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कड़वे रिश्तों में कूटनीति

किसी भी देश द्वारा अपने उच्चायुक्त को सलाह-मशविरे के लिए वापस बुलाना कोई नई बात नहीं है। यह एक सामान्य प्रक्रिया मानी जाती है। द्विपक्षीय रिश्तों की समीक्षा करने या उसे धार देने के लिए ऐसा अमूमन किया...

कड़वे रिश्तों में कूटनीति
शशांक, पूर्व विदेश सचिवSun, 18 Mar 2018 11:00 PM
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किसी भी देश द्वारा अपने उच्चायुक्त को सलाह-मशविरे के लिए वापस बुलाना कोई नई बात नहीं है। यह एक सामान्य प्रक्रिया मानी जाती है। द्विपक्षीय रिश्तों की समीक्षा करने या उसे धार देने के लिए ऐसा अमूमन किया जाता है। मगर जब यह कवायद मीडिया में प्रचारित करके की जाती है, तो उसका एक संकेत अवश्य होता है। इसीलिए पाकिस्तानी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता का खबरनवीसों को यह बताना कि नई दिल्ली में अपने उच्चायुक्त को इस्लामाबाद आने को कहा गया है, उसका एक खास अर्थ है। संभवत: पाकिस्तान भारत के खिलाफ एक ‘माहौल’ बनाना चाहता है।

ऐसा करने के लिए उसके पास कई वजहें हैं। असल में, अमेरिका के नए विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने पाकिस्तान को फटकार लगाते हुए कहा है कि अगर उसने अब भी आतंकवाद को खत्म नहीं किया, तो अमेरिका उसके खिलाफ सख्त कदम उठाने के लिए बाध्य होगा। चीन ने भी फरवरी में संयुक्त राष्ट्र की संस्था ‘फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स’ यानी एफएटीएफ के उस फैसले का विरोध नहीं किया था, जिसने आतंकी फंडिंग करने के कारण पाकिस्तान को अपनी प्रतिबंधित सूची यानी ग्रे लिस्ट में शामिल किया था, जबकि चीन हमेशा से पाकिस्तान का साथ देता रहा है। इन सबसे स्वाभाविक तौर पर पाकिस्तान दबाव में है। उसे कहीं न कहीं बचाव का रास्ता ढूंढ़ना था, लिहाजा उसने भारत पर निशाना साधा है। हालांकि संभव यह भी है कि भारत के साथ अपने द्विपक्षीय रिश्ते में किसी तीसरे देश को बतौर मध्यस्थ लाने की कोशिश वह कर रहा हो। 

इस सूरत में हमारी नीति क्या होनी चाहिए? कुछ लोग तर्क देंगे कि हमें भी अपने उच्चायुक्त को वापस बुला लेना चाहिए। राजनयिकों को भी तय समय तक वतन लौटने को कहा जाना चाहिए। मगर द्विपक्षीय रिश्ते की गंभीरता को देखें, तो यह वक्त संयम बरतने का है। भारत की सरकार ने भी पाकिस्तान के रवैये पर हैरानी जताई है, पर कोई जवाबी कार्रवाई नहीं की है। हम हमेशा से आम जनता के लिए काम करते रहे हैं। आतंकवाद को खत्म करना हमारी प्रतिबद्धता रही है। इसलिए जरूरी है कि पाकिस्तान के अंदर से इस काम के लिए हमें जो भी मदद मिल सकती है, वह मिलती रहे। वैसे भी, इस मसले पर पाकिस्तान खुद बेपरदा हो चुका है। उत्पीड़न का जो आरोप वह हम पर थोप रहा है, हमारे राजनयिकों ने पहले ही उसकी शिकायत कर रखी है। भारतीय राजनयिकों ने साफ शब्दों में बताया है कि किस तरह उन्हें वहां प्रताड़ित किया जा रहा है। सख्त निगरानी किए जाने और घरों के बिजली-पानी तक रोक दिए जाने के आरोप भी हमारे राजनयिक लगा रहे हैं। बुनियादी राजनयिक विशेषाधिकारों को भी उनसे छीना जा रहा है।

