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विफल राष्ट्र की दहलीज पर पाकिस्तान

अर्थव्यवस्था के लिहाज से क्या पाकिस्तान एक नाकाम मुल्क बनता जा रहा है? यह सवाल इसलिए, क्योंकि उसकी आर्थिक सेहत दिनोंदिन बिगड़ती जा रही है। उसकी परेशानी सिर्फ बढ़ता चालू और बजटीय घाटा नहीं है, बल्कि...

विफल राष्ट्र की दहलीज पर पाकिस्तान
सुशांत सरीन, सीनियर फेलो, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशनSun, 21 Oct 2018 11:38 PM
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अर्थव्यवस्था के लिहाज से क्या पाकिस्तान एक नाकाम मुल्क बनता जा रहा है? यह सवाल इसलिए, क्योंकि उसकी आर्थिक सेहत दिनोंदिन बिगड़ती जा रही है। उसकी परेशानी सिर्फ बढ़ता चालू और बजटीय घाटा नहीं है, बल्कि विदेशी कर्ज और रुपये की गिरती कीमतों से भी उस पर दबाव बढ़ने लगा है। रही-सही कसर निवेशकों के आंख फेर लेने ने पूरी कर दी है। नतीजतन, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की चौखट पर जाना अब उसकी मजबूरी है।

पिछले कुछ दशकों में अक्सर हर कुछ साल के बाद पाकिस्तान इस स्थिति से गुजरता रहा है। साल 1999 में जब परवेज मुशर्रफ ने नवाज शरीफ का तख्ता पलट किया था, तब यह देश करीब-करीब दिवालिया हो चुका था। अमेरिका के वल्र्ड ट्रेड सेंटर पर हुए 9/11 हमले के बाद अर्थव्यवस्था थोड़ी संभली जरूर, पर जम्हूरी सरकार के आते-आते यह फिर से पुरानी गति को प्राप्त हो गई। ठीक यही कहानी तब भी दिखी, जब पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सरकार सत्ता में आई। साल 2013 में नवाज शरीफ के कुरसी संभालने के बाद भी यह ‘परंपरा’ कायम रही। शरीफ सरकार ने आईएमएफ, चीन और सऊदी अरब की मदद से अर्थव्यवस्था में जान फूंकने की कोशिश की थी, लेकिन ये उपाय कितने कारगर साबित हुए, इसकी तस्दीक नई मुश्किलें कर रही हैं! 

पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में कुछ बुनियादी समस्याएं हैं, तो कुछ नीतिगत। बुनियादी समस्या को मैं ढांचागत कमी कहना ज्यादा पसंद करूंगा। दिक्कत यह है कि इसे कभी संजीदगी से दुरुस्त करने की कोशिश ही नहीं की गई। इसमें पहली समस्या है, चालू खाते का घाटा। यह घाटा आयात और निर्यात का अंतर होता है, जो पाकिस्तान में लगातार बढ़ रहा है। दूसरी समस्या राजकोषीय यानी बजटीय घाटा है, जो इसलिए बढ़ रहा है, क्योंकि मांग के अनुसार पाकिस्तान में उत्पादन नहीं हो रहा। इसी कारण उसका आयात बढ़ रहा है। तीसरी समस्या, बचत-निवेश का बढ़ता अंतर है। यह अंतर इस बात पर निर्भर करता है कि लोग कितनी बचत करते हैं और कितना निवेश? आमतौर पर बचत से ज्यादा निवेश होता है। भारत में बचत सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की 30-31 फीसदी होती है, जबकि पाकिस्तान में यह महज 12-13 फीसदी। जाहिर है, लोग निवेश से कतरा रहे हैं, जिसके कारण पाकिस्तान को पैसा बाहर से लाना पड़ रहा है। वहां इन तीनों बुनियादी समस्याओं को दूर करने को लेकर कोई हुक्मरान कभी गंभीर नहीं हुआ।

