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किताबों और मेलों के बीच युवा पीढ़ी

नए वर्ष के आगमन के साथ पुस्तक मेलों का सिलसिला भी शुरू हो गया है। फिलहाल दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला शुरू हुआ है। अगले दो-तीन महीनों में कोलकाता, मुंबई, बेंगलुरु, चेन्नई, हैदराबाद, पटना और भुवनेश्वर...

किताबों और मेलों के बीच युवा पीढ़ी
हरिवंश चतुर्वेदी डायरेक्टर, बिमटेकSun, 06 Jan 2019 11:25 PM
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नए वर्ष के आगमन के साथ पुस्तक मेलों का सिलसिला भी शुरू हो गया है। फिलहाल दिल्ली में विश्व पुस्तक मेला शुरू हुआ है। अगले दो-तीन महीनों में कोलकाता, मुंबई, बेंगलुरु, चेन्नई, हैदराबाद, पटना और भुवनेश्वर में होने वाले पुस्तक मेलों में भीड़-भाड़ दिखाई देगी। इन पुस्तक मेलों में आने वाली भीड़ से हम यह अंदाज लगा सकते हैं कि समाज में किताबों की लोकप्रियता एक खास-वर्ग तक सीमित है या अब हर तबके के लोगों में इसका रुझान बढ़ रहा है?
पिछले दशकों में इंटरनेट के बेतहाशा विस्तार के बाद यह धारणा बढ़ रही थी कि अब जब ज्ञान तथा मनोरंजन के सभी स्रोत इंटरनेट पर विपुल मात्रा में और मुफ्त में उपलब्ध हैं, तो शायद किताबों की दुनिया लुप्त हो जाएगी। किंडल तथा अन्य ई-बुक्स के आने से यह अंदाज लगाया जाने लगा था कि लोग अब किताबें खरीदना और लाइब्रेरी जाना बंद कर देंगे। किताबें अब स्मार्टफोन और टैबलेट पर पढ़ी जाएंगी। प्यू रिसर्च कंपनी अमेरिका में किताब पढ़ने की आदत के बारे में 2011 से ही सर्वेक्षण करती रही है। 2018 में इसने अमेरिकी नागरिकों से पूछा कि उन्होंने पिछले एक साल में क्या पढ़ा और कैसे पढ़ा? मालूम पड़ा कि 74 प्रतिशत अमेरिकियों ने कोई न कोई किताब पढ़ी थी। छपी हुए किताबें अब भी सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं और 67 प्रतिशत अमेरिकी लोगों ने कम से कम एक छपी हुई किताब पढ़ी थी। इसकी तुलना में ई-बुक्स और ऑडियो बुक्स पढ़ने वाले क्रमश: 26 फीसदी और 18 प्रतिशत थे। पुस्तक पढ़ने की आदत के पीछे अनेक क्षेत्रीय, सांस्कृतिक और आर्थिक कारण होते हैं, किंतु अमेरिका के उदाहरण से संकेत मिलता है कि विकसित समाजों में अभी भी छपी हुई किताबें बाजार में अपने दमखम से खड़ी हैं।
भारतीय युवाओं में किताबें पढ़ने की आदत घट रही है या बढ़ रही है, इस पर विचार करने से पहले यह जानना जरूरी होगा कि आखिर हमारे युवा फुरसत के समय में क्या करते हैं? भारत में 13 से 35 वर्ष के युवाओं की आबादी करीब 47 करोड़ है, जिसमें से 34 करोड़ साक्षर है। इन युवाओं की दिनचर्या को गौर से देखें, तो पाएंगे कि बेरोजगारी के कारण ज्यादातर युवा ‘टाइम पास’ करने में लगे रहते हैं। एक बड़ा वर्ग मोबाइल पर बातचीत करते हुए दिखेगा। चाय और पान की दुकानों पर अक्सर युवाओं के झुंड मिलेंगे, जो गप्पबाजी में व्यस्त होते हैं। बहुत कम ऐसे नौजवान मिलेंगे, जिनके हाथ में कोई किताब, पत्रिका या अखबार हो और वे उसे पढ़ रहे हों। 
पिछले 25 वर्षों में जो तेज आर्थिक बदलाव आए हैं, उसने हमारी समूची सामाचिक संरचना और सांस्कृतिक परिदृश्य को बदल दिया है। छोटे-बड़े शहरों में मॉल-संस्कृति का विस्तार हुआ है। मल्टीप्लेक्स और रेस्तरां तो बढ़ते गए, किंतु पब्लिक लाइबे्ररियां कम होती चली गईं। किताबें बेचने वाली दुकानें बंद होती देखी गईं, किंतु संपन्न वर्ग की पसंदीदा अंग्रेजी किताबों के प्रकाशन व्यवसाय में तेजी आई है। भारतीय समाज के इस संक्रमण काल में चिंता का एक प्रमुख विषय है- युवाओं में पुस्तक पढ़ने की आदत का लगातार कम होते जाना। 
