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गांधी की उम्मीद और जिन्ना की जिद

पश्चिम के अनेक लोकतंत्रों की यह खूबी रही है कि उनमें केंद्रीय स्तर पर सत्ता की अदला-बदली दो ही पार्टियों के बीच होती है। एक मध्यमार्ग से कुछ वाम विचारधारा वाली पार्टी होती है, तो दूसरी कुछ दक्षिणपंथी...

गांधी की उम्मीद और जिन्ना की जिद
रामचंद्र गुहा, प्रसिद्ध इतिहासकारFri, 25 May 2018 08:52 PM
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पश्चिम के अनेक लोकतंत्रों की यह खूबी रही है कि उनमें केंद्रीय स्तर पर सत्ता की अदला-बदली दो ही पार्टियों के बीच होती है। एक मध्यमार्ग से कुछ वाम विचारधारा वाली पार्टी होती है, तो दूसरी कुछ दक्षिणपंथी विचार की। इसीलिए, अमेरिका में आपको रिपब्लिकन और डेमोक्रेट; ब्रिटेन में कंजरवेटिव पार्टी और लेबर पार्टी; जर्मनी में क्रिश्चियन डेमोक्रेट और सोशल डेमोक्रेट्स मिलते हैं। इनमें से हरेक मामले में दो पार्टी सिस्टम ने उस देश और उसकी राजनीति को स्थिरता दी व उनको समृद्ध किया है। वहां विपक्ष में एक मजबूत पार्टी की मौजूदगी सत्तारूढ़ दल पर लगाम लगाए रखती है, उनकी दो दलीय व्यवस्था सुशासन को प्रोत्साहित करने और भ्रष्टाचार व सत्ता के बेजा इस्तेमाल को रोकने में सहायक सिद्ध हुई है।      

दूसरी तरफ, भारत में कभी दो दलीय स्थिति नहीं रही। 1940 के दशक से लेकर 1970 के दशक तक कांग्रेस अकेली राष्ट्रीय पार्टी रही। कई सारे छोटे दल इसके विरोध में खड़े हुए, मगर उनमें से किसी में यह माद्दा नहीं था कि वह अखिल भारतीय स्तर पर कांग्रेस को चुनौती दे पाती। हाल के वर्षों में भाजपा अकेली राष्ट्रीय पार्टी बनकर सामने आई है। आज भी, कई पार्टियां अनेक राज्यों में उसका जोरदार मुकाबला कर रही हैं, मगर उनमें से कोई भी ऐसी पार्टी नहीं, जो राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को प्रभावी चुनौती दे सके। भारतीय लोकतंत्र के शुरुआती दौर में कांग्रेस के वर्चस्व और वर्तमान में भाजपा के दबदबे के बीच गठबंधन व अल्पमत सरकारों का भी दौर रहा। 1989 से 2014 के बीच की केंद्र सरकारें प्रभावशाली नीतियों को रचने या उनको लागू करने के लिहाज से काफी कमजोर, और निहित स्वार्थों के आगे झुकने को प्रवृत्त रहीं। दूसरी तरफ, एक अकेली पार्टी की मजबूती ने अहंकार और निरंकुशता को जन्म दिया, जो शासन के लिए अच्छी बात नहीं है। 

केंद्रीय स्तर पर दो पार्टी सिस्टम की खूबियों को महात्मा गांधी ने काफी पहले पहचान लिया था। 1937 में ‘गवर्नमेंट ऑफ इंडिया ऐक्ट’ के तहत हुए चुनाव में कांग्रेस स्पष्ट विजेता के तौर पर उभरी थी। उसने मद्रास में 74 फीसदी, बिहार में 65 प्रतिशत, सेंट्रल प्रोविंसेज की 62.5 फीसदी, उड़िसा में 60 प्रतिशत, यूनाइटेड प्रोविंसेज की 59 फीसदी तथा बॉम्बे में 49 प्रतिशत सीटें जीत ली थीं। सभी धर्मों के बड़े जमींदारों की पार्टी ‘यूनियनिस्ट’ ने पंजाब में बहुमत हासिल किया था, जबकि अन्य प्रातों में जनादेश इतना खंडित था कि कोई भी दल सरकार बनाने का दावा नहीं पेश कर सकता था। कुल मिलाकर देखें, तो ब्रिटिश इंडिया की 707 सीटों पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी, जबकि 106 सीटें जीतकर मुस्लिम लीग दूसरे नंबर पर काफी पीछे थी। 

