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और उलझ गई कश्मीर की राजनीति

जम्मू-कश्मीर में पीडीपी-भाजपा सरकार का गिरना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए निजी नुकसान की तरह है। उन्होंने अपनी पार्टी और संघ परिवार के आक्रामक हिंदुत्ववादियों के खिलाफ जाकर पीडीपी के साथ गठबंधन...

और उलझ गई कश्मीर की राजनीति
आरती आर जेरथ, वरिष्ठ पत्रकारTue, 19 Jun 2018 09:27 PM
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जम्मू-कश्मीर में पीडीपी-भाजपा सरकार का गिरना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए निजी नुकसान की तरह है। उन्होंने अपनी पार्टी और संघ परिवार के आक्रामक हिंदुत्ववादियों के खिलाफ जाकर पीडीपी के साथ गठबंधन बनाने में रुचि दिखाई थी। गठबंधन सरकार बनने के एक वर्ष के भीतर निवर्तमान मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती के पिता और तत्कालीन मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद की मौत के बाद भी यह गठबंधन कायम था। मगर कार्यकाल पूरा करने से पहले ही करीब सवा दो वर्ष के भीतर महबूबा मुफ्ती की सरकार गिर गई। इससे केंद्र सरकार की कश्मीर नीति पर भी सवाल उठेंगे ही।

इस गठबंधन में दरार तो काफी पहले आ गई थी, पर तात्कालिक कारण साबित हुआ है रमजान के दौरान किया गया युद्ध-विराम। केंद्र द्वारा युद्ध-विराम को रद्द किए जाने और आतंकवादियों के खिलाफ ऑपरेशन फिर से शुरू करने संबंधी फैसला लिए जाने के बाद महबूबा मुफ्ती की हैसियत एक अधिकार-विहीन मुख्यमंत्री जैसी हो गई थी। श्रीनगर से ऐसे मजबूत संकेत आ रहे थे कि महबूबा गठबंधन से बाहर निकलने की योजना बना रही हैं। वह इस सप्ताह नई दिल्ली भी आने वाली थीं, ताकि सरकार बचाने की आखिरी कोशिश कर सकें। मगर भाजपा ने पहले ही गठबंधन से खुद को अलग कर लिया। वैसे तो महबूबा मुफ्ती से एक कदम आगे निकलकर भाजपा ने खुद को तुष्ट करने की ही कोशिश की है, लेकिन इस पूरे मामले का स्याह पहलू यह है कि नई दिल्ली ने उस वक्त कश्मीर को अकेला छोड़ दिया है, जब अंतरराष्ट्रीय समुदाय का ध्यान फिर से घाटी की बदहाल स्थिति की तरफ है। 

 

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संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार उच्चायुक्त जेद-अल राद हुसैन ने हाल ही में यह घोषणा की थी कि वह संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद से यह अपील करेंगे कि वह ‘कश्मीर में मानवाधिकारों के उल्लंघन के आरोपों की एक समग्र स्वतंत्र अंतरराष्ट्रीय जांच’ करे। उन्होंने मानवाधिकार उल्लंघन पर अपनी तरह की संयुक्त राष्ट्र की पहली रिपोर्ट भी जारी की है। भारत के लिए यह राहत की बात हो सकती है कि उन्होंने हमारे और पाक अधिकृत, दोनों कश्मीर की बात की। मगर सच यही है कि 1990 के दशक के दौरान, जब घाटी में आतंक चरम पर था और कथित मानवाधिकार उल्लंघन को लेकर हमारे ऊपर अंतरराष्ट्रीय दबाव बढ़ रहे थे, तब भी संयुक्त राष्ट्र की किसी एजेंसी ने कोई आधिकारिक जांच की बात नहीं की थी।

