सहवाग की माफी के सबक
मैं अमूमन इतिहास और राजनीति पर टिप्पणियां करता रहता हूं, पर मैं एक क्रिकेट लेखक भी हूं। ज्यादातर मौकों पर मेरा पेशा और मेरा जुनून दो ध्रुवों पर होते हैं, मगर कभी-कभार वे आपस में टकराते भी हैं। ऐसा ही...
मैं अमूमन इतिहास और राजनीति पर टिप्पणियां करता रहता हूं, पर मैं एक क्रिकेट लेखक भी हूं। ज्यादातर मौकों पर मेरा पेशा और मेरा जुनून दो ध्रुवों पर होते हैं, मगर कभी-कभार वे आपस में टकराते भी हैं। ऐसा ही एक मौका 24 फरवरी को आया, जब मैंने ट्विटर पर देखा कि वीरेंदर सहवाग ने केरल में हुए एक नफरत-प्रेरित अपराध के बारे में आधा सच बताया। वहां मधु नामक एक लड़के को हिंदू और मुस्लिमों की एक मिली-जुली जमात ने बुरी तरह पीटा था। अपराधियों के नाम पहले से ही कई अखबारों और ट्विटर पर उजागर हो गए थे। फिर भी, सहवाग ने दो मुस्लिम नाम चुने, उन्हें पीड़ित हिंदू के नाम से जोड़ा और घटना को ‘सभ्य समाज के लिए शर्मनाक’ घोषित कर दिया।
मैं सहवाग की बैटिंग का महान प्रशंसक रहा हूं। जब उन्हें भारतीय टीम से बाहर किया गया था, तब मैंने उनकी प्रशंसा में अपनी शैली से इतर एक काव्यात्मक ‘कॉलम’ भी लिखा था। मगर उनके उस ट्वीट ने मुझे काफी निराश किया। ऐसा महज इसलिए नहीं कि उन्होंने ‘सेलेक्टिव’ रुख अपनाया था, बल्कि इसलिए कि हरियाणा के नफरत-प्रेरित अपराधों पर उनकी चुप्पी बरकरार थी, जबकि वहां पर वह अपना स्कूल भी चलाते हैं। लिहाजा मैंने उनकी भूल को लेकर ट्वीट किए और लिखा, ‘अगर सहवाग में थोड़ी सी भी इंसानियत है, तो उन्हें अपना ट्वीट हटा लेना चाहिए’।
ट्विटर पर सहवाग के करीब 1.6 करोड़ फॉलोअर हैं। जाहिर है, इनमें से कई के लिए उनके शब्द अक्षरश: सत्य होंगे। मैं परेशान था कि क्रिकेट की उनकी यह प्रसिद्धि सांप्रदायिक तनाव को हवा दे सकती है। इसलिए खुद ट्वीट करने के अलावा मैंने वरिष्ठ पत्रकार राजदीप सरदेसाई को सहवाग की इस गंभीर गलती के बारे में बताया। राजदीप के ट्वीट करने के बाद सहवाग ने एक माफीनामा लिखा कि उन्हें गलत जानकारी मिली थी। मगर वह मूल ट्वीट उसी तेवर में तब भी मौजूद था। बाद में, राजदीप की गुजारिश के बाद सहवाग ने उसे डिलीट किया।
20वीं सदी की शुरुआत में मैनचेस्टर गार्जियन के महान संपादक सीपी स्कॉट ने कहा था, ‘टिप्पणी स्वतंत्र होती है, पर तथ्य अक्षय होते हैं’। मगर 21वीं सदी में इस सिद्धांत को हर क्षण सोशल मीडिया पर तार-तार किया जाता है। ट्रॉल करने वाले और खास विचारधारा के लोग तो जान-बूझकर हर वक्त झूठ परोसते रहते हैं, पर नाम व उपलब्धि कमा चुके लोगों को उच्च मानक का पालन जरूर करना चाहिए। बेशक एक नागरिक होने के नाते क्रिकेटरों या फिल्मी कलाकारों को भी अपने क्षेत्र से इतर बातें रखने का पूरा हक है, लेकिन भ्रष्टाचार, सांप्रदायिक तनाव जैसे मसलों पर अपनी राय जाहिर करने से पहले उन्हें यह जरूर सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके तथ्य सही हों और बिना किसी भेदभाव के लोगों के सामने परोसे गए हों।
