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मुक्तिदायिनी धारा का ठिठक जाना

गंगा भारत की पहचान और भारतीयता का जीवंत परिचय है। प्राचीन काल से गंगा दशहरा गंगा के लिए संकल्प और समर्पण का पर्व रहा है। जब हम गंगा तटवासी अपने पूरे परिवार के साथ इस पर्व पर गंगा के...

मुक्तिदायिनी धारा का ठिठक जाना
राममोहन पाठक, पूर्व निदेशक, मालवीय पत्रकारिता संस्थान, काशी विद्यापीठWed, 23 May 2018 09:39 PM
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गंगा भारत की पहचान और भारतीयता का जीवंत परिचय है। प्राचीन काल से गंगा दशहरा गंगा के लिए संकल्प और समर्पण का पर्व रहा है। जब हम गंगा तटवासी अपने पूरे परिवार के साथ इस पर्व पर गंगा के ‘कटिपर्यंत’(कमर तक) जल में खड़े होकर गंगा की आराधना करते थे- गंगे ममाग्रतो भूया, गंगे मे तिष्ठ पृष्ठत: यानी गंगा हमारी समग्र रूप से रक्षा करें। यह गंगा के प्रति मानव की कृतज्ञता के भाव से पूरित प्रार्थना होती थी,  लेकिन यह पवित्र भावधारा अब ठिठक सी गई है। 

किसी नदी को केंद्र मानकर संपूर्ण उत्तर भारत, खासकर जिन पांच राज्यों- उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल (और आगे पड़ोसी देश बांग्लादेश) से होकर गंगा बहती है, वहां गंगा दशहरा इस नदी के मुक्तिदाता स्वरूप को नमन का पर्व है। कहते हैं कि वैशाख मेंइसी तिथि को गंगा का पृथ्वी पर अवतरण हुआ। गंगा दशहरा इसी अवतरण का महोत्सव है।

ठीक 32 साल पहले ‘गंगा एक्शन प्लान’ का शुभारंभ करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने कहा था- इस योजना की सफलता सबके सहयोग पर निर्भर होगी। इसलिए इस योजना को जनांदोलन बनाने की चुनौती है। लेकिन इस योजना के पहले चरण को पूरी तरह सरकारी वित्त-पोषित योजना के रूप में क्रियान्वित किए जाने के बाद साल 2000 में इसे बंद कर दिया गया। इसके बाद दूसरे चरण की समाप्ति और आगे की योजना के परिणाम भी सार्थक नहीं रहे। गंगा एक्शन प्लान एक सरकारी कार्यक्रम बनकर रह गया। चार साल पहले इसी मई महीने में गंगा तट पर आयोजित जनसभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था- ‘मैं काशी आया नहीं, मुझे गंगा मां ने बुलाया है।’ गंगा की सफाई और संरक्षण का वादा करते हुए उन्होंने जो शुरुआत की, उस सरकारी कार्यक्रम से आमजन को जोड़ने के प्रयासों का अभी भी इंतजार हो रहा है। गंगा को कानूनी संरक्षण देने की तैयारी पूरी हो चुकी है। सरकारी घोषणा के अनुसार, इस कानून के मसविदे में गंगा में प्रदूषण फैलाने पर कड़े दंड के साथ ही गंगा की जलधारा के संरक्षण और इसके उपयोग के संबंध में भी कानूनी प्रावधान प्रस्तावित हैं। दुनिया भर में नदी कानूनों की एक परंपरा है। अमेरिका में मिसीसिपी व अमेजन नदियों, ब्रिटेन की टेम्स और यूरोप की राइन नदी के संबंध में बने कानून इन नदियों के संरक्षण की दिशा में कारगर रहे हैं। कई देशों में नदियों को ‘जीवित मानव’ का दर्जा प्राप्त है। हाल ही में उत्तराखंड उच्च न्यायालय के पीठ ने गंगा को ‘जीवित मानवीय इकाई’ का कानूनी दर्जा देते हुए एक मामले में गंगा को नोटिस जारी की थी, हालांकि बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने इसे निरस्त कर दिया। इजरायल में जल को राष्ट्रीय धरोहर का दर्जा प्राप्त है। भारत में भी गंगा को राष्ट्रीय धरोहर का दर्जा देने की मांग उठी है। गंगा के लिए प्रस्तावित कानून में गंगा में प्रदूषण रोकने के लिए सिविल और आपराधिक, दोनों तरह के प्रावधान सम्मिलित किए जा रहे हैं। प्रस्तावित कानून के चार मसविदे तैयार हो चुके हैं।  

