एअर इंडिया को हम राष्ट्रीय अस्मिता का प्रतीक मानते रहे हैं, पर अब संभवत: वह अपनी आखिरी सांसें गिन रही है। केंद्रीय नागर विमानन मंत्री के बयान से तो कम से कम यही लग रहा है। राज्यसभा में एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा है कि यदि अब भी इसका निजीकरण नहीं किया गया, तो इसे बंद करना पड़ेगा। यह लगातार घाटे में है और 56,000 करोड़ रुपये के निवेश के बाद भी नुकसान से नहीं उबर पा रही है।
मगर सवाल यह है कि निजी हाथों में सौंप देने मात्र से इसे संजीवनी मिल जाएगी? मौजूदा उड्डयन-माहौल में संचालन के लिहाज से शायद ही कोई इसे खरीदने या इसमें निवेश करने को इच्छुक हो। भारत की बड़ी ताकत विमान-यात्रियों की बढ़ती संख्या रही है। मगर पिछले कुछ महीनों से इसमें स्थिरता आई है। फिर, यहां विभिन्न मदों में टैक्स भी ज्यादा है और ईंधन की कीमत भी सबसे अधिक यहीं है। इसलिए एअर इंडिया को चलाने के लिए खरीदना किसी के लिए भी घाटे का सौदा हो सकता है। हां, खरीदारों की नजर इसकी संपत्ति पर जरूर हो सकती है, जो इतनी ज्यादा है कि उसे टुकड़े-टुकड़े में बेचकर अच्छा मुनाफा कमाया जा सकता है।
जाहिर है, अगर एअर इंडिया को निजीकरण की ओर धकेला गया, तो इसे इतिहास बनते देर नहीं लगेगी, जबकि इसकी महत्ता जगजाहिर है। आजादी के बाद हमारी दक्षता और गुणवत्ता का जीता-जागता प्रमाण इसी ने विश्व के सामने पेश किया। दुनिया से हमें जोड़ने में भी इसने बड़ी भूमिका निभाई है। यह विश्व की उन चंद विमान-सेवाओं में शुमार है, जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय पटल पर अपनी मौलिक छाप छोड़ी है। नए जहाजों को शुरू करने वाली सेवाओं में भी इसकी चर्चा की जाती है। महत्वपूर्ण बात यह भी है कि एअर इंडिया सिर्फ एक व्यावसायिक हवाई सेवा नहीं है, बल्कि कूटनीति के मोर्चे पर भी इसने अपनी अहम भूमिका निभाई है। जिस समय अफ्रीका, मध्य-पूर्व (पश्चिम एशिया) आदि देश बहुत कम जगहों से जुड़े थे, तब इसी ने उन सभी से भारत को जोड़कर उनके साथ हमारे रणनीतिक संबंध तेज किए। आज भी प्रधानमंत्री जब विदेश में कहीं इसकी नई सेवा शुरू करने की घोषणा करते हैं, तो तमाम आर्थिक दुश्वारियों के बावजूद उसे शुरू किया जाता है, क्योंकि ऐसी घोषणाएं कूटनीतिक महत्व रखती हैं।
हमारे आस-पास राजनीतिक रूप से जिस तरह का संवेदनशील माहौल है, उसमें सरकार के अधीन हवाई सेवा की जरूरत हमें हमेशा ही रही है। यह हुकूमत के लिए आपातकालीन सेवा के तौर पर भी काम करती है। पिछले कुछ वर्षों में संकटग्रस्त क्षेत्रों से आप्रवासी भारतीयों को बाहर निकालने में इसने जो भूमिका निभाई है, वह सबके सामने है। यह परोक्ष रूप से हमारी अर्थव्यवस्था की मदद ही कर रही है, क्योंकि आप्रवासी भारतीयों से देश में आने वाली रकम अर्थव्यवस्था की अच्छी खुराक मानी जाती है।
