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जलालाबाद हमले के असली दोषी

अफगानिस्तान में बीते रविवार को हिंदुओं व सिखों को निशाना बनाकर किया गया आत्मघाती हमला कई सवाल खड़े कर रहा है। जलालाबाद की यह घटना सिर्फ इसलिए चिंतनीय नहीं है कि हमले में करीब डेढ़ दर्जन निर्दोष लोगों...

जलालाबाद हमले के असली दोषी
सुशांत सरीन, सीनियर फेलो, ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशनTue, 03 Jul 2018 10:38 PM
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अफगानिस्तान में बीते रविवार को हिंदुओं व सिखों को निशाना बनाकर किया गया आत्मघाती हमला कई सवाल खड़े कर रहा है। जलालाबाद की यह घटना सिर्फ इसलिए चिंतनीय नहीं है कि हमले में करीब डेढ़ दर्जन निर्दोष लोगों की जान गई, बल्कि यह दहशतगर्दी के एक नए ट्रेंड की ओर इशारा कर रही है। दरअसल, अफगानिस्तान में बम बिस्फोटों का एक अंतहीन सिलसिला जारी है, लेकिन ऐसे हमले अमूमन राजनीतिक मकसद के तहत अंजाम दिए जाते हैं। लोगों में दहशत फैलाकर अपनी उपस्थिति और ताकत दिखाना ही दहशतगर्दों का उद्देश्य रहा है। धर्म के आधार पर किसी गैर-मुस्लिम गुट को शायद ही कभी निशाने पर लिया गया। हां, तालिबानी शासन में ऐसा जरूर हुआ था, मगर अब वह बीते दिनों की बात है। 

जाहिर है, अफगानिस्तान में हालात बेहतरी की ओर नहीं बढ़ रहे, बल्कि बदतर ही हो रहे हैं। अफगान सरकार भी खासे दबाव में है, क्योंकि इस तरह न सिर्फ तालिबान की ताकत बढ़ती जा रही है, बल्कि आईएस से संबंधित अफगानी संगठन इस्लामिक स्टेट-खोरासान प्रांत (आईएस-केपी) भी अपनी उपस्थिति लगातार मजबूत बना रहा है। आम लोगों, खासतौर से अल्पसंख्यकों को लगातार निशाना बनाया जा रहा है। कई अफगानी अल्पसंख्यक अब तक आतंकी वारदातों में अपनी जान गंवा चुके हैं। यहां तक कि शिया जैसे अल्पसंख्यक समुदाय भी दहशतगर्दों के निशाने पर हैं। रविवार के आत्मघाती हमले को कोई इस नजरिये से देखे, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा। 

हालांकि, वहां एक कोशिश आतंकवाद रोकने के लिए बातचीत का सिलसिला शुरू करने की भी हो रही है, मगर इसमें भी कई पेच हैं। सवाल यह है कि जब दहशतगर्दों की ताकत बढ़ रही हो, तो भला वे बातचीत की मेज पर क्यों बैठेंगे? और यदि वे बैठ भी गए, तो मुद्दा क्या रहेगा? बातचीत सत्ता साझा करने पर होगी या युद्ध विराम पर? चूंकि उनकी मौजूदगी अब बढ़ने लगी है, तो ऐसी बातचीत निश्चित तौर पर सत्ता साझा करने को लेकर ही होगी। और अगर सत्ता साझा होती है, तो मौजूदा अफगान रियासत की उदार नीतियों का क्या होगा? क्या ये बरकरार रह पाएंगी? फिर सवाल यह भी उठेगा कि आखिर अफगानिस्तान में पिछले डेढ़ दशक की जंग से क्या हासिल हुआ?

