चौरासी के बदलते चेहरे और हम
एक शराबी ने मेरे पिता के शरीर पर मिट्टी का तेल डाला और आग लगाने के लिए माचिस की डिब्बी दिल्ली पुलिस के एसआई एन के कौशिक ने दी। उन्हें आग के हवाले कर दिया गया। उनका पूरा शरीर जल रहा था। मैं दूर खड़ी...
एक शराबी ने मेरे पिता के शरीर पर मिट्टी का तेल डाला और आग लगाने के लिए माचिस की डिब्बी दिल्ली पुलिस के एसआई एन के कौशिक ने दी। उन्हें आग के हवाले कर दिया गया। उनका पूरा शरीर जल रहा था। मैं दूर खड़ी देख रही थी। पिता आग से बचने के लिए पास के नाले में कूद गए। दंगाइयों ने उन्हें बाहर निकाला और दोबारा उनकी देह में आग लगा दी।
एक नवंबर, 1984 की यह लोमहर्षक दास्तां दिल्ली कैंट में मारे गए नरेंद्र पाल सिंह की पुत्री निरप्रीत कौर ने अदालत को सुनाई थी। उनके साथ दो और बेखौफ गवाहों ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राष्ट्रीय राजधानी में भड़के दंगों के बारे में ऐसा ही बयान कोर्ट के समक्ष दिया। नतीजतन, कांग्रेस के पूर्व सांसद सज्जन कुमार को दिल्ली उच्च न्यायालय ने उम्रकैद की सजा सुना दी। मतलब साफ है, अगर सुप्रीम कोर्ट से सज्जन कुमार को राहत नहीं मिली, तो उनकी बची-खुची जिंदगी सलाखों के पीछे कटेगी।
मैं उन सिख और सिखनियों के जज्बे को सलाम करना चाहता हूं, जो पिछले 34 साल से भय और प्रलोभन से जूझते हुए इंसाफ की लड़ाई को इस मुकाम तक लाए हैं। यह उनका ही हौसला था कि ‘माननीय’ सज्जन कुमार अब ‘सजायाफ्ता मुजरिम’ हैं। अदालतें अब तक इन दंगों के सिलसिले में करीब 450 लोगों को सजा सुना चुकी हैं। न्याय-युद्ध अभी जारी है, क्योंकि कई मुकदमों में अभी फैसला आना बाकी है। पुरानी कहावत है, देर से मिला इंसाफ भला किस काम का, पर मैं आदतन इस जद्दोजहद का सकारात्मक पहलू आपको दिखाना चाहूंगा। कहते हैं न, कानून के हाथ लंबे होते हैं। एक न एक दिन वे मुजरिम की गरदन तक जरूर पहुंचते हैं।
देश के तमाम हिस्सों में उन दिनों हुई हिंसा कई मायनों में अलग थी। इन दंगों में सिख ही नहीं मारे गए, बल्कि उस दिन भारतीय सभ्यता और संस्कृति भी कलंकित हुई। आपको आंखों-देखी एक घटना बताता हूं-
31 अक्तूबर, 1984 की उस मनहूस दोपहर मैं इलाहाबाद में लीडर रोड स्थित अपने कार्यालय की बालकनी में खड़ा था। हमारे दफ्तर से कुछ आगे सिखों की दुकानें थीं। साइकिल और इलेक्ट्रॉनिक सामानों के सबसे भरोसेमंद और बडे़ प्रतिष्ठान इसी समुदाय के लोग चलाते थे। प्रधानमंत्री को उन्हीं के आवास में गोली मारे जाने की खबर दोपहर से पहले ही फिजां में मनहूसियत बिखेर चुकी थी। यह इंदिरा गांधी का अपना शहर था, इसीलिए माहौल में अदृश्य और अस्पष्ट तनाव की गंध घुली-मिली नजर आ रही थी। अचानक जानसेगंज के आसपास की गलियों से निकले दर्जनों लोगों ने सिखों की दुकानों को लूटना शुरू कर दिया। क्या उन्माद था! चीखते-चिल्लाते और खुद के वहशीपन से फटे जाते लोग, अपने सिर पर टेलीविजन, रेडियो, कैसेट प्लेयर और न जाने क्या-क्या लादकर भागते चले जा रहे थे। एक व्यक्ति तो अपने दोनों कंधों पर साइकिलें उठाए लड़खड़ाता हुआ चल रहा था। नई साइकिलों की ट्यूब में हवा और गद्दियां नहीं होतीं। वह उन पर सवार नहीं हो सकता था, इसलिए खुद उनकी सवारी बन गया था। मेरे दिमाग में उसी समय कौंधा था कि हम भारतीयों की नियति में विभाजन का स्थाई डेरा है। 1947 की घटनाओं को दोष देकर हम कब तक अपनी इस ‘बला’ से बचते रहेंगे?