भारत के किसी भी राजनयिक के लिए पाकिस्तान में काम करना आसान नहीं होता। उन पर तमाम तरह की बंदिशें आयद होती हैं। अगर हमारे राजनयिकों को कहीं जाना होता है, तो यात्रा की पूर्व अनुमति उन्हें पाकिस्तान के संबंधित अधिकारियों से लेनी पड़ती है। जबकि दूसरे देशों के राजनयिकों के लिए ऐसी कोई बाध्यता नहीं है। वे पाकिस्तानी अधिकारियों को सूचना भर दे देते हैं; कुछ देशों के राजनयिक तो ऐसा भी नहीं करते। फिर भी हमारे राजनयिक ऐतराज नहीं जताते, क्योंकि उन्हें पता है कि भारत और पाकिस्तान के रिश्ते कितने संवेदनशील हैं।

वहां आलम यह है कि देर रात भी हमारे अधिकारियों को बुला लिया जाता है। अगर वे किसी पार्टी में जाते हैं, तो उन पर कड़ी निगरानी रखी जाती है। वरिष्ठ अधिकारियों के साथ तो नहीं, पर जूनियर अधिकारियों के साथ मारपीट तक की जाती है। यानी हमारे राजनयिकों को दबाव में रखने की हरसंभव कोशिश की जाती है। दिक्कत यह भी है कि जब इसकी शिकायत की जाती है, तो पाकिस्तान अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लेता है। अमूमन उसका जवाब यही होता है कि वह खुद इन सबसे पीड़ित है। मुझे याद है कि पहले कराची में अपना एक वाणिज्य दूतावास हुआ करता था। अब वह बंद हो चुका है। इसके बंद होने की एक बड़ी वजह यही थी कि कांसुलेट जनरल व कर्मचारियों के साथ वहां मारपीट हुई थी। साफ है, भारत और पाकिस्तान, दोनों की नीतियों में जमीन-आसमान का फर्क है। हम ‘पीपुल-टु-पीपुल कॉन्टेक्ट’ यानी आम जनता के बीच आपसी जुड़ाव की वकालत करते हैं, तो वह आतंकवाद की। 

मैं चार साल तक इस्लामाबाद में तैनात रहा। 1982 से लेकर 1986 तक। उस दौरान भी हालात अच्छे नहीं थे, पर इतने बुरे नहीं थे, जितने आज हैं। उन दिनों ऐसे लोगों की संख्या अच्छी-खासी थी, जिन्होंने बंटवारे का दंश सहा था। वे मानते थे कि विभाजन होने से उनका एक हाथ कट गया है। निगरानी उन दिनों भी होती थी, मगर आज की तरह तंग नहीं किया जाता था। भारतीय महिलाओं के समूहों से जुड़ी होने के बाद भी कभी मेरी पत्नी के साथ किसी तरह का कोई दुव्र्यवहार नहीं किया गया। हां, मुझ पर उनकी पूरी निगाह रहती थी। अगर कभी मेरे घर पर कोई जलसा होता, तो आखिरी मेहमान की जब तक विदाई नहीं हो जाती, कोई पाकिस्तानी अधिकारी पार्टी पर नजरें जमाए रहता। दबाव बनाने के लिए मेहमानों के बच्चों को स्कूल से निकलवा दिया जाता या नौकरी से हटा दिया जाता। 

उन दिनों पाकिस्तान की कमान जिया उल हक के हाथों में थी। वह भारत के साथ दोस्ताना संबंध की हिमायत किया करते थे। वह तो अजमेर शरीफ जाने या भारत-पाकिस्तान के बीच मैच देखने के लिए बिना बताए भी आ जाते थे। भारतीय अधिकारियों को उनके आने का पता तब चलता, जब उनका विमान भारत की सीमा में दाखिल होता। इतना ही नहीं, उन दिनों हमारे खाने-पीने को लेकर भी कभी कोई बंदिश नहीं रखी गई।

मगर आज रिश्ते बहुत कड़वे हो चुके हैं। सब कुछ बदल गया है। हम पर दबाव बनाने के लिए पाकिस्तान वह सब कर रहा है, जिसकी इजाजत अंतरराष्ट्रीय नियम नहीं देते। ऐसे में, पाकिस्तान के लिए खास रणनीति बनाने की जरूरत है। हमारी सरकार इसी दिशा में काम करती दिख रही है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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