अब तक की खबरों के मुताबिक, रविवार के आत्मघाती हमले की जिम्मेदारी आईएस-केपी ने ली है। आईएस का अल्पसंख्यकों के प्रति जो रवैया रहा है, वह किसी से छिपा नहीं है। मगर इन सबकी जडें़ कहीं न कहीं तालिबान से जुड़ी हैं। एक तथ्य यह भी है कि आईएस-खोरासान के 70 फीसदी लड़ाके पाकिस्तानी मूल के हैं। ये सभी अफगानिस्तान में सक्रिय हैं। जाहिर है, परोक्ष रूप से पाकिस्तान भी इन घटनाओं में शामिल है। पाकिस्तान की इसमें संलिप्तता के कुछ अन्य सुबूत भी हैं। दरअसल, पाकिस्तान दक्षिण एशिया का एकमात्र ऐसा मुल्क है, जहां अल्पसंख्यक हर वक्त निशाने पर लिए जाते हैं। वहां खासतौर से हिंदुओं को मारा-पीटा जाता है और खुलेआम उनके साथ दुव्र्यवहार किया जाता है। उनकी लड़कियों को अगवा करके जबरन धर्म-परिवर्तन कराया जाता है। सिखों को लेकर उसका रवैया जरूर थोड़ा नरम जरूर रहा है, क्योंकि यह देश मानता है कि भारत में खालिस्तान आंदोलन को पुनर्जीवित करने में सिख उसके काम आ सकते हैं। यहां की अफगान सीमा अल्पसंख्यकों के लिए काफी संवेदनशील है। जब से यहां पाकिस्तान तालिबान का वर्चस्व बढ़ा है, अल्पसंख्यकों पर हमले बढ़ गए हैं। नतीजतन, उन्हें पलायन करना पड़ा है। कई विश्लेषकों का मानना है कि यह पाकिस्तान की ‘ब्लाइंड आई पॉलिसी’ यानी आंखें मूंद लेने वाली नीति की देन है। 

इसके अलावा, एक स्थिति यह भी है कि पाकिस्तान से अपनी गतिविधियां चलाने वाले कई तालिबानी गुट इस्लामिक स्टेट में शामिल हो गए हैं। इन तालिबानी गुटों के बहाने पाकिस्तान अपने दोहरे हित साधने की कोशिश में है। पहला, अगर उसे तालिबान के लिए अंतरराष्ट्रीय समुदाय की मदद लेनी है, तो उसे अफगानिस्तान में आईएस का खतरा दिखाना होगा। और दूसरा, यदि आने वाले वर्षों में अफगानिस्तान पर तालिबान का कब्जा होता है और वे उसके नियंत्रण से बाहर जाने का प्रयास करते हैं, तो इन गुटों के बहाने वह तालिबानी शासन पर नियंत्रण रख सकेगा। हालांकि इन सबको लेकर पक्के सुबूत नहीं हैं, लेकिन इसके अंदेशे से इनकार भी नहीं किया जा सकता।

ऐसे में, भारत सरकार क्या कर सकती है? मेरा मानना है कि इस मामले में नई दिल्ली के पास करने के लिए कुछ खास नहीं है। अगर ऐसे हमले अफगान सरकार की शह पर होते या उसकी किन्हीं नीतियों का नतीजा होते, तब तो भारत सरकार उस पर दबाव बना सकती थी। मगर ऐसा है नहीं। उल्टे वहां की हुकूमत इसकी निंदा कर रही है। वैसे भी, जब वह अपने लोगों को ही दहशतगर्दों से नहीं बचा पा रही, तो उससे अपेक्षा ही क्यों की जाए? उस पर किसी तरह का दबाव बनाना बेमानी ही है। हमें इस सच को भी ध्यान में रखना होगा कि ये भारत के नागरिक नहीं हैं। उनके पास वहां की नागरिकता है। हां, धर्म के लिहाज से इनका भारत के साथ जुड़ाव जरूर बना हुआ है। यह भी सच है कि वहां अल्पसंख्यकों की स्थिति लगातार बिगड़ रही है। एक जमाना था, जब अफगानिस्तान में बड़ी संख्या में हिंदू और सिख वगैरह रहते थे। वहां के समाज में उनकी प्रतिष्ठा थी। कारोबार उनके हाथों में था। मगर गृह युद्ध शुरू होने के बाद वहां से उनका पलायन शुरू हुआ है। इस लिहाज से वे इसलिए शरणार्थी बन रहे हैं, क्योंकि मजहब के नाम पर अब इन्हें निशाना बनाया जा रहा है। लिहाजा, इस मसले पर हमें सोच-समझकर हस्तक्षेप करना होगा। 

भारत सरकार बेशक इनकी मदद करे, क्योंकि भारतीय मूल के धर्मावलंबियों को किसी दूसरे मुल्क में शायद ही पनाह मिले। मगर इनके लिए उसे एक समान नीति बनानी होगी। हालांकि ऐसी रिपोर्टें भी हैं, जो बताती हैं कि अफगानिस्तान के सभी हिंदू व सिख अल्पसंख्यक भारत आने को तैयार नहीं। इसके कारण साफ हैं। दरअसल, भारत अब उनके लिए उतना ही अनजाना है, जितना कि कोई दूसरा देश। हमारी सरकार को इस चश्मे से भी तस्वीर देखनी होगी। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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