टेलीविजन का छोटा परदा आज जिंदगी भर का दुख दे गया। सुबह से खबरिया चैनल दिल्ली की सड़कों पर उपद्रव की जो तस्वीरें पेश कर रहे थे, वे दिल हिला देने वाली थीं पर लालकिले में जो हुआ उसने इस दुख को कभी न खत्म होने वाली त्रासदी बना दिया। देखते-देखते लोगों ने भारतीय आन-बान-शान के प्रतीक इस दुर्ग की प्राचीरों पर कब्जा कर नारेबाजी शुरू कर दी। इसी बीच भीड़ के बीच से एक नौजवान ध्वज स्तंभ पर चढ़ता हुआ दिखाई दिया और जब तक हम मन में उभर रहे सवालों का जवाब ढूंढ पाते, उसने दो झंडे वहां लगा दिए। एक धार्मिक, दूसरा अपनी किसान यूनियन का। जिस स्तंभ पर वह चढ़ा हुआ था, उस पर देश के प्रधानमंत्री 15 अगस्त 1947 से झंडा फहराते आए हैं।
बताने की जरूरत नहीं कि एक सेक्युलर देश में तिरंगे की जगह कोई और झंडा नहीं ले सकता। वह उदण्ड नौजवान कौन था, किसान? उस वक्त वे किसान नेता कहां मुंह छिपाए बैठे थे, जो कल तक पत्रकारों के सामने शेखी बघार रहे थे कि 26 जनवरी गणतंत्र का पर्व है और हम इसे शांति से मनाएंगे? उत्साह से मदमाते हुए उन्होंने यहां तक घोषणा कर दी थी कि हम पहली फरवरी यानि बजट दिवस के दिन संसद कूच करेंगे। क्या अब उनमें वह आब रह बची है?
गणतंत्र दिवस की घटनाओं ने उनके दो माह पुराने आंदोलन को भी कलंकित कर दिया है। किसने सोचा था कि आजाद भारत का यह अनूठा आंदोलन इस दुर्गति को प्राप्त होगा? यहां पुलिस के उन मुट्ठी भर जवानों को सलाम, जिन्होंने हजारों की इस भीड़ में इन झंडों को उतारने की जांबाजी दिखाई। वे जब इस पुनीत कार्य को कर रहे थे, तब वहां मौजूद भीड़ इसका निषेध कर रही थी।
यह जानना जांच एजेंसियों का काम है कि यह कुछ सिरफिरे लोगों की क्षणिक उत्तेजना से उपजी हरकत थी या कोई सुनियोजित साजिश? इन जांच एजेंसियों का भी क्या भरोसा कीजिए! दिल्ली पुलिस और खुफिया एजेंसियों में इन्हींके भाई-बंधु विराजते हैं। क्या किसानों को दिल्ली प्रवेश की इजाजत देते वक्त इन्होंने इस संभावना पर विचार नहीं किया था? उनकी इस लापरवाही ने देश को दुनिया के सामने न केवल शर्मसार किया बल्कि तमाम जहरीली आशंकाओं के बीज भी बो दिए हैं।
ऐसा नहीं है कि सबक लेने के लिए उनके पास दृष्टांत नहीं थे। छ: दिसंबर 1992 में अयोध्या में भी तो ऐसा ही हुआ था। नेता आश्वस्त कर रहे थे कि कुछ नहीं होगा। राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा भी दाखिल कर दिया था पर जो हुआ वह बताने की जरूरत नहीं है। हमारे तंत्र को अपनी भूलों से सबक लेने की आदत कब पड़ेगी?
चार दशक पहले पत्रकारिता का जो प्रशिक्षण मिला था, उसका निर्वहन करते हुए मैंने यहां धार्मिक प्रतीकों, नारों, आदि का खुलासा करने से परहेज किया है। हालांकि, यह कोशिश कितनी रंग लाएगी, मुझे इसमें संदेह है। टेलीविजन के जरिए अब ये सारे दृश्य आम हो गए हैं। सीमा पार बैठे हमारे शत्रु इनका दुरुपयोग कुछ लोगों की भावनाएं भड़काने के लिए कर सकते हैं। इन आंदोलनकरियों को पहले भी कुछ लोगों ने खालिस्तानी और देशद्रोही साबित करने की कोशिश की थी। आने वाले दिनों में राजनीति, कूटनीति और विद्वेष नीति के सौदागर क्या करेंगे, मैं इस वक्त उनकी चर्चा नहीं करना चाहता लेकिन सोशल मीडिया के अदृश्य विचारक तो अभी से ही शुरू हो गए हैं। जाहिर है, देश और कम से कम दो प्रदेशों की सरकारों को अभी कुछ महीने काफी जिम्मेदारी का परिचय देना होगा।
उम्मीद है, वे भूलें दोहरायी नहीं जाएंगी, जिनका दोष इंदिरा गांधी पर मढ़ा जाता है।
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