पाकिस्तान से पहले के जिन्ना
भारत-पाकिस्तान के बीच तमाम अंतर्विरोधों में से एक अपने-अपने राष्ट्रपिता को देखने के नजरिए का भी है। गांधी की तो हर भारतीय अपने तरीके से व्याख्या कर सकता है। नक्सली उन्हें दबे पांव आगे बढ़ने वाला...
भारत-पाकिस्तान के बीच तमाम अंतर्विरोधों में से एक अपने-अपने राष्ट्रपिता को देखने के नजरिए का भी है। गांधी की तो हर भारतीय अपने तरीके से व्याख्या कर सकता है। नक्सली उन्हें दबे पांव आगे बढ़ने वाला प्रतिक्रियावादी कहते हैं, तो हिंदुत्ववादियों की नजर में वह मुसलमानों के प्रति ज्यादा ही उदार थे। आंबेडकरवादियों की नजर में जातिवाद पर उनका विरोध गंभीर नहीं था, तो नारीवादी उन्हें लैंगिक भेदभाव के मामले में ढुलमुल बताते हैं। आधुनिकतावादियों की नजर में वह अतीत का महिमामंडन करने वाले हैं, तो परंपरावादियों की नजर में शास्त्रों का अनादर करने वाले।
उधर पाकिस्तान में उनके राष्ट्रपिता पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं हो सकती। पाकिस्तान बनने के कुछ ही समय बाद लाहौर के एक कवि ने जिन्ना के बारे में लिखा, ‘आपकी अकेली सांस ही देश के लिए काफी है ऐ कायदे-आजम/ आप अकेले ही काफी हैं, इस देश को एक रखने के लिए।’ पाकिस्तान में जिन्ना इसी भक्तिभाव से याद किए जाते हैं। कई पाकिस्तानी कहते रहे हैं कि वह सिर्फ पांच या दस साल और जिंदा रह जाते, तो मुल्क को भ्रष्टाचार, गरीबी, आतंकवाद, कट्टरतावाद या सैन्य तानाशाही का रोग न लगता। दलीय प्रतिबद्धताओं में अलगाव के बावजूद वहां जिन्ना पर एका है। डॉन ने बीते हफ्ते अपने संपादकीय में भी लिखा- ‘जिन्ना का पाकिस्तान सहिष्णु, प्रगतिशील, समावेशी और लोकतांत्रिक है। क्या पाकिस्तान का नेतृत्व अपने संस्थापक पिता के आदर्शों पर लौटेगा?’
बतौर भारतीय, पाकिस्तानियों को अपने राष्ट्रपिता को देखने का नजरिया देना मेरा काम नहीं, पर इतिहासकार के रूप में उन्हें और खुद को याद दिलाना मेरी जिम्मेदारी है कि जिन्ना के वक्त में ही उनके समकालीन उनके बारे में क्या सोचते थे। यहां गांधी-नेहरू की बात नहीं करूंगा, जिनके विचार जगजाहिर हैं।
शुरुआत अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के छात्र रहे मौलाना शौकत अली से। ये उन्हीं अली बंधुओं में से हैं जो असहयोग आंदोलन में गांधी के साथ और जिन्ना के खिलाफ मुखर थे। 1926 में आंदोलन पूरी तरह शांत पड़ते ही जिन्ना ने बंबई विधानसभा के लिए अपनी उम्मीदवारी घोषित कर दी। शौकत अली ने इससे असहमति जताते हुए अपील जारी की और बताया कि वह ‘जिन्ना को बंबई के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने के लिए अनुपयुक्त’ क्यों मानते हैं? ये कारण थे- जिन्ना बंबई के मुसलमानों के बारे में कुछ नहीं जानते और इससे भी बड़ी बात कि जानना भी नहीं चाहते। दूसरे, जिन्ना ने शैक्षिक रूप से पिछड़े मुसलमानों के लिए कुछ नहीं किया। तीसरे, जिन्ना ने मुस्लिम जमात के हर अभियान से तो खुद को अलग रखा ही, खिलाफत और असहयोग आंदोलनों का भी विरोध किया।चौथा, यह मुस्लिम लीग का संकीर्ण और पुरातन संविधान था कि जिन्ना आसानी से इसके स्थाई अध्यक्ष तो बन गए, लेकिन इसे खत्म कर दिया। पांचवां, जिन्ना न तो अनुशासन कायम रख सकते हैं, न ही उस पार्टी संगठन के अधीन काम कर सकते हैं, जहां उन्हें अपने बराबर वालों या वरिष्ठों से तालमेल बिठाना पड़े। शौकत अली ने अपनी बात खत्म करते हुए लिखा- ‘इस्लाम पर जिन्ना की अज्ञानता डराने वाली है और उन पर बदकिस्मत मुसलमानों का प्रतिनिधित्व सौंपने का भरोसा नहीं किया जा सकता। यहां तक कि एक लैंपपोस्ट भी उनसे कम नुकसानदेह होगा...’।
फिर भी जिन्ना चुनाव जीत गए। उनके सितारे तेजी से चमके और शौकत अली की शोहरत कम होती गई। 1938 में शौकत अली के इंतकाल तक जिन्ना भारतीय मुसलमानों के निर्विवाद नेता बन चुके थे। मार्च 1940 में लाहौर में जिन्ना ने मुस्लिम लीग के वार्षिक सम्मेलन की अध्यक्षता की, जिसके बाद एक प्रशंसक ने लिखा- ‘यही वक्त था, जब जिन्ना को पहली बार अपने होने का एहसास हुआ होगा। उन्हें समझ में आया होगा कि उनके चाहने वाले उन्हें कितना चाहते हैं और वे भारतीय मुसलमानों का कितना भरोसा अर्जित कर चुके हैं?’