बताने की जरूरत नहीं। लूट-खसोट के उस निर्दयी लमहे में पुलिस गायब थी। मैं खुद अपने अपराध संवाददाता से कई बार फोन करवा चुका था और यह हाल तब था, जब कोतवाली दूर न थी। समीप में रेलवे पुलिस का थाना था और रेलवे सुरक्षा बल की बटालियन भी कुछ ही सौ मीटर दूर थी, पर अराजकता सड़कों पर नंगा नाच रही थी। हमारी हुकूमतें अमन कायम करने के नाम पर बस अमानत में खयानत करना जानती हैं। ऐसे लमहों पर पता नहीं उसके वजूद को आसमान खा जाता है, या जमीन निगल जाती है। इन्हीं आततायी लमहों में एक और दिल दहलाने वाला दृश्य सामने आ खड़ा हुआ।
देखा, पांच-सात साल की छोटी बच्ची अपनी फ्रॉक में कॉपी और किताबें समेटे हुए एक तरफ दौड़ी चली जा रही है। जाहिर है, इस तरह फ्रॉक में कॉपी-किताब रखने में किसी ने उसकी मदद की थी। कौन था, जो उस मासूम को लुटेरा बना रहा था? नंगे पैर, यथासंभव तेजी से भागती हुई उस लड़की के चेहरे पर वैसे ही भाव पसरे थे, जैसे वयस्कों के थोबड़ों पर नजर आ रहे थे। आज 34 बरस बाद उस लमहे को जीते हुए सोच रहा हूं कि वह बच्ची अब 40 साल के आसपास की वयस्क महिला बन चुकी होगी। क्या उसके जेहन में वह दृश्य आज भी कौंधता होगा? क्या इससे उसके बचपन का कोई नाजुक हिस्सा प्रभावित हुआ होगा? शायद उसे मां बनने का सौभाग्य नसीब हुआ हो। अपने बच्चों को कभी उसने इस बारे में बताया होगा क्या?
याद रखिए, दंगे और हिंसा जोड़ते नहीं, सिर्फ तोड़ते हैं। आपकी इस टूटन का लाभ सियासी लोग उठाते हैं। सभी दलों के लोग इस दलदल को बनाने और बढ़ाने के जिम्मेदार हैं। 1984 को तो 34 साल बीत गए। पिछले दिनों अलवर, नोएडा अथवा बुलंदशहर की भीड़-जनित हिंसा क्या साबित करती हैं? सियासी नफरतें सिर्फ सांप्रदायिक, जातिवादी या क्षेत्रीय नहीं होतीं, वे अनायास ही हमें और आपको लीलने लग जाती हैं।
भरोसा न हो, तो गुजरे दिनों दिल्ली में एक सप्ताह के भीतर जने गए इन हादसों पर गौर फरमा देखिए। उत्तम नगर में बैटरी चोरी के आरोप में भीड़ ने एक किशोर को सरेआम इतना पीटा कि उसने दम तोड़ दिया। दूसरी घटना अमन विहार की है, जहां घर में घुसकर चोरी करने के आरोप में लोगों ने एक नाबालिग को पीट-पीटकर मार डाला। हम अगर भीड़ को इंसाफ की ताकत से नवाजेंगे, तो ऐसा ही होगा। बड़बोले राजनेताओं और सभी धर्मों में पसरे कट्टरपंथियों से मेरा अनुरोध है कि कृपया अब इससे बाज आएं। वे हमें खुशहाली नहीं दे सकते, तो कम से कम और बदहाल न बनाएं।
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