भले ही हम आज गंगा के लिए कानून बनाने की कोशिशों में लगे हैं, लेकिन पारंपरिक रूप से हमारे  ऋषि-मुनियों द्वारा नदी से व्यवहार संबंधी कानून पहले से ही परिभाषित हैं। गंगा में मल विसर्जन, शौच, मुंह धोना, थूकना, कपड़े धोना, गंदगी बहाना, पूजा के फूल-फल फेंकना, जलक्रीड़ा, विलासिता, गंदे कपडे़फेंकना और जलधारा पर चोट करना, मैले शरीर से गंगा स्नान आदि वर्जित हैं। पर हम इन नियमों की निरंतर अवहेलना करते रहे। यदि इन नियमों का पालन किया गया होता, तो गंगा न तो दूषित होती, न ही किसी नए कानून की आवश्यकता पड़ती।  

वैसे पूरा देश गंगा के प्रश्न पर एकमत है कि इसका संरक्षण आस्था का मुद्दा है। न्यायालय के इस अभिमत के साथ नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल और सरकार की महत्वाकांक्षी ‘नमामि गंगे’परियोजना के कार्य बढ़ रहे हैं, पर काफी धीमी गति से। इसे देखते हुए ही सर्वोच्च न्यायालय ने गंगा की सफाई के समयबद्ध कार्यक्रम पर बल दिया और कहा- ऐसे तो सौ वर्षों में भी गंगा साफ नहीं हो सकेगी। भारत सरकार के महालेखा परीक्षक ने भी गंगा सफाई के क्रियान्वयन में हो रही देरी, निर्धारित धनराशि का उपयोग न हो पाने पर टिप्पणी की है, जिसे देखते हुए सरकार ने अंतरराष्ट्रीय मदद लेने पर विचार शुरू किया है। पर केंद्र सरकार द्वारा आवंटित 20 हजार करोड़ की धनराशि में से अभी सिर्फ 10-15 प्रतिशत का उपयोग किया गया है। गंगा तट के 29 बडे़ शहरों व 50 छोटे नगरों में गंगा के निर्मलीकरण की योजनाएं चलाने और शीघ्र 118 छोटे नगरों में योजनाएं प्रारंभ करने का लक्ष्य रखा गया है, पर जापान से मिली 20 हजार करोड़ रुपये की सहायता में से अब तक केवल 7,272 करोड़ का ही उपयोग किया जा सका है। 

गंगा परियोजना का चार दशकों का लंबा दौर गुजरने के बाद अब सरकार व योजनाकारों ने गंगा के निर्मलीकरण में जन-सहभागिता का महत्व समझा है। अब ‘जन-भागीदारी’ के तरीके से ‘गंगा ईको टास्क फोर्स’ की चार बटालियनें काम में लगाने के लिए 4,000 करोड़ की राशि आवंटित की गई है। गंगा के संरक्षण और इसकी धारा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए गोमुख से गंगा सागर तक लोगों में जागृति के लक्षण दिखने लगे हैं। उत्तर प्रदेश में लोगों ने अपने संसाधनों से ‘गंगा हरीतिका अभियान’ शुरू किया है। बिना किसी सरकारी अनुदान के चलाए जा रहे इस अभियान की शुरुआत अच्छी होने के बावजूद कानपुर चमड़ा उद्योग, ऋषिकेश-हरिद्वार में आश्रमों, होटलों व घरों के सीवर और वाराणसी में अथक प्रयासों के बावजूद 39 सीवर स्रोतों से गंगा धारा में घुल रहा दो करोड,  90 लाख लीटर कचरा इसकी सफलता पर बड़ा प्रश्नचिह्न है। प्रदूषण से डॉल्फिन जैसे जलचरों की मौत या इनके लुप्त होने से जैव विविधता को खतरा है। वाराणसी में करोड़ों की लागत से बनकर ठप पड़े सीवर ट्रीटमेंट प्लांट गंगा ‘निर्मलीकरण योजना’ की विफलता की कहानी कह रहे हैं। ‘गंगा हरीतिका’ अभियान में बिजनौर से बलिया तक 27 जिलों के 1,140 किलोमीटर क्षेत्र में नदी तट और नदी के विकास की योजना में लोगों का आगे आना एक अच्छा संकेत है। हालांकि जरूरत इसे आम आदमी से जोड़ने और जनांदोलन बनाने की है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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