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शिलांग की हिंसा के उलझे समीकरण

मेघालय की राजधानी शिलांग में गुरुवार के बाद से हिंसा जारी है। यहां बीते 31 मई को खासी जनजाति के एक युवक और सिख महिला के बीच बढ़ी तकरार ने हिंसक रूप ले लिया। इस कारण पूरे इलाके में तनाव का माहौल बना...

शिलांग की हिंसा के उलझे समीकरण
चंदन कुमार शर्मा, प्रोफेसर, तेजपुर विश्वविद्यालय, असमTue, 05 Jun 2018 09:30 PM
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मेघालय की राजधानी शिलांग में गुरुवार के बाद से हिंसा जारी है। यहां बीते 31 मई को खासी जनजाति के एक युवक और सिख महिला के बीच बढ़ी तकरार ने हिंसक रूप ले लिया। इस कारण पूरे इलाके में तनाव का माहौल बना हुआ है। पंजाब लेन नाम के क्षेत्र के आसपास कफ्र्यू कायम है और सेना फ्लैग मार्च कर रही है। दूसरे तमाम उपाय भी किए जा रहे हैं, ताकि यह तनाव शांत हो। मगर क्या इन तात्कालिक उपायों से ही यहां पसरा तनाव खत्म हो सकता है? शायद नहीं। अगर यहां के इतिहास पर नजर डालें, तो सरकार के ऐसे कदम आग तो बुझाते रहे हैं, पर चिनगारी नहीं। विवाद की यही चिनगारी रह-रहकर भड़क उठती है और शिलांग जल उठता है।

यहां का विवाद कोई दलित बनाम गैर-दलित का नहीं है। दलितों से जुड़े मसले उस समाज में होते हैं, जहां जाति की जड़ें काफी गहरे धंसी होती हैं। मेघालय तो एक जनजातीय सूबा है। यहां के पढ़े-लिखे लोग भी आमतौर पर उच्च जाति और दलित सिख में अंतर नहीं कर पाते। इसीलिए ताजा विवाद को दलितों से जोड़ना मसले को सतही तौर पर देखना होगा। इस तनाव के बीज तो यहां के इतिहास में दफन हैं, जिसका एक पक्ष स्थानीय बनाम बाहरी है। 

गुरुवार को जिस पंजाब लेन में कथित छेड़छाड़ और दुव्र्यवहार की घटना घटी, वह शहर के बीचोबीच स्थित है। ठीक वैसे ही, जैसे दिल्ली के मध्य में चांदनी चौक है। यह वह कॉलोनी है, जिसे ब्रिटिश सरकार ने बनाया था। दरअसल, शिलांग को जब अंग्रेज हुकूमत ने शहर का रूप दिया, तो साफ-सफाई के कामों के लिए वे पंजाब से दलित सिख लेकर यहां आए। वे ‘म्यूनिसपैलिटी वर्कर’ बनाए गए। उनके रहने की अलग व्यवस्था की गई। आज का पंजाब लेन उसी व्यवस्था का नतीजा है। दलित सिखों का यह पेशा अब भी बना हुआ है, क्योंकि स्थानीय लोग अब भी इस काम से जुडे़ हुए नहीं हैं। जाहिर है, घर भी उन्हीं के कब्जे में है। मगर बीते कुछ वर्षों में उन्होंने अपने आस-पास कई अनधिकृत निर्माण किए हैं। अतिक्रमण करके अपने मकान का दायरा बड़ा किया है, जबकि मेघालय में बाहरी लोग न तो जमीन खरीद सकते हैं, और न मकान बनवा सकते हैं। मगर ये सिख चूंकि काफी वर्षों से यहां रहते आ रहे हैं, इसलिए उन्होंने कुछ-कुछ ऐसा निर्माण-कार्य शुरू कर दिया है। अतिक्रमण का यह सिलसिला यहीं तक नहीं रुका। दूसरे राज्यों से भी लोग यहां आए और यहां बसना शुरू कर दिया, जबकि वे ‘म्यूनिसपैलिटी वर्कर’ नहीं थे। 

इन सब वजहों से ही करीब 1980 से इस कॉलोनी को हटाने की मांग हो रही है। मगर ये लोग यहां से जाना नहीं चाहते, क्योंकि ऐसा करने से यहां रहने वाले सरकारी कर्मियों को तो अपना मकान मिल जाएगा, लेकिन जो सरकारी नौकरी में नहीं हैं और यूं ही यहां बस गए हैं, उन्हें काफी दिक्कतें हो सकती हैं। इनके अपने कारोबार तो हैं ही। मुकुल संगमा की पिछली कांग्रेस सरकार में शहरी मामलों की मंत्री रहीं अम्परीन लिंग्दोह ने एक अलग व्यवस्था के तहत इन्हें मकान उपलब्ध करवाए थे, मगर तब भी वे तैयार नहीं हुए। कुछ लोग यदि दूसरी जगह पर गए भी, तो उन्होंने यहां अपने मकान किराये पर उठा दिए। 

स्थानीय लोगों का आरोप है कि इस कॉलोनी की बढ़ी आबादी से उन्हें काफी परेशानी हो रही है। अतिक्रमण के कारण जाम और ट्रैफिक की समस्या तो आम है ही, कहा यह भी जाता है कि यहां आपराधिक घटनाएं बढ़ गई हैं। कुछ लोग तो किरायेदार के रूप में बांग्लादेशियों को मकान देने के आरोप भी लगा रहे हैं। इन सबको लेकर पहले भी कई बार विवाद हो चुके हैं, मगर इसके समाधान को लेकर अब तक ठोस प्रयास शायद ही किए गए। फिलहाल चर्चा गरम है कि राज्य सरकार इस कॉलोनी को हटाने को लेकर गंभीर हो गई है। मगर इस सूरतेहाल में भी दूरदर्शी नजरिये की दरकार है। विशेषकर उन लोगों पर ध्यान देना होगा, जिन्हें मकान नहीं मिल पाएगा। फिर इन लोगों का कारोबार भी है, जिसे छोड़ना उनके लिए शायद मुश्किल हो।

ताजा विवाद की एक वजह स्थानीय प्रशासन का ढीला-ढाला रवैया भी है। कहा जाता है कि जब मामूली कहा-सुनी पर दोनों पक्षों में विवाद बढ़ा, तो खासी जनजाति का वह युवक (जो सरकारी बस का ड्राइवर है) पुलिस स्टेशन पहुंचा। मगर पुलिस ने उसकी एक न सुनी। वह युवक वेस्ट खासी हिल्स का रहने वाला है और जनजातियों की एकता किसी से छिपी नहीं है, इसलिए विवाद की खबर मिलते ही वहां के कई लोग पंजाब लेन के आस-पास जमा होने लगे। इसी में जब उनके साथ धक्का-मुक्की शुरू हुई, तो माहौल हिंसक हो उठा। जनजातीय क्षेत्र होने के कारण मेघालय में लोग अपनी पहचान को लेकर खासा संवेदनशील हैं। इसीलिए पुलिस-प्रशासन से तत्परता की अपेक्षा रहती है, लेकिन प्रशासन इस कसौटी पर खरा नहीं उतरा। 

बात अब भी संभाली जा सकती है, बशर्ते थोड़ी संवेदनशीलता का परिचय दिया जाए। इसे थामने में सिविल सोसाइटी कारगर हो सकती है। सभी पक्षों को एक जगह बिठाकर आम राय बनाने की कोशिश की जानी चाहिए। जरूरत इस मसले पर राजनीति करने से बचने की भी है। ऐसे विवादों का राजनीतिकरण आग में घी का काम कर सकता है। सोशल मीडिया पर अफवाह फैलाने वालों से भी सख्ती से निपटने की जरूरत है। बाहरी बनाम स्थानीय का मसला महत्वपूर्ण तो है ही, मगर अभी इस पर चर्चा न करना ही बेहतर होगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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