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बहुत अहम हैं दक्षिण के ये दुर्ग

उत्तर प्रदेश और बिहार की तीन संसदीय सीटों पर हुए उपचुनावों में भाजपा को मिली शिकस्त का संदेश पूरे देश में गया है। हालांकि, आम चुनाव में अभी तकरीबन एक साल बाकी है, मगर इसके प्रभाव ने दक्षिणी राज्यों...

बहुत अहम हैं दक्षिण के ये दुर्ग
एस श्रीनिवासन, वरिष्ठ पत्रकारMon, 19 Mar 2018 09:55 PM
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उत्तर प्रदेश और बिहार की तीन संसदीय सीटों पर हुए उपचुनावों में भाजपा को मिली शिकस्त का संदेश पूरे देश में गया है। हालांकि, आम चुनाव में अभी तकरीबन एक साल बाकी है, मगर इसके प्रभाव ने दक्षिणी राज्यों में राजनीतिक मंथन को तेज कर दिया है। अगले छह महीनों में दोनों मुख्य राष्ट्रीय पार्टियों- भाजपा और कांग्रेस द्वारा क्षेत्रीय पार्टियों के साथ जो चुनाव पूर्व गठबंधन होगा या उनमें चुनाव बाद के सहयोग की जो आपसी समझ बनेगी, उससे 2019 के राष्ट्रीय परिणाम तय होंगे। पांच दक्षिणी राज्यों- आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु, केरल और एक केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी मिलकर लोकसभा में 130 सांसद भेजते हैं। साल 2014 में मोदी लहर के बावजूद भाजपा दक्षिण से महज 20 सीटें जीत सकी थी। उसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी कांग्रेस से यह महज एक सीट अधिक थी। उसे 19 सीटें मिली थीं। 2019 की तस्वीर इससे कितनी अलग होगी?

भाजपा और कांग्रेस, दोनों को दक्षिण में अपने सहयोगियों के साथ गठबंधन के लिए काफी मेहनत करनी पड़ेगी, क्योंकि दक्षिण में सियासत का मिजाज बड़ी तेजी से बदल रहा है। राष्ट्रीय राजनीति को क्षेत्रीय आकांक्षाओं ने आहिस्ता-आहिस्ता फिर हाशिये पर धकेल दिया है। पुराने ‘गठबंधन धर्म’ में एक अलिखित समझौता रहता था कि क्षेत्रीय पार्टियां राज्य विधानसभा चुनावों पर फोकस करेंगी और शेष परिदृश्य राष्ट्रीय पार्टियों के लिए छोड़ देंगी। लेकिन पिछले कुछ चुनावों से इस स्थिति में तब्दीली आने लगी है। 1996 से ही, जब केंद्र में गैर-कांग्रेसी, गैर-भाजपाई सरकार वजूद में आई, क्षेत्रीय दलों को अपनी ताकत का एहसास हुआ। हालांकि वह प्रयोग देश को राजनीतिक अस्थिरता की ओर ले गया था। दो साल के भीतर तीन-तीन प्रधानमंत्री बदल गए व अंतत: एक और आम चुनाव में उतरना पड़ा था। लेकिन इससे क्षेत्रीय आकांक्षाओं की तीव्रता जरा-सी भी कम नहीं हुई। 

साल 2014 में भाजपा ने जो 20 सीटें जीती थीं, उनमें से 17 तो उसे अकेले कर्नाटक से मिली थीं। राज्य के शहरी क्षेत्रों, खासकर बेंगलुरु व मैसूर और तटीय इलाकों ने भाजपा का समर्थन किया था, और उसे यह कामयाबी तब मिली थी, जब राज्य में मई 2013 से ही सिद्धरमैया के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार थी। मुख्यमंत्री को तब मोदी लहर का सामना करना पड़ा था, और वह पार्टी के खाते में नौ सीटें ही सहेज पाए थे। अब जब विधानसभा चुनाव बिल्कुल सिर पर है, तो कांग्रेसी मुख्यमंत्री सिद्धरमैया अपने भाजपाई प्रतिद्वंद्वी येदियुरप्पा से कुछ आगे दिख रहे हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि भाजपा ने अपने चुनाव अभियान को पूरी तरह से नरेंद्र मोदी के करिश्मे पर केंद्रित कर रखा है, जबकि दूसरी तरफ सिद्धरमैया एंटी-इन्कंबेंसी का सामना करने के बावजूद पिछड़ी जातियों की अपनी सोशल इंजीनिर्यंरग और कर्नाटक गौरव का मुद्दा उठाकर आक्रामक मोर्चा संभालते हुए दिख रहे हैं। उन्होंने राज्य के लिए अपना अलग झंडा घोषित कर इसे धार देने की कोशिश की है। 