आखिर यह आदत क्यों कम होती जा रही है? नेशनल बुक ट्रस्ट ने इन सभी मुद्दों पर नेशनल यूथ रीडरशिप सर्वेक्षण (एनवाईआरएस) करने का काम वर्ष 2009 में एनसीएईआर को सौंपा था। यह सर्वेक्षण देश के 207 जिलों के 432 गांवों और 199 शहरों के 753 नगरीय वार्डों में संचालित किया गया था और इसमें 38,575 युवाओं के इंटरव्यू लिए गए थे। सर्वेक्षण के दौरान साक्षर युवाओं में सिर्फ 25 प्रतिशत किताब पढ़ने के शौकीन पाए गए। इसका एक बड़ा कारण देश में पब्लिक लाइबे्ररियों की खस्ता हालत है। आजादी के बाद जिला, तहसील, तालुका और गांव के स्तर पर सार्वजनिक पुस्तकालय स्थापित हुए, जो स्थानीय स्तर पर बौद्धिकता, रचनात्मक लेखन, सांस्कृतिक पुनर्जागरण व युवा-पीढ़ी के निर्माण का केंद्र बने। अगर प्रसिद्ध नेताओं, वैज्ञानिकों, लेखकों, शिक्षाविदों और प्रशासकों की जीवनियों को पढ़ा जाए, तो उनमें से ज्यादातर सुबह-शाम इन लाइबे्ररियों में अपना वक्त गुजारा करते थे। आज ऐसी ज्यादातर लाइबे्ररियों की इमारतें जर्जर हो चुकी हैं, किताबें बहुत पुरानी और अपठनीय हो गई हैं और लाइब्रेरी स्टाफ को जिंदा रहने लायक वेतन मिल पाता है। कुछ लोग यह तर्क रख सकते हैं कि वे इंटरनेट और गूगल सर्च से कोई भी सूचना प्राप्त कर सकते हैं, इसलिए अब लाइब्रेरियों की जरूरत नहीं। किसी हद तक उनके तर्क में दम है, किंतु दुनिया ने अभी तक इंटरनेट और गूगल सर्च को किताबों के विकल्प के रूप में पूरी तरह से स्वीकारा नहीं है। 
किताबें पढ़ने की आदत को लोकप्रिय बनाने के लिए जरूरी होगा कि लोगों को भारतीय भाषाओं में ज्ञान-विज्ञान, साहित्य, कला-संस्कृति, समाज विज्ञान, चिकित्सा, इतिहास आदि से जुड़े रोचक विषयों पर प्रकाशित उच्च स्तरीय पुस्तकें सस्ते दाम पर उपलब्ध कराई जाएं। दूसरी ओर हमें अपने पुस्तकालयों की मौजूदा हालत पर भी तुरंत ध्यान देना होगा। 2006 में नियुक्त राष्ट्रीय ज्ञान आयोग (सैम पित्रोदा कमीशन) की सिफारिशों पर राष्ट्रीय लाइब्रेरी मिशन की स्थापना 2012 में हुई, किंतु उसके पास समुचित वित्तीय संसाधन नहीं हैं। राष्ट्रीय लाइबे्ररी मिशन की वेबसाइट पर करीब 5,352 पब्लिक लाइब्रेरी पंजीकृत हैं। इनमें से 919 महाराष्ट्र में, 833 पश्चिम बंगाल में, 527 गुजरात में और 523 केरल में हैं। उत्तर प्रदेश से सिर्फ 46 पब्लिक लाइब्रेरी का पंजीकृत होना चिंता का विषय है। राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन पब्लिक लाइब्रेरियों को मैचिंग ग्रांट देता है। इस फाउंडेशन द्वारा वर्ष 2016 में 22,772 लाइब्रेरियों को 53 करोड़ रुपये का अनुदान दिया गया। लाइब्रेरियों को मिलने वाली यह धनराशि काफी कम है।
युवा पीढ़ी में किताब पढ़ने की आदत को लोकप्रिय बनाने में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका केंद्र और राज्य सरकारों की है, जिसमें ज्यादातर सरकारें असफल रही हैं। अपवाद के रूप में महाराष्ट्र और तमिलनाडु की राज्य सरकारों का नाम लिया जा सकता है, जिन्होंने कानून बनाकर जिला, तहसील और तालुका स्तर पर पब्लिक लाइब्रेरियों के  संचालन की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली है। नतीजतन शिक्षा के क्षेत्र में इन दोनों राज्यों की उपलब्धियां राष्ट्रीय औसत से कहीं ऊपर रही हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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