसी सुधार की जरूरत होती है, तो वह संविधान में संशोधन के बाद ही संभव हो पाता है। और यह कोई आसान काम नहीं, क्योंकि इससे राजनीतिक दलों के हित नहीं सधते। 

सवाल बना हुआ है कि क्या हमें लोक सेवा आयोगों के कामकाज का मौजूदा स्वरूप बरकरार रखना चाहिए? जाहिर है, इस सवाल पर एक राष्ट्रीय बहस कराने और फिर उसे संसद के पटल पर रखने का वक्त आ गया है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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