एक प्रगतिशील फैसले के बाद
देश का सबसे शिक्षित सूबा केरल इन दिनों उबल रहा है। विवाद सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को लेकर है, जिसमें सबरीमाला के अयप्पा मंदिर में सभी उम्र की महिलाओं को पूजा-अर्चना की अनुमति दी गई है। इस फैसले का...
देश का सबसे शिक्षित सूबा केरल इन दिनों उबल रहा है। विवाद सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को लेकर है, जिसमें सबरीमाला के अयप्पा मंदिर में सभी उम्र की महिलाओं को पूजा-अर्चना की अनुमति दी गई है। इस फैसले का सांविधानिक पहलू भी है और सांस्कृतिक भी। लेकिन चुनावी मौसम के करीब होने के कारण इस मसले को विशुद्ध राजनीति ने हथिया लिया है।
कानूनी लिहाज से यह विवाद एक व्यक्ति की निजी आस्था के अधिकार और लोगों के एक समूह द्वारा अपने धार्मिक मामलों के प्रबंधन के बीच का था। पिछले पखवाड़े संविधान पीठ ने चार और एक के अनुपात के अपने फैसले में यह साफ-साफ कहा कि व्यक्ति का अधिकार समूह के अधिकारों से ऊपर है। इस मामले में समूह मंदिर प्रबंधन है। पीठ में शामिल एक माननीय न्यायाधीश ने, जो स्वयं महिला भी हैं, बहुमत से अलग फैसला दिया। उन्होंने एक खास उम्र की स्त्रियों के प्रवेश की बात को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि धार्मिक परंपराओं को लैंगिक समानता या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जोड़कर नहीं देखा जा सकता।
केरल की वाम मोर्चा सरकार ने शीर्ष अदालत के फैसले का स्वागत किया और मंदिर प्रबंधन की पुनर्विचार याचिका दायर करने की मांग मानने से इनकार कर दिया। कोर्ट के फैसले को किस तरह से लागू किया जाए, इसके बारे में विचार-विमर्श के लिए राज्य सरकार ने सबरीमाला के मुख्य पुजारी और राज-परिवार के वारिसों को न्योता दिया था, लेकिन उन्होंने इसे ठुक रा दिया। यद्यपि राज्य सरकार ने इस मामले में सख्त रुख अपनाया, मगर वामपंथी पार्टी के तेवर नरम रहे और उसने त्रावणकोर देवासम बोर्ड के विरोधी रुख की मुखालफत नहीं की। गौरतलब है कि यह बोर्ड राज्य सरकार के नियंत्रण में है। कांग्रेस के नेतृत्व में यूडीएफ ने इस मुद्दे पर ढुलमुल रुख दिखाया। कभी तो वह सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत करता है, और कभी इसके ‘सामाजिक असर’ की शिकायत भी करता है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी शुरुआत में सुधारवादी बनाम कट्टरपंथी दलील में उलझ गया, मगर जल्दी ही उसने अपनी नीति तय कर ली और अब वह अपनी राजनीतिक इकाई (भाजपा) की हर मदद कर रहा है। परिणामस्वरूप, कुछ दक्षिणपंथी संगठनों ने मंदिर प्रवेश का खुलकर विरोध करने का फैसला किया। इनमें से एकाधिक ने ‘आत्मदाह’ करने तक की धमकी दे डाली।
मूल विवाद एक खास उम्र अवधि (10 से 50 साल) की स्त्रियों के मंदिर प्रवेश की इजाजत को लेकर है। मंदिर प्रवेश की अनुमति का विरोध करने वालों की दलील है कि यह भगवान अयप्पा का मंदिर है, जो ‘नैष्ठिक ब्रह्मचारी’ माने गए हैं। इनके दर्शन के इच्छुक पुरुष-महिला श्रद्धालुओं को कठोर संयम और ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता है। सबरीमाला मंदिर मलयालम महीने की खास अवधि के लिए खुलता है। इसमें हर मलयालम महीने, जिसकी शुरुआत अंग्रेजी माह के लगभग मध्य से होती है, के शुरुआती पांच दिन और हर साल मकर संक्राति के दौरान यानी 1 जनवरी से 15 जनवरी तक पूजा की जाती है।
