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किशनगंगा पर पाकिस्तानी रुदन

किशनगंगा बिजली परियोजना पर पाकिस्तान के विलाप का कोई मतलब नहीं है। बीते शनिवार को ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह परियोजना राष्ट्र को समर्पित की है, और अब इस पर एतराज जताते हुए हमारा पड़ोसी देश...

किशनगंगा पर पाकिस्तानी रुदन
उत्तम कुमार सिन्हा, फेलो, आईडीएसएTue, 22 May 2018 10:06 PM
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किशनगंगा बिजली परियोजना पर पाकिस्तान के विलाप का कोई मतलब नहीं है। बीते शनिवार को ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यह परियोजना राष्ट्र को समर्पित की है, और अब इस पर एतराज जताते हुए हमारा पड़ोसी देश विश्व बैंक के दरवाजे तक जा पहुंचा है। उसने शिकायत की है कि सिंधु नदी जल समझौते का भारत उल्लंघन कर रहा है और किशनगंगा जैसी परियोजनाएं उसके यहां जल संकट बढ़ा सकती हैं।

अव्वल तो हमने सिंधु नदी जल समझौते के प्रावधानों के मुताबिक ही बांध का निर्माण किया है, और फिर यह  ‘नॉन कन्जम्प्टिव’भी है। यानी पानी की जितनी मात्रा का इस्तेमाल हम बिजली पैदा करने के लिए करेंगे, उतना वापस नदी में डाल दिया जाएगा। असल में, किसी भी जलविद्युत परियोजना में पानी को एक रफ्तार से टरबाइन से गुजारा जाता है और जितनी तेजी से टरबाइन घूमता है, उतनी बिजली पैदा होती है। इसमें पानी की कोई खपत नहीं होती। ‘कन्जम्प्टिव यूज’ यानी खपत का अच्छा उदाहरण कृषि के लिए पानी का इस्तेमाल करना है।

पाकिस्तान के आरोपों की सच्चाई सिंधु नदी जल समझौते के प्रावधानों को देखकर बखूबी समझी जा सकती है। यह समझौता 1960 में अस्तित्व में आया था। समझौते के तहत एक स्थाई सिंधु आयोग बनाया गया है, जिसके दो आयुक्त होते हैं, एक भारत के और दूसरे पाकिस्तान के। ये दोनों आयुक्त साल में एक बार मिलते हैं और आपसी विवादों का निपटारा करते हैं। साल 1965, 1971 और कारगिल की जंग के दरम्यान भी दोनों देशों के आयुक्त मिलते रहे हैं। संभवत: इसलिए आज भी यह समझौता तमाम राजनीतिक असहमतियों के बावजूद प्रासंगिक बना हुआ है।

पाकिस्तान को लगता है कि अगर भारत के साथ संबंधों में तल्खी आएगी, तो नई दिल्ली कहीं पानी ही न रोक दे? यह सच है कि भूतल के हिसाब से पाकिस्तान हमसे नीचे है, मगर भारत ने कभी पानी जैसी बुनियादी मानवीय जरूरत से उसे वंचित करने की नहीं सोची। इसलिए हमने सिंधु नदी जल समझौता किया है, क्योंकि हम एक जिम्मेदार राष्ट्र हैं। जबकि देखा जाए, तो चीन भूतल के लिहाज से हमसे ऊपर है, पर उसने हमारे साथ ऐसा कोई समझौता नहीं किया है। 

किशनगंगा जैसे बांध हमारी, खासकर जम्मू-कश्मीर की जरूरत हैं। इनसे हम बिजली का उत्पादन कर सकेंगे, जो विकास का एक महत्वपूर्ण वाहक है। हालांकि हमारी हुकूमत को जम्मू-कश्मीर की आकांक्षाओं पर भी गौर करना चाहिए। अभी सूबे की किसी भी जलविद्युत परियोजना से जितनी बिजली का उत्पादन होता है, उसका महज 12 फीसदी हिस्सा ही जम्मू-कश्मीर को मिलता है। यहां की उम्मीदें परवान चढ़ सकें, इसके लिए जरूरी है कि यह हिस्सेदारी बढ़ाई जाए। केंद्र सरकार इसे 15 या 20 फीसदी कर सके, तो बेहतर होगा।