सन् 1938-39 में मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना ने कांग्रेसी वर्चस्व के मुकाबले के लिए विपक्षी एकता पर बल दिया। वह अनुसूचित जाति के नेता बीआर आंबेडकर के अलावा दक्षिण भारत के गैर-ब्राह्मण एक्टिविस्ट ई वी रामास्वामी नायकर से भी मिले। उन्होंने हिंदू महासभा के नेता वीडी सावरकर से भी मुलाकात की इच्छा जताई। कोई भी यह सोच सकता है कि कांग्रेस पार्टी इन गतिविधियों से चिंतित हो उठी होगी। लेकिन गौर करने वाली बात यह है कि गांधी ने जिन्ना की अन्य विपक्षी पार्टियों से गठजोड़ की इस कवायद को ‘पूरी तरह मुनासिब’ बताया। अपनी साप्ताहिक पत्रिका हरिजन  में गांधी ने लिखा, ‘इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता कि देश में मुख्यत: दो पार्टियां- कांग्रेस या कांग्रेस विरोधी दल हों। जिन्ना साहब ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को एक नई व अच्छी ताकत दे रहे हैं। कांग्रेसी बहुमत विभिन्न जातियों के हिंदुओं, जातिहीन हिंदुओं, मुस्लिमों, ईसाइयों, पारसियों व यहूदियों का मिला-जुला रूप है। इस तरह, सभी वर्गों के समर्थन से आया यह बहुमत एक विचारधारा का प्रतिनिधित्व कर रहा है; और प्रस्तावित गठबंधन अल्पसंख्यकों की प्रतिनिधित्व वाली एक भिन्न विचारधारा का प्रतिनिधि बन सकता है। संभव है, किसी दिन मतदाताओं की हिमायत पाकर यह बहुमत में आ जाए। पार्टियों के ऐसे असांप्रदायिक गठजोड़ की कामना की जानी चाहिए। अगर कायदे-आजम ऐसा गठबंधन कायम कर सके, तो न सिर्फ मैं, बल्कि पूरा भारत उनके अभिनंदन में कहेगा- कायदे-आजम जिंदाबाद। इसके लिए उन्हें स्थाई और टिकाऊ एकता गढ़नी पड़ेगी, जिसके लिए पूरा देश तरस रहा है।’

गांधी ने अपने लेख की एक कॉपी छपने से पूर्व जिन्ना को भेजी और उसके साथ नत्थी अपनी चिट्ठी में उन्हें लिखा कि अगर आप इस कोशिश में कामयाब होते हैं, ‘तो आप देश को सांप्रदायिक भूतों से आजादी तो दिलाएंगे ही, मेरी विनम्र राय में मुस्लिमों व अन्यों को एक नेतृत्व भी दे पाएंगे, और इसके लिए आप न सिर्फ मुसलमानों के, बल्कि दूसरे समुदायों के धन्यवाद के हकदार होंगे। उम्मीद है, मैंने सही व्याख्या की है। अगर मैं कहीं गलत हूं, तो कृपया आप मुझे दुरुस्त करें।’

गांधी ने कांग्रेस के विरोध के लिए एक व्यापक गठबंधन का स्वागत किया था। अगर जिन्ना ने यह किया होता, तो वह राष्ट्रीय स्तर पर एक गैर-सांप्रदायिक गठबंधन तैयार कर सकते थे, जो गैर-सांप्रदायिक कांग्रेस को चुनौती पेश करता और इस तरह भारत लोकतांत्रिक राजनीति के आर्दश मानकों के अधिक करीब होता, जैसा कि दुनिया के कई हिस्सों में हम देखते हैं। गांधी का सुझाव नेकनीयती भरा था, लेकिन जिन्ना ने गांधी के सुझाव को सिरे से खारिज कर दिया। वह अपने उसी रुख पर अटके रहे कि ‘भारत न तो एक राष्ट्र है और न एक देश। यह अनेक राष्ट्रीयताओं, हिंदू और मुस्लिम दो बड़े राष्ट्रों वाला एक उपमहाद्वीप है।’

गांधी जिन्ना को एक मुस्लिम नेता से कहीं बड़े नेता के तौर पर देखने के इच्छुक थे। दूसरी तरफ, जिन्ना गांधी को सिर्फ हिंदू नेता के रूप में देखने की जिद में रहे। गांधी ने जिन्ना से अपील की कि वह मुस्लिम लीग को मजहबी सियासत की तंग गलियों से निकालकर कांग्रेस के विरोधी दल का रूप गढ़ें। लेकिन वह नाकाम रहे और यह भारत का बहुत बड़ा नुकसान था। अगर हमारे पास अखिल भारतीय उपस्थिति वाली दो पार्टियां रही होतीं, तो शायद हमारा लोकतंत्र कम दोषपूर्ण और कम भ्रष्ट होता। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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