सबरीमाला तीर्थस्थल प्रबंधन 41 दिनों के ‘व्रतम’ को काफी महत्व देता है। इन दिनों में तीर्थयात्रा पर जा रहे श्रद्धालु को खुद को परिवार से अलग कर लेना पड़ता है। तीर्थस्थल प्रबंधन के लोगों का कहना है कि इस आयु वर्ग की औरतों के साथ परेशानी यह है कि वे 41 दिनों के व्रतम-अनुशासन को पूरा नहीं कर सकतीं। वे दलील देते हैं कि यह हिंदुओं में एक परंपरा है कि रजस्वला महिलाएं मंदिर नहीं जातीं या उस दौरान कोई धार्मिक कर्म नहीं करतीं। इस पर याचिकाकर्ता की दलील है कि यह परंपरा स्त्रियों को मर्दों के मुकाबले कमजोर और कमतर इंसान समझती है। उनकी राय में ‘रजस्वला स्त्रियों’ और ‘अस्पृश्यों’ को मंदिर प्रवेश के मामले में एक ही निगाह से देखा जाता है, इसलिए यह रवायत ‘छुआछूत’ को बढ़ावा देती है। दिलचस्प बात यह है कि केरल ही वह जगह थी, जिसने ‘अस्पृश्यता’ के खिलाफ आगे बढ़कर मोर्चा लिया था। यहां तक कि 1920 के दशक में अंतरजातीय विवाहों और ‘अस्पृश्यों’ के मंदिर-प्रवेश को बढ़ावा देने में नारायण गुरु के अनुयायी महात्मा गांधी से आगे थे। जब दो प्रभुत्वशाली जातियां- ‘नायर’ और ‘नंबूदिरी’ उस वक्त मंदिरों का प्रबंधन संभालती थीं, तब ताड़ी उतारने वाली पिछड़ी जाति ‘एझावा’ ने अस्पृश्यों के मंदिर प्रवेश की लड़ाई लड़ी। अंतत: वायकम नामक जगह में मंदिर प्रवेश के लिए एक ‘अस्पृश्यता विरोधी समिति’ का गठन हुआ, जिसमें सवर्ण और पिछड़ी जातियों को शामिल किया गया था।
सुप्रीम कोर्ट का फैसला, व्यक्तिगत अधिकार का सवाल, खासकर औरतों का और सामाजिक अधिकारों का विवाद दक्षिणपंथ के मुफीद अवसर के रूप में आया है। हजारों की तादाद में पुरुष-स्त्री केरल और पड़ोसी राज्य तमिलनाडु में मंदिर प्रवेश के खिलाफ सड़कों पर उतर आए हैं। तमिलनाडु ने कुछ इसी तरह का दृश्य जलीकट्टू के समय देखा था, जब इस पारंपरिक खेल के समर्थकों ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा इसमें पशुओं के इस्तेमाल पर रोक को सांस्कृतिक अधिकारों के हनन के रूप में लिया था। बाद में राज्य सरकार इस फैसले से बचने के लिए अध्यादेश लेकर आई। अब मंदिर प्रवेश के विरोधी भी केरल सरकार से सुप्रीम कोर्ट के फैसले के खिलाफ अध्यादेश लाने की मांग कर रहे हैं। वे पुनर्विचार याचिका दायर किए बगैर राज्य सरकार द्वारा फैसले को लागू करने की चेष्टा के पीछे ‘राजनीतिक मंशा’ देख रहे हैं।
इस विवाद ने केरल का राजनीतिक तापमान बढ़ा दिया है। प्रगतिशील कानून और न्यायिक फैसले अक्सर गलत परंपराओं और सांस्कृतिक अधिकारों के विरुद्ध ही होते हैं। कई बार ये मजबूूत राजनीतिक इच्छाशक्ति के जरिए भी दुरुस्त हुए। उदाहरण के तौर पर, मंदिर प्रवेश आंदोलन की शुरुआत में समाज के हाशिये के तबकों में एक तरह की हिचक थी, क्योंकि उन्हें ‘ईश्वरीय दंड’ का भय था। लेकिन वक्त बीतने के साथ यह भय मिट गया। हालांकि, आज का माहौल बिल्कुल अलग है, जहां राजनीति काफी धु्रवीकृत हो गई है और हर चीज को चुनावी नफा-नुकसान के चश्मे से देखा जाने लगा है। मंदिर-प्रवेश का मसला भी इससे अछूता नहीं है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)