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क्या उनका रास्ता सबसे जुदा होगा

अपनी लोकप्रिय तमिल फिल्म पादयप्पा  में रजनीकांत पादयप्पा नाम के एक शहरी इंजीनियर के किरदार में हैं, जो अपने गृहनगर आया हुुआ है। वहां पादयप्पा की एक के बाद एक कई सारी भिड़ंत अपनी बेहद अहंकारी...

क्या उनका रास्ता सबसे जुदा होगा
एस श्रीनिवासन वरिष्ठ पत्रकारWed, 27 Nov 2019 11:34 PM
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अपनी लोकप्रिय तमिल फिल्म पादयप्पा  में रजनीकांत पादयप्पा नाम के एक शहरी इंजीनियर के किरदार में हैं, जो अपने गृहनगर आया हुुआ है। वहां पादयप्पा की एक के बाद एक कई सारी भिड़ंत अपनी बेहद अहंकारी ममेरी बहन नीलांबरी से होती है, जो हाल ही में अमेरिका से लौटी है। नीलांबरी पादयप्पा को चाहती है और उसे अपने प्रेमजाल में फंसाने के कई जतन करती है, मगर पादयप्पा उसके प्रेम-प्रस्ताव को ठुुकरा देता है। इन दोनों की भिडं़त अक्सर पादयप्पा के इस डायलॉग के साथ खत्म होती है कि ‘मेरा रास्ता सबसे जुदा है।’
अपनी असली जिंदगी में रजनीकांत कहीं अधिक विनम्र और संयत रहे हैं। मगर जब सियासत की बात आती है, तो अपनी फिल्मों की तरह वह बेहद गूढ़ और नाटकीय हो जाते हैं। रुपहले परदे के इस महानायक ने साल 2016 के आखिरी दिन तमिलनाडु की राजनीति में उतरने का एलान किया था। इसके करीब एक साल बाद उन्होंने अपनी राजनीतिक विचारधारा को लेकर कुछ और महत्वपूर्ण घोषणाएं कीं। उन घोषणाओं ने काफी सारे लोगों को भ्रमित कर दिया। रजनीकांत ने तब कहा था कि वह वामपंथ और दक्षिणपंथ जैसी राजनीति में यकीन नहीं करते और राज्य की जनता की सेवा अध्यात्मवाद के जरिए करेंगे। राजनीतिक विश्लेषक इस बात की बाल की खाल निकाल ही रहे थे कि एक साल बाद रजनीकांत की राजनीति क्या होगी, 2019 के आम चुनाव में डीएमके ने कांग्रेस और क्षेत्रीय पार्टियों के साथ गठबंधन कर राज्य की 39 में से 38 सीटें जीत लीं। रजनीकांत लोकसभा चुनाव के मैदान में नहीं उतरे, लेकिन उन्होंने यह संकेत जरूर दिया कि 2021 का विधानसभा चुनाव लड़ेंगे। साल 2014 के आम चुनाव में तमिलनाडु में कोई भी लहर न पैदा कर सकने वाली भाजपा को 2019 के आम चुनाव में भी एक बार फिर मायूस होना पड़ा।
इसीलिए भाजपा तमिलनाडु में एक बड़े नेता की बेसब्री से तलाश कर रही है। इस उम्मीद से कि रजनीकांत पार्टी में आ जाएंगे, वह अपने प्रदेश अध्यक्ष टी आई सुंदरराजन को पहले ही पड़ोसी प्रांत में गवर्नर बनाकर भेज चुकी है। आरएसएस विचारक एस गुरुमूर्ति लगातार रजनीकांत को समझाने में जुटे हैं कि वह भाजपा में शामिल हो जाएं। रजनीकांत शुरू से ही भाजपा की पहली पसंद रहे हैं। उनमें अपेक्षित करिश्मा भी है और धार्मिक बहुसंख्यकवाद पर वह भाजपा की सोच के करीब खड़े दिखते हैं। लेकिन भाजपा-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जिस हिंदुत्व की राजनीति करते हैं, उसे आगे बढ़ाते हैं, उसमें और रजनीकांत की सोच में एक खास अंतर है। उनके समर्थकों का कहना है कि रजनीकांत भले ही हिंदुत्व के प्रति आकर्षण रखते हैं, और उनकी आस्था गुरुओं व मंदिरों में है, लेकिन वह राजनीति में धर्म को घसीटे जाने के कतई इच्छुक नहीं। बल्कि वह धर्म के आध्यात्मिक पहलू को आगे करने के प्रति ज्यादा उत्सुक हैं।