बावजूद इसके एअर इंडिया की सेहत लगातार बिगड़ती गई है, तो उसकी वजह उदासीन नेतृत्व है। पांच साल पहले लाल किले के प्राचीर से अपने संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सरकारी एयरलाइंस के मुनाफे में लाने की घोषणा की थी। जाहिर है, इसका श्रेय उनके नेतृत्व को ही दिया जाना था। इसीलिए अब यह सवाल भी जरूरी है कि अचानक हालात इतने प्रतिकूल कैसे हो गए कि निजीकरण ही एकमात्र उपाय दिख रहा है? तमाम सार्वजनिक उद्यम सरकार के अधीन हैं। उनकी सफलता और विफलता, दोनों ही उसकी जिम्मेदारी है। फिर, इस बात को भी नजंरदाज नहीं किया जाना चाहिए कि एयर इंडिया के प्रबंधन को स्वयत्तता देने की मांग कभी स्वीकार ही नहीं की गई।
पिछले कुछ वर्षों में देश की चमकती आर्थिक तस्वीर भी कुछ धुंधली हुई है। तेज विकास करने वाली हमारी अर्थव्यवस्था लड़खड़ाने लगी है। लोगों की क्रय क्षमता कम होती जा रही है। गरीबी बढ़ रही है, और रोजगार के अवसर सिमट रहे हैं। देश के सभी संस्थानों का विकास थम-सा गया है। एअर इंडिया पर भी इनका प्रभाव पड़ा है। इस आर्थिक माहौल को संभालना भी एक रास्ता हो सकता है, पर यहां बिगड़ते आर्थिक माहौल की सजा एक विमानन-सेवा को मिल रही है।
हालांकि इसका यह अर्थ नहीं है कि एअर इंडिया प्रबंधन को दोष-मुक्त कर दिया जाए। इसके प्रबंधन की अपनी खामियां हैं। उसको आईना दिखाना बहुत जरूरी है। आलम यह है कि पिछले दिनों जेट एयरवेज जैसे संस्थान बंद हुए, तो इसका सीधा फायदा एअर इंडिया को उठाना चाहिए था। लेकिन दूसरी तमाम हवाई सेवाओं को तो फायदा हुआ, जबकि एयर इंडिया को नहीं हुआ। इसका नेतृत्व संस्थान को मजबूत बनाने में पूरी तरह से नाकाम रहा। उसने न तो हालात अपने पक्ष में करने की कोई इच्छाशक्ति दिखाई और न ही टीम को मजबूत बनाने पर जोर दिया। सुचारु रूप से संचालन करने संबंधी अपनी जिम्मेदारियों से भी वह मुंह मोड़े रहा।
अपने यहां पिछले कुछ वर्षों में उन सरकारी उद्यमों को बेचने की प्रवृत्ति दिखी है, जिनके पास संपत्ति ज्यादा है। संभव है, इसी राह पर चलते हुए एअर इंडिया को भी कुर्बान कर दिया जाए। मगर एअर इंडिया जैसे संस्थानों का बंद होना राष्ट्रीय अस्मिता के साथ-साथ अर्थव्यवस्था के लिए भी सुखद नहीं है। इससे हमारी अंतरराष्ट्रीय साख काफी प्रभावित होगी। ऐसे वक्त में, जब काफी प्रयासों के बाद भी अपने यहां विदेशी निवेशक नहीं आ रहे हैं और विकास दर नीचे की ओर जा रही है, एअर इंडिया जैसे चमकते सितारे का अस्त होना नुकसानदेह साबित हो सकता है। एअर इंडिया पर फैसला लेने से पहले लाभ-हानि से आगे जाकर कई चीजों पर विचार जरूरी है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
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कोई क्यों खरीदेगा एअर इंडिया
हर्षवद्र्धन पूर्व प्रबंध निदेशक वायुदूत
- Last updated: Sat, 30 Nov 2019 12:04 AM IST

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