फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियनखेल तो अभी शुरू हुआ है

खेल तो अभी शुरू हुआ है

नए राज्य तेलंगाना ने अपनी विधानसभा के कार्यकाल में छह महीने की कटौती करके भारतीय राजनीति की जटिलताओं को सतह पर ला दिया है। 2019 के आम चुनाव में इन पेचीदगियों की बड़ी भूमिका होगी। तेलंगाना की इस घटना...

खेल तो अभी शुरू हुआ है
एस श्रीनिवासन, वरिष्ठ पत्रकारMon, 17 Sep 2018 09:54 PM
ऐप पर पढ़ें

नए राज्य तेलंगाना ने अपनी विधानसभा के कार्यकाल में छह महीने की कटौती करके भारतीय राजनीति की जटिलताओं को सतह पर ला दिया है। 2019 के आम चुनाव में इन पेचीदगियों की बड़ी भूमिका होगी। तेलंगाना की इस घटना ने पुराने सियासी विरोधियों को न सिर्फ दोस्त बना दिया है, बल्कि राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों की आशंकाओं को उजागर कर दिया है। इसने राजनीति की उसी बुनियादी हकीकत को पुष्ट किया है कि सियासत में अपने हितों के अलावा कुछ भी स्थाई नहीं होता। 

चंद महीने पहले तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) सुप्रीमो के चंद्रशेखर राव (केसीआर) काफी उबल रहे थे। उन्होंने भाजपा और कांग्रेस, दोनों राष्ट्रीय पार्टियों को राज्य और केंद्र की सत्ता से उखाड़ फेंकने के लिए एक ‘फेडरल फ्रंट’ की जरूरत पर जोर दिया था। लेकिन उनकी यह पहल इसलिए बेकार हो गई, क्योंकि उन्होंने भाजपा को परास्त करने के लिए प्रस्तावित इस फ्रंट से कांग्रेस को बाहर रखने की शर्त रख दी। जाहिर है, अन्य क्षेत्रीय पार्टियों, खासकर तृणमूल कांग्रेस को यह शर्त मंजूर नहीं थी। फेडरल फं्रट की बुनियाद दरअसल राज्यों, खासकर तेलंगाना के अधिकारों की बहाली ही थी। आंध्र प्रदेश के बंटवारे के बाद से ही यह अपने लिए अलग उच्च न्यायालय समेत तमाम दूसरी चीजों के लिए प्रयास कर रहा है। मुख्यमंत्री केसीआर को राज्य में मुस्लिमों की अच्छी-खासी आबादी को देखते हुए सेकुलर कार्ड भी खेलना पड़ा। टीआरएस ओवैसी बंधुओं की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन यानी एआईएमआईएम के साथ गठबंधन में है। लेकिन जब उसके राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों कांग्रेस, टीडीपी और वाम दलों ने उनके खिलाफ आपस में एक गठजोड़ बना लिया, तो केसीआर का पूरा समीकरण ही बदल गया। वह फौरन बीजेपी की ओर दौड़े और राज्य के लिए सुविधाओं की मांग के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी मिले। लेकिन एक बार फिर उनका यह कदम अपने अंतर्विरोधों के कारण एक अबूझ पहेली बनकर रह गया।  
केसीआर हाल-फिलहाल तक केंद्र और राज्यों के साथ-साथ चुनाव कराने के मुखर समर्थक थे, पर अचानक कलाबाजी खाते हुए उन्होंने विधानसभा को भंग कर दिया और अब वह चाहते हैं कि मध्य प्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ के साथ ही तेलंगाना विधानसभा के चुनाव भी करा लिए जाएं। उनका पहला आकलन यही है कि लोकसभा के साथ चुनाव में सारा फोकस राष्ट्रीय मुद्दों पर हो जाएगा। ऐसे में, उनके पास कोई मौका नहीं बचेगा। प्रधानमंत्री का तूफानी दौरा राज्य में उनके प्रचार अभियान को बहा ले जाएगा। 

119 सदस्यों वाली पिछली तेलंगाना विधानसभा में टीआरएस के 90 विधायक थे, जबकि कांग्रेस के पास 13, एमआईएम के सात, भाजपा के पांच, टीडीपी के तीन और सीपीएम के एक विधायक थे। 2014 में जब लोकसभा के साथ ही तेलंगाना विधानसभा के चुनाव हुए थे, तब टीआरएस ने 63 सीटें जीती थीं, लेकिन बाद में विधायकों के दलबदल की बदौलत उसकी ताकत बढ़ गई। टीआरएस ने अलग तेलंगाना के नाम पर एनडीए और यूपीए से अलग अपने बूते चुनाव लड़ा था। उसने राज्य की 17 में से 11 लोकसभा सीटें भी जीत ली थीं।