मौजूदा सरकार के साथ एक दिक्कत अर्थव्यवस्था का खराब प्रबंधन भी है। जिस देश में चार्टर्ड अकाउंटेंट या एमबीए योग्यताधारी को अर्थशास्त्री का रुतबा हासिल हो, तो वहां बैलेंस शीट ही ठीक की जाएगी, अर्थव्यवस्था की असली मुश्किलों पर शायद ही बात होगी। इमरान खान ‘जादू-टोने’ के भरोसे अर्थव्यवस्था को ठीक करना चाहते हैं। फिर, ख्याली पुलाव बनाना भी वजीर-ए-आजम को खूब आता है। वहां अनुमानों पर ही अर्थव्यवस्था टिकी है कि गर ऐसा हो, तो ऐसा हो जाए! प्रधानमंत्री की एक मुश्किल चुनावों के दौरान का उनका बड़बोलापन भी है। चुनावों के समय शेखी बघारते हुए इमरान खान ने कहा था कि कहीं से कोई कर्ज नहीं लेंगे। मगर सत्ता में आने के बाद ही उन्हें समझ में आ गया होगा कि यदि बाहर से पैसा नहीं लेंगे, तो अर्थव्यवस्था चलेगी कैसे? इसके साथ-साथ फैसले लेने की दुविधा भी उनमें दिखती है। वह किसी एक फैसले पर टिकते नहीं। नतीजतन, उनके लिए सौ जूते और सौ प्याज, दोनों खाने की नौबत है।

वहां एक सोच यह भी बनी रही है कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को सुधारना बाकी मुल्कों का काम है। कुछ नहीं, तो सऊदी अरब और चीन, जैसे दोस्त उसे संभाल ही लेंगे। मगर सऊदी अरब जहां अपनी संभावित परियोजनाओं से रिटर्न मिलने और गारंटी को लेकर ऊहापोह की स्थिति में है, वहीं चीन की नाराजगी पाकिस्तान की नई सरकार से है। जब से इमरान खान सत्ता में आए हैं, उन्होंने यही कहा है कि वह मुल्क में चीन द्वारा किए गए निवेश की जांच करेंगे और समीक्षा करने के बाद ही तमाम परियोजनाओं का भविष्य तय करेंगे। वहां एक सोच यह भी है कि यदि चीन को अपनी पूंजी बचानी है, तो उसे पाकिस्तान में और निवेश करना ही होगा। इन सब बातों से चीन की त्योरियां चढ़ गई हैं।

इस सूरते-हाल में पाकिस्तान को अगले चंद महीनों में कम से कम आठ अरब डॉलर की रकम बतौर कर्ज चुकाने हैं। अगर वह ऐसा करने में विफल रहता है, तो उसे ‘डिफॉल्टर’ घोषित कर दिया जाएगा। इससे उसकी रही-बची उम्मीदें भी ध्वस्त हो जाएंगी। तब न तो अंतरराष्ट्रीय बाजार या संस्थानों से उसे पैसा मिलेगा और न आयात-निर्यात हो सकेगा। लिहाजा उसे आईएमएफ के पास जाना ही होगा। एक उपाय किसी मित्र देश से आर्थिक मदद लेने का भी है, लेकिन इससे पाकिस्तान सिर्फ इस साल के लिए संकट टाल सकता है। वहां अगले एकाध साल में कोई बड़ा बदलाव इसलिए भी संभव होता नहीं दिखता कि रुपये की कीमत लगातार गिर रही है। पिछले चंद महीनों में ही इसमें 30 फीसदी की गिरावट आई है। इससे कर्ज की किस्त की उसकी राशि बढ़ रही है। फिर, आयातित तेल और गैस की कीमतें भी बढ़ रही हैं, जिनका आयात मुल्क में 60-70 फीसदी बिजली उत्पादन के लिए जरूरी है। चूंकि बजट में टैक्स के रूप में होने वाली उसकी पूरी कमाई रक्षा और कर्ज चुकाने में ही खर्च हो रही है, लिहाजा विकास के काम या सरकार चलाने के लिए जरूरी रकम उसे बतौर कर्ज दूसरे देशों से लेनी पड़ रही है। कुल मिलाकर, उस पर कर्ज का शिकंजा इस कदर जकड़ चुका है कि कर्ज लेकर वह कर्ज चुका रहा है।

अर्थव्यवस्था में पारदर्शिता का अभाव, बेहतर आर्थिक नीतियों के प्रति अगंभीर रवैया, कठोर फैसले लेने में दुविधा जैसी तमाम दूसरी बातें भी हैं, जिस कारण पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था लगातार लुढ़कती जा रही है। इस स्थिति में उसके लिए बेहतर यही है कि चादर भर ही अपने पैर फैलाए। मगर इसकी तरफ हुकूमत का ध्यान ही नहीं है। साफ है, यह लुटिया डुबोने वाली स्थिति है। इसीलिए यह वक्त वजीर-ए-आजम इमरान खान की दूरदर्शिता को परखने का भी है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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