उधर, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने पिछले अमेरिकी प्रशासन की तुलना में कश्मीर में कम रुचि जरूर दिखाई है, पर चीन का गरम रुख अब भी कायम है। हमारे लिए चीन का दबाव अमेरिकी हस्तक्षेप से निपटने की तुलना में कहीं अधिक कठिन साबित हो सकता है। भारत में चीन के राजदूत ल्यू झाओहुई ने भी हाल ही में कश्मीर मसले पर एक त्रिपक्षीय वार्ता (भारत, पाकिस्तान और चीन) की वकालत की थी, जिसे बिना सोचे-समझे दिया गया कोई निजी बयान नहीं मानना चाहिए। चूंकि यह सुझाव शंघाई सहयोग संगठन के तहत तीनों देशों के बीच आर्थिक सहयोग बढ़ाने के संदर्भ में दिया गया था, इसलिए यह स्पष्ट है कि किसी व्यापार या वाणिज्यिक गतिविधियों के लिए कश्मीर में शांति की दरकार हो सकती है। ऐसे में, तब राजदूत के बयान का निहितार्थ चीन के लिए है कि वह कश्मीर सहित तमाम मतभेदों को दूर करने के लिए भारत और पाकिस्तान को वार्ता की मेज पर लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाए। भारत ने बेशक ऐसे सुझावों की कड़ी आलोचना की है और उसे तत्काल खारिज कर दिया है, लेकिन यह भी एक संकेत हो सकता है कि इस्लामाबाद ने अपने ‘हरदम अजीज दोस्त’ से भारत के साथ अपने विवादों के निपटारे के लिए मदद मांगी हो।  

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हाल के दिनों में ये कुछ ऐसी तस्वीरें थीं, जो कश्मीर के मुश्किल हालात में दुनिया भर से उठ रही थीं। ऐसे में, श्रीनगर में लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित सरकार से समर्थन वापस लेकर मोदी सरकार ने खुद को अंतरराष्ट्रीय दबाव के निशाने पर ही ले लिया है।  

सवाल यह है कि अब आगे क्या होगा? निश्चय ही आने वाले दिन केंद्र सरकार के लिए मुश्किलों भरे रहने वाले हैं। जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन लगते ही सेना और अन्य तमाम सुरक्षा बलों को घाटी से आतंकवादियों के सफाए के लिए खुली छूट मिल जाएगी। इसका किस हद तक और क्या लाभ मिलेगा, यह अभी बता पाना मुश्किल है। मगर मेरा मानना है कि पिछले कुछ महीनों में जिस तरह की सख्ती घाटी में दिखाई गई है, उसने कश्मीर को पहले की तुलना में कहीं अधिक अस्थिर किया है। आज कश्मीर में जो लड़ाई लड़ी जा रही है, वह कोई धार्मिक नहीं, बल्कि राजनीतिक जंग है, जो भारत देश के खिलाफ लड़ी जा रही है, और इस समस्या में वहां हर कोई शामिल हो चुका है। यही वजह है कि वहां के कई माता-पिता  अपने ‘पत्थरबाज’ बच्चों की वकालत कर रहे हैं। ऐसे में, यदि आतंकवादियों के खिलाफ ऑपरेशन तेज किया जाएगा, तो  इससे वहां भविष्य में शांति का लक्ष्य पाना ज्यादा मुश्किल हो सकता है। 

जम्मू-कश्मीर की राजनीति के मौजूदा दो बड़े चेहरे महबूबा मुफ्ती और उमर अब्दुल्ला की सियासत के लिए भी ताजा घटनाक्रम किसी झटके से कम नहीं है। एक साल के भीतर देश भर में आम चुनाव होने वाले हैं। अभी घाटी के जिस तरह के हालात हैं, उसमें कश्मीर की तीनों सीटों- बारामूला, श्रीनगर और अनंतनाग में शांतिपूर्ण चुनाव कराना काफी मुश्किल काम होगा। लगातार हिंसा की वजह से महबूबा मुफ्ती के मुुख्यमंत्री बनने के बाद खाली हुई अनंतनाग सीट पर उप-चुनाव भी नहीं करवाए जा सके। हालांकि श्रीनगर में उप-चुनाव हुए जरूर थे, लेकिन वहां भी वोट प्रतिशत घाटी में अब तक का सबसे कम महज सात रहा था। (ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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