अपनी एक चेन्नई यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रजनीकांत से मुलाकात की थी। गोवा में आयोजित अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में उन्हें ‘लाइफटाइम अचीवमेंट अवॉर्र्ड’ से सम्मानित किया गया था, इससे भी उनके प्रति भाजपा सरकार का अनुराग दिखा था। ऐसा नहीं कि रजनीकांत ने इन प्रेम-संदेशों का कोई जवाब नहीं दिया। उन्होंने बालाकोट सर्जिकल स्ट्राइक का स्वागत किया। जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के एक दिन बाद चेन्नई में आयोजित कार्यक्रम में उन्होंने न सिर्फ सरकार के इस कदम की सराहना की, बल्कि उन्होंने नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी को भगवान कृष्ण-अर्जुन की जोड़ी तक बता डाला। गृह मंत्री अमित शाह भी उस कार्यक्रम में मौजूद थे।
लेकिन इन सबका यह अर्थ नहीं है कि वह हिंदुत्व की राजनीति करने या भाजपा से गलबहियां करने को तैयार बैठे हैं। अभी हाल ही में बिना किसी का नाम लिए उन्होंने कहा कि कुछ लोग उन्हें भगवा रंग में रंगने की कोशिश कर रहे हैं, मगर वह उनके दांव में नहीं फंसने वाले। यह सही है कि रजनीकांत का झुकाव भाजपा की तरफ रहा है, लेकिन वह खुल्लम-खुल्ला उससे गठजोड़ करने या उसमें शामिल होने में असहजता महसूस करते हैं, क्योंकि वह शायद तमिलनाडु में भगवा पार्टी की सीमाओं को बखूबी जानते हैं। एक वैचारिक धारा है, जो यह मानती है कि जे जयललिता और एम करुणानिधि के निधन के बाद तमिलनाडु की राजनीति में एक शून्य की स्थिति है। इन दोनों दिग्गजों ने दशकों तक द्रमुक और अन्नाद्रमुक के जरिए राज्य में अपना दबदबा कायम रखा। 
तमिलनाडु की दोनों प्रमुख पार्टियां- अन्नाद्रमुक और द्रमुक की विचारधारा द्रविड़ दर्शन पर आधारित रही हैं। भाजपा मानती है कि यह राजनीति अपना काम कर चुकी और राज्य की जनता बदलाव चाहती है और यहां हिंदुत्व की राजनीति के लिए संभावना है। पर वह उस शून्य को भरने का कोई फॉर्मूला गढ़ने में सक्षम नहीं हो पा रही।
रजनीकांत ने भी हाल ही में इसी तरह के विचार प्रकट करते हुए कहा है कि तमिलनाडु की राजनीति में एक बड़ा खालीपन आ गया है।सिनेमा की दुनिया में कामयाबी के साथ साठ साल पूरे करने पर कमल हासन को सम्मानित करने के लिए आयोजित कार्यक्रम में शामिल होकर उन्होंने एक और संकेत दिया। उन्होंने कहा कि तमिलनाडु की राजनीति ने अतीत में भी कई अचंभे देखे हैं, मौजूदा दौर में भी वह देख ही रही है और भविष्य में भी देखेगी। बहरहाल, रजनीकांत इस समय राजनीति में उतरने के काफी करीब दिख रहे हैं, लेकिन उन्होंने अब भी ऐसा कोई ठोस संकेत नहीं दिया है कि उनके पास इसके लिए क्या योजना है। उनके बारे में ऐसी दबी चर्चाएं जरूर हैं कि जिलों में वह अपने फैंस क्लब को सक्रिय करने में जुटे हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर इसके बहुत थोड़े प्रमाण मिलते हैं। एक पेशेवर राजनेता के उलट वह कुछ-कुछ अंतराल पर विभिन्न मुद्दों पर अपने बयान देते हैं, जबकि पूर्णकालिक राजेनताओं से तमाम ज्वलंत मुद्दों पर प्रेस रोज सवाल पूछता है।
फिल्मों की तरह राज्य की राजनीति में भी रजनीकांत के चुटीले संवादों ने अपनी जगह बनाई है। जब कभी वह ऐसे बयान देते हैं, तो उनके प्रशंसक और स्थानीय टीवी चैनल उन पर लहालोट हो उठते हैं। नीलांबरी की तरह भाजपा उन्हें रिझाने में लगातार जुटी है। लेकिन पादयप्पा की अपनी भूमिका की तरह रजनीकांत अब तक यही संकेत देते प्रतीत हो रहे हैं- उनका रास्ता सबसे जुदा होगा। तमिलनाडु टकटकी लगाए इंतजार में है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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