अगले महीने तय कर्नाटक विधानसभा चुनाव साल 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा और कांग्रेस के प्रदर्शन की बुनियाद रखेगा। पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौड़ा की क्षेत्रीय पार्टी जनता दल-एस अपनी चमक खो चुकी है। दिलचस्प यह है कि सिद्धरमैया हैं तो   कांग्रेस के मुख्यमंत्री, मगर कर्नाटक गौरव जैसे मुद्दों के सहारे वह खुद को एक क्षेत्रीय नेता के तौर पर ज्यादा पेश करते रहे हैं।  

2014 के आम चुनाव में भाजपा को आंध्र प्रदेश में दो सीटों पर और तेलंगाना में एक पर फतह हासिल हुई थी। भाजपा ने दक्षिण में अपने बूते भले ही 20 सीटें जीती हों, मगर उसने अपने घोषित-अघोषित सहयोगी दलों को 73 सीटों पर फायदा पहुंचाया था, ताकि वे उसके विरोधी खेमे में न जाएं, जिसका नेतृत्व कांग्रेस पार्टी कर रही थी। आंध्र में तो भाजपा की घोषित सहयोगी तेलुगू देशम पार्टी (तेदेपा) ने 15 सीटें जीती थीं और दोनों पार्टियों के सांसद-विधायक दोनों सरकारों में शामिल भी रहे। लेकिन अब इस मित्रता में दरार पड़ गई है। तेदेपा ‘आंध्र गौरव’ का मसला उठाते हुए भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए से बाहर आ चुकी है। तेदेपा प्रमुख चंद्रबाबू नायडू ने केंद्र सरकार पर आरोप लगाया है कि वह आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा देने का अपना वायदा नहीं निभा रही है। साफ है, प्रतिस्पद्र्धी राजनीति ने तेदेपा को एनडीए से बाहर आने को मजबूर किया है, क्योंकि राज्य के मुख्य विपक्षी नेता जगनमोहन लगातार यह आरोप लगा रहे थे कि चंद्रबाबू नायडू राज्य के हितों की रक्षा नहीं कर पा रहे। आंध्र में भाजपा नुकसान की स्थिति में दिख रही है, क्योंकि लोगों की राय नायडू के साथ है। अगले साल चुनाव तक वह विशेष राज्य के मुद्दे को और गरमाएंगे, क्योंकि आंध्र में लोकसभा के साथ-साथ विधानसभा के लिए भी वोट पड़ेंगे। एनडीए के लिए एकमात्र उम्मीद चुनाव बाद गठबंधन की बचती है, क्योंकि नायडू कांग्रेस विरोधी रुख अपनाते रहे हैं। भाजपा की जगनमोहन से साठगांठ की कोशिशें भी फिलहाल नाकाम हो गई हैं।

तेलंगाना में टीआरएस सुप्रीमो चंद्रशेखर राव ‘गैर-भाजपाई, गैर-कांग्रेसी’ मोर्चे के गठन की कवायद में जुटे हुए हैं। वैचारिक रूप से वह कांग्रेस के मुकाबले भाजपा के ज्यादा करीब हैं, मगर उन्हें लग रहा है कि जनभावना केंद्र के खिलाफ है, इसलिए उन्हें अलग राजनीतिक मुद्रा अपनानी पड़ेगी। 2014 में टीआरएस ने राज्य से 11 लोकसभा सीटें जीती थीं। अब राहुल गांधी ने यह भरोसा दिलाया है कि यदि कांग्रेस राज्य में सत्ता में आई, तो मनमोहन सिंह द्वारा आंध्र को ‘विशेष दर्जा’ का वायदा पूरा किया जाएगा। 

जयललिता की मौत और करुणानिधि की खराब सेहत के कारण तमिलनाडु में एक राजनीतिक शून्य की स्थिति है। भाजपा वहां रजनीकांत समेत विभिन्न गुटों को अपने से जोड़ने की कोशिश कर रही है, मगर वह अब तक इसमें नाकाम रही है। केरल में उसका वोट प्रतिशत बढ़ा है, मगर सीट हासिल करने की हैसियत से अभी काफी दूर है। पुडुचेरी में कांग्रेस सत्ता में है। कुल मिलाकर, दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को चुनाव पूर्व गठबंधन के लिए क्षेत्रीय दलों को मनाना होगा या फिर चुनाव बाद के गठजोड़ के लिए द्वार बनाने पड़ेंगे, ताकि अगले साल आम चुनाव में अपनी संभावनाओं को वे मजबूती दे सकें। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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