लेकिन अब हालात बदल गए हैं। टीआरएस अपनी सरकार के अच्छे काम के आधार पर फिर से सत्ता पाने की आस लगाए हुए है, लेकिन कांग्रेस ने टीडीपी और वाम दलों के साथ महागठबंधन रचकर उसे बड़ा झटका दिया है। टीआरएस के लिए एआईएमआईएम और भाजपा से घोषित गठजोड़ मुश्किल होगा, इसीलिए ऐसा लगता है कि उसने भाजपा के साथ एक ऐसी समझ बनाई है, जिसमें आम चुनाव के बाद वह भाजपा की मदद करेगी। भाजपा क्षेत्रीय पार्टियों के साथ जिस रणनीति पर काम कर रही है, उसमें उसकी पहली शर्त है कि ‘आप भले ही हमारे साथ गठबंधन न करें, मगर कांग्रेस के साथ भी गठजोड़ नहीं करें।’ वैसे भी, टीआरएस के लिए सबसे बड़़ी सियासी चुनौती कांग्रेस ही है। वह जिस अंकगणित पर काम कर रही है, उसमें टीआरएस के 34.7 प्रतिशत, एआईएमआईएम के 2.3 प्रतिशत और भाजपा  के 10.5 प्रतिशत मिलकर उसे अपने प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ 47.5 फीसदी का ठोस आधार दे देंगे। 

दूसरी तरफ, कांग्रेस अब अपनी बाध्यताओं के साथ जीना सीख रही है। इसने धुर विरोधी तेलुगुदेशम पार्टी के साथ गठजोड़़ किया है। टीडीपी का जन्म ही गैर-कांग्रेसवाद के लिए हुआ था। लेकिन इससे चंद्रबाबू नायडू को निजी तौर पर कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि वह पूर्व में ऐसी कई कलाबाजियां मार चुके हैं। एक वक्त वह कांग्रेस के ही नेता हुआ करते थे, लेकिन अपने ससुर एन टी रामराव की पार्टी ज्वॉइन करने के लिए उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी, और फिर सुसर को सियासी मात देकर उन्होंने टीडीपी को अपने नियंत्रण में ले लिया। उसके बाद के तमाम वर्षों में वह एनडीए के बड़े मुखर पैरोकार रहे हैं और अब अचानक यूपीए की तरफ आ गए हैं।

तेलंगाना में कांग्रेस के पास 25 फीसदी वोट है, जबकि टीडीपी का वोट सात प्रतिशत से अधिक है। वामदलों का भी कई क्षेत्रों में अच्छा प्रभाव है और वे वोटों का रुख मोड़ सकते हैं। जाहिर है, तेलंगाना में टीडीपी से गठजोड़ का असर पड़ोसी आंध्र में भी दिखेगा, जहां अभी हाल-हाल तक दोनों पार्टियां एक-दूसरे की प्रतिद्वंद्वी रही हैं। अपेक्षा है कि इस गठबंधन का विस्तार आंध्र में भी होगा। लेकिन आंध्र के बारे में कोई फैसला करने से पहले नायडू जरूर तेलंगाना के नतीजों को देखना चाहेंगे।

ऊपरी तौर पर कांग्रेस आंध्र में टीडीपी से और भाजपा तेलंगाना में टीआरएस से किसी गठजोड़ से इनकार कर रही हैं, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और कहानी कह रही है, क्योंकि राष्ट्रीय पार्टियों को संसदीय चुनाव में अपनी उम्मीदों को मजबूती देने के लिए क्षेत्रीय पार्टियों का साथ चाहिए। अभी तक तो यही लग रहा है कि भाजपा ने इन दोनों सूबों में मौका गंवा दिया है, आखिर दक्षिण में उसके अच्छे प्रदर्शन के लिए ये काफी महत्वपूर्ण राज्य हैं। लेकिन मोदी-शाह के नेतृत्व में भाजपा आखिरी गेंद तक मैच खेलेगी। पार्टी तेलंगाना चुनाव के परिणाम को तौलेगी और आंध्र में उसके नतीजों पर भी नजर रखेगी। खेल तो अभी शुरू हुआ है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें