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आगे बढ़ने के दौर में ठहरे हुए लोग

आगे बढ़ते रहने को लोकतंत्र और विकास का मानक माना जाता है। यह धारणा दरअसल अमेरिकी दिग्गज लेखक होरेटियो अल्जर के नैतिक मिथकों में एक रही है, जिनका यह मानना था कि किसी भी सामाजिक-आर्थिक माहौल में कोई...

आगे बढ़ने के दौर में ठहरे हुए लोग
शिव विश्वनाथन प्रोफेसर, जिंदल ग्लोबल लॉ स्कूलFri, 26 Oct 2018 01:03 AM
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आगे बढ़ते रहने को लोकतंत्र और विकास का मानक माना जाता है। यह धारणा दरअसल अमेरिकी दिग्गज लेखक होरेटियो अल्जर के नैतिक मिथकों में एक रही है, जिनका यह मानना था कि किसी भी सामाजिक-आर्थिक माहौल में कोई लड़का कड़ी मेहनत और थोड़ी किस्मत के बल पर अमीर और रसूखदार बन सकता है। यहां तक कि बेंजामिन फ्रैंकलिन की सोच भी समाज का स्तर ऊंचा उठाने के बहुमूल्य सुझाव देती है। पहले बेशक किस्से-कहानियों के जरिए प्रगति की बातें 