वीरेंदर सहवाग के प्रसंग ने मुझे एक पुरानी घटना याद दिला दी। उसमें एक सेलिब्रिटी ने अपने राजनीतिक एजेंडे के लिए आधा-अधूरा सच नहीं, बल्कि सरासर झूठ बोला था। वह वाकया साल 2002 में गुजरात में हुई सांप्रदायिक हिंसा के बाद हुआ था। उस हिंसा में हजारों मुस्लिमों के साथ पूर्व सांसद एहसान जाफरी भी मारे गए थे। जब अहमदाबाद में उनके घर को हिंसक भीड़ ने घेर लिया था, तब उन्होंने वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों और राजनेताओं को मदद के लिए फोन किया। मगर उन्हें सहायता नहीं मिली और सोसायटी में रहने वाले अन्य तमाम लोगों के साथ वह भी भीड़ की भेंट चढ़ गए।
दंगा थमने के बाद उपन्यासकार अरुंधति राय ने उन पर एक लेख लिखा। उन्होंने लिखा था कि भीड़ ने सांसद को मारने से पहले ‘उनकी बेटियों को निर्वस्त्र किया और जिंदा जला दिया’। ये तथ्य बिना पुष्ट किए लिखे गए थे, जिस पर सर्वप्रथम ऐतराज जाफरी के बेटे ने जताया। उन्होंने लिखा, राय के लेख को पढ़ने के बाद ‘हम सब सन्न और स्तब्ध हैं’। ऐसा इसलिए, क्योंकि ‘हम सभी भाई-बहनों में सिर्फ मैं भारत में रह रहा हूं... मेरे भाई व बहन अमेरिका में रहते हैं...’।
साल 2002 के फरवरी व मार्च में गुजरात में हुए दंगे वाकई बहुत भयानक थे। अंग्रेजी मीडिया ने उसकी खूब (और संवेदनशीलता से) रिपोर्टिंग की थी। तब राज्य और केंद्र, दोनों जगह भाजपा की सरकारें थीं और वह रक्षात्मक मुद्रा में आ गई थी। मगर राय की अपुष्ट लेखनी ने उसे जवाबी हमला करने का मौका दे दिया। पार्टी के नेता कहने लगे कि मीडिया नए तथ्यों को ‘गढ़कर’ सिर्फ हिंदुओं को बदनाम करने में दिलचस्पी ले रहा है। एक बड़े नेता ने तो यह भी कहा कि राष्ट्रवादी तत्वों को गलत रूप में चित्रित करने के लिए लेखक कल्पनाशीलता का सहारा ले रहे हैं। बहरहाल, लेख छपने के तीन हफ्ते के बाद अरुंधति राय ने माफी मांग ली।
सहवाग सौभाग्यशाली थे कि जब उन्होंने यह गंभीर गलती की, तो ट्विटर जैसा मंच अस्तित्व पा चुका था, इसीलिए वह संभल सके। मुझे उम्मीद है कि सहवाग प्रकरण पर वे तमाम अन्य सेलिब्रिटी भी ध्यान देंगे, जिन्होंने अपने क्षेत्र में मुकाम हासिल कर लिया है और इतर विषयों पर टिप्पणी करने की इच्छा रखते हैं। यदि वे तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश करते हैं या नजरअंदाज करते हैं, फिर चाहे वह जान-बूझकर किया गया हो या अज्ञानता मेंं, तो वे न सिर्फ अपनी छवि खराब करते हैं, बल्कि देश के नाजुक सामाजिक ताने-बाने को भी नुकसान पहुंचाते हैं।
यह तो सहवाग प्रकरण का पहला सबक है। दूसरा सबक यह कि अगर कोई आपकी गलती बताए, तो अच्छा यही है कि उसे सुधारें और माफी मांग लें। मुझे कुछ संतोष हुआ, जब सहवाग ने आंशिक माफी मांगी, पर खुशी तब मिली, जब दूसरे के दबाव में ही सही, उन्होंने उस ट्वीट को हटा लिया। गलती करना इंसानी फितरत है, पर हमारे कुछ फिल्मी सितारों, क्रिकेटरों, वैज्ञानिकों, उद्यमियों और सबसे ऊपर राजनेताओं को यह लगता ही नहीं कि वे कभी गलती भी करते हैं। गलती बताने के बाद सहवाग ने जो किया, वह उन्हें याद रखना चाहिए। ऐसा करना उन्हें और मानवीय ही नहीं, अधिक से अधिक पसंदीदा भी बनाएगा। (ये लेखक के अपने विचार हैं)