बहरहाल, यह समझौता विवाद के निपटारे की राह भी बताता है। इसमें सुलह के तीन तरीकों का जिक्र है। पहला और सबसे प्रभावी है, आपस में मिल-बैठकर मसले का निपटारा। इसमें किसी तीसरे देश का कोई दखल नहीं होगा। दूसरा तरीका है, विश्व प्रसिद्ध इंजीनियरों को बुलाकर विवाद का हल खोजना। और तीसरा, कोर्ट ऑफ ऑर्बिट्रेशन यानी मध्यस्थ अदालत का गठन। पाकिस्तान की मंशा हर मसले को मध्यस्थ अदालत में ले जाने की होती है, क्योंकि ऐसी सूरत में विवादित परियोजना पर तत्काल काम रुक जाता है, और काम में देरी होने का मतलब है, उसकी लागत बढ़ना। 

इस समझौते का एक महत्वपूर्ण पक्ष विश्व बैंक भी है। उसने ही दोनों मुल्कों को इस समझौते पर पहुंचने में मदद की है, इसलिए पाकिस्तान अभी उसकी शरण में गया है। मगर हमारा रुख साफ है। हम किसी भी मसले में किसी तीसरे देश या पक्ष की मध्यस्थता के हिमायती नहीं रहे हैं। आपस में मिल-बैठकर समस्या का निपटारा करना हमारी नीति रही है।

सिंधु और उसकी सहायक नदियों पर जलविद्युत नदी जैसी परियोजनाएं जम्मू-कश्मीर को काफी लाभ पहुंचा सकती हैं। यह बात सिंधु नदी जल समझौते को अंतिम रूप देने वाले नेताओं ने भी समझी थी। संभवत: इसलिए समझौते में ऐसी तमाम परियोजनाएं बनाने का जिक्र किया गया है, जिससे नदी के बहाव पर कोई असर न पड़े। मगर पाकिस्तान को यह हजम नहीं हो रहा। वह जिस तरह वक्त-बेवक्त इस समझौते की आड़ में भारत पर दबाव बनाने की कोशिश करता है, उसे देखकर कुछ अतिवादी सोच के लोग इस समझौते को निरस्त करने की मांग करते हैं। उनका कहना है कि कभी-कभी हम जो करना चाहते हैं, उसे करने की इजाजत यह समझौता नहीं देता। जब यह बना था, तब तकनीक सीमित थी और पानी का प्रवाह अधिक। अब पानी का प्रवाह कम हो गया है और तकनीक विकसित। इसीलिए अतिवादियों की नजर में यह समझौता बोझ बन गया है। मगर उदारवादी लोग इसमें सुधार के पक्षधर हैं, ताकि विश्व मंच पर भारत की छवि को कोई नुकसान न पहुंचे। 

इन दोनों के अतिरिक्त एक मध्यमार्गी सोच भी है, जो कहीं ज्यादा संतुलित दिखती है। यह सोच कहती है कि सिंधु नदी जल समझौते के मौजूदा प्रावधानों के तहत तमाम कार्य चलने चाहिए, और जब वे पूरे हो जाएं, तब जाकर इसे सुधार करने या निरस्त करने के बारे में सोचा जाए। हालांकि पाकिस्तान भी यह जानता है कि इस समझौते के निरस्त होने का सर्वाधिक नुकसान उसे ही होगा और ऐसा करने से उसके हिस्से में कुछ भी नहीं आएगा, उलटे अभी जो संसाधन उसे मिल रहा है, उस पर भी रोक लग सकती है।

साफ है, पाकिस्तान ने बांध के विरोध में जो भी तर्क दिए हैं, वे कहीं नहीं ठहरते। 2010 में भी वह इसके खिलाफ मध्यस्थ अदालत जा चुका है, जहां उसे मुंह की खानी पड़ी थी। इस बार भी उसे फायदा नहीं होने वाला। यह बेवजह का विवाद बनाया जा रहा है। चूंकि पाकिस्तान और भारत के राजनीतिक समीकरण जटिल हैं, इसलिए पानी के बहाने वह तनाव का बहाना ढूंढ़ रहा है। मगर किशनगंगा बांध पाकिस्तान ही नहीं, पूरी दुनिया के लिए संदेश है। यह इंजीनिर्यंरग की हमारी ताकत दिखा रहा है। ऐसी परियोजनाओं से हम विश्व मंच पर अपनी तकनीक और ज्ञान का लोहा मनवा रहे हैं। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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