वहीं भारतीय मुसलमानों के लिए अलग देश की मांग वाला ‘पाकिस्तान प्रस्ताव’ पारित हुआ। पंजाब के गवर्नर को भेजे गए अपने नोट में आईसीएस अफसर पेंडरेल मून ने लाहौर बैठक की तीन खास बातें रेखांकित कीं- पहली, ‘मुसलमानों के असली प्रतिनिधि के रूप में मुस्लिम लीग का महत्व अचानक बढ़ गया है।’ दूसरी, ‘जिन्ना की प्रतिष्ठा काफी बढ़ी है और वह अखिल भारतीय स्तर पर मुसलमानों के निर्विवाद नेता बन चुके हैं।’ तीसरी- ‘मुसलमान अब कम से कम ऊपरी तौर पर तो भारत के बंटवारे के पक्ष में एक हो चुके हैं।’
इसी के तीन माह बाद लिबरल नेता वीएस श्रीनिवासन शास्त्री ने गांधी को लिखा- ‘कोई सोच भी नहीं सकता कि जिन्ना का असर किस कदर बढ़ चुका है। आज कांग्रेस किसी भी तौर पर उनकी अनदेखी या उपेक्षा करने की स्थिति में है, तो ब्रिटिश सरकार भला ऐसा कैसे कर पाएगी?’ वह देख रहे थे कि अंग्रेजों के लिए अब ‘मुसलमानों की नाराजगी, कांग्रेस के संतुलित रुख की अपेक्षा ज्यादा घातक होने वाली थी।’
दूसरी ओर, गांधीजी के निजी सचिव महादेव देसाई मानते थे कि ‘द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की रचना के मूल में ही ब्रिटेन के निर्माता थे, जिन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों के बीच विभाजन रेखा मजबूत की।’ महादेव ने लिखा- हम इस सबके लिए किसी को दोष नहीं दे सकते। न तो उस खतरनाक सोच को, न ही इस विचार की मौलिकता के लिए जिन्ना साहेब को।
1940 तक नहीं लगता था कि पाकिस्तान बन ही जाएगा। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान लीग और जिन्ना का असर तेजी से बढ़ा। युद्ध खत्म होने के बाद ब्रिटिश भारत के चुनावों में जिस तरह मुस्लिम सीटों पर लीग जीती, उससे आजाद पाकिस्तान के सपने को मजबूती मिली। दिसंबर 1946 में एक आईपीएस अफसर मैलकम डार्लिंग ने पंजाब के एक प्रमुख मुसलमान और कोट के सरदार के हवाले से लिखा- ‘जब तक वह अपनी बात पर सफल हैं, इस बात का कोई मतलब नहीं कि उन्हें मुस्लिम धर्म का ए बी सी आता है या नहीं।’
यह इतिहास की एक और विडंबना ही थी कि एक ऐसा आदमी जो मुसलमानों के बारे में कुछ नहीं जानता और जानना भी नहीं चाहता था, वह इंसान ब्रिटिश भारत के हाथ से निकालकर एक आजाद मुस्लिम राष्ट्र बनवाने में सफल हो गया। (ये लेखक के अपने विचार हैं)