कही गई हों, मगर अब यह बाकायदा नियमों व सिद्धांतों पर कसी जाने वाली कवायद है। आज इस दिशा में 
तेजी से काम हो रहा है कि सुखद बदलाव का प्रामाणिक मानक आखिर है क्या? इस बीच, सैम आशेर, पॉल नोवोसाद और चार्ली राफकिन ने एक अध्ययन किया है, जो प्रगति यानी आगे बढ़ने को लेकर एक नई रोशनी दिखाता है। यह शोध अंतर-पीढ़ीगत यानी दो पीढ़ियों के बीच होने वाली प्रगति पर आधारित है और इसका निष्कर्ष गंभीर चर्चा की मांग करता है। हालांकि सरोकारों से इतर देखें, तो आशेर के इस अध्ययन में राजनीतिक अर्थ भी ढूंढ़े जा सकते हैं। 
बहरहाल, यह अध्ययन आय पर नहीं, बल्कि शैक्षणिक तरक्की पर किया गया है। इसके तीन निष्कर्षों पर निश्चित रूप से चर्चा होनी चाहिए। पहला निष्कर्ष यह है कि मुसलमानों और अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति को यदि कुल आबादी से अलग कर दिया जाए, तो शेष लोगों के बढ़ते सामाजिक स्तर की तुलना खुशी-खुशी अमेरिका से की जा सकती है। दूसरा, अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति का सामाजिक स्तर उल्लेखनीय रूप से ऊपर उठा है। इनमें करीब-करीब जितने भी बदलाव हुए हैं, वे सभी राजनीतिक आंदोलन की उपज हैं। हालांकि ऊपरी वर्ग इससे प्रभावित नहीं हुआ, क्योंकि उसने सकारात्मक आंदोलन के खिलाफ रुख अपनाया। लेकिन इस अध्ययन का जो निष्कर्ष सदमा पहुंचाने वाला है, वह तीसरा है। अध्ययन बताता है कि मुसलमानों में अंतर-पीढ़ीगत बदलाव नगण्य रहा है। ऐसा लगता है कि चुनावी लाभ के लिए लोकतंत्र ने मुसलमानों के हित में उतना काम नहीं किया, जितना अन्य पिछड़े वर्गों और अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजातियों के लिए किया गया है। अवसरों की बात करें, तो न तो उदारीकरण से और न ही लोकतंत्र से मुसलमानों को कुछ खास हासिल हुआ है। आशेर का अध्ययन इसीलिए शैक्षणिक प्रगति पर आधारित है, क्योंकि आर्थिकी का आंकड़ा ढूंढ़ना एक दुरूह काम है। शिक्षा के क्षेत्र की प्रगति आय में हुए तरक्की की तुलना में कहीं अधिक सटीक तरीके से मापी जा सकती है। मौजूदा आंकड़ों के विश्लेषण से यह भी पता चलता है कि ग्रामीण क्षेत्रों की तुलना में शहरी क्षेत्रों में कहीं अधिक सकारात्मक बदलाव हुए हैं। शहरों और गांवों का फासला ठीक उतना ही है, जितना अंतर ऊपरी जातियों और अनुसूचित जातियों के बीच है। इतना ही नहीं, दक्षिण की तुलना में यह अंतर उत्तर में अधिक है।
अध्ययन बताता है कि ऐतिहासिक और राजनीतिक रूप से मुसलमान आज भी हाशिये पर हैं। यह इस बात पर जोर देता है कि समुदाय के इर्द-गिर्द बुने जाने वाले राजनीतिक आंदोलन स्पष्ट रूप से मुसलमानों के खिलाफ काम करते हैं। इनमें खुलकर भेदभाव किया जाता है। इकोनॉमिक ऐंड पॉलिटिकल वीकली में प्रकाशित एक अध्ययन तो यह भी बताता है कि बांधों के बाद जिस चीज के कारण लोगों का सबसे अधिक विस्थापन होता है, वह दंगा है। विशेषकर गुजरात दंगे के अध्ययन से पता चलता है कि बांधों के पीड़ित तो वापस लौट आते हैं, पर दंगों के विस्थापित नहीं। हिंसा न सिर्फ पीड़ितों की उम्मीदें तोड़ती है, बल्कि उन्हें धन-संचय से भी रोकती है, जबकि यह प्रगति की जरूरी शर्त है। 
इस हिंसा के खिलाफ जितना काम करने की जरूरत है, उतनी ही प्रासंगिक बेहतर सामाजिक नीतियां बनाना भी है। शोधकर्ताओं के समूह ने अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति के तबके के लोगों का भी अध्ययन किया है। आशेर बताते हैं कि अपने अध्ययन में वह 
कोई ऐसी नीति नहीं ढूंढ़ पाए, जो मुसलमानों में 
सुधार को लेकर असरदार साबित हुई हो। जाहिर है, यह एक ऐसा मुद्दा है, जिसे सामाजिक विश्लेषकों को पहचानना चाहिए और इस पर गंभीर चर्चा करनी चाहिए। सच्चाई यही जान पड़ती है कि भारत में मुसलमान यदि बदलाव की उलटी दौड़ नहीं लगा रहे हैं, तो कम से कम ठहर जरूर गए हैं।
हमारे यहां शिक्षा की जो प्रकृति है, वह भी समस्या पैदा कर रही होगी। अनुसूचित जाति/ अनुसूचित जनजाति समूह के बच्चे मुख्यधारा के धर्मनिरपेक्ष स्कूलों में पढ़ने के लिए भेजे जाते हैं, जो समाज में कहीं अधिक संख्या में मौजूद हैं, जबकि मदरसे की शिक्षा संकीर्ण और आमतौर पर रूढ़िवादी होती है। शिक्षा और आगे बढ़ने की मौजूदा जरूरत को भी वह मामूली रूप से पूरा कर पाती है। इसके कारणों में हमें इस सच को भी जोड़ना 
होगा कि रोटी, कपड़ा और मकान से जुड़ी मौजूदा शासन की नीतियां एक तरह से मजहबी अल्पसंख्यकों के लिए अलाभकारी बन गई हैं। अंतर-पीढ़ीगत भावना के संदर्भ में देखें, तो मुसलमानों की हैसियत बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं दिखाती। ऐसे में, महिलाओं की स्थिति तो और 
भी निराशाजनक होनी चाहिए। यह तस्वीर स्पष्ट करती है कि मुसलमानों की शिक्षा-व्यवस्था को दुरुस्त करने की नीति और इसे राजनीतिक अर्थव्यवस्था से जोड़ने 
की नीति, दोनों का अभाव है। एक सोच के रूप में लोकतंत्र मुसलमानों के मामले में विफल साबित हुआ है। और यही मेरी समझ में भारतीय लोकतंत्र के बड़े मानदंडों में एक है। जाहिर है, यह वक्त लोकतंत्र पर गंभीर विमर्श करने का है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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