स्मृति में बस गई एक छवि
बॉलीवुड हमारी चेतना में इस कदर घुसा, पैठा है कि सौ साल के उसके इतिहास के बहुत से बिंब हमारी स्मृतियों का अभिन्न अंग बन चुके हैं। ऐसा ही एक दृश्य चित्र है, जिसमें ‘मदर इंडियास नरगिस बंदूक उठाती...
बॉलीवुड हमारी चेतना में इस कदर घुसा, पैठा है कि सौ साल के उसके इतिहास के बहुत से बिंब हमारी स्मृतियों का अभिन्न अंग बन चुके हैं। ऐसा ही एक दृश्य चित्र है, जिसमें ‘मदर इंडियास नरगिस बंदूक उठाती हैं, सामने डकैत बन चुके बेटे की पीठ उभरती है, जो घोड़े पर एक लड़की को अपहरण कर लिए जा रहा है। फ्रेम में सिर्फ नरगिस का चेहरा है, जिन्हें याद है कि वह मदर इंडिया हैं और उनके सामने से कोई अपराधी किसी लड़की का अपहरण कर नहीं निकल सकता। उनकी दुनाली बंदूक दो बार गरजती है और घोड़े से बेटा सुनील दत्त छटपटा कर नीचे गिरते हैं, जिनकी आंखों से अविश्वास साफ झलक रहा है- कोई मां कैसे अपने बेटे को मार सकती है? आज जब फिल्मों से अधिक सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों से ज्यादा वास्तविक कहानियां सचित्र हम तक पहुंच रही हैं, तब कोई आश्चर्य नहीं कि ऐसे विजुअल्स भी ढेरों की तादाद में हमें उपलब्ध हो रहे हैं, जो देर तक हमारा साथ नहीं छोड़ते।
न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च शहर में 15 मार्च को जब एक पागल हत्यारा अपने सिर के हेलमेट पर कैमरा बांधे नमाजियों को मारने में जुटा था, तब ऐसे ही कुछ दृश्य चित्र आंखों देखे हाल की तरह दुनिया तक पहुंच रहे थे। उसके चेहरे पर जो भाव थे, वे शीतल क्रूरता से निर्मित होते हैं। जब मुस्कराती हुई उसकी छवि कहती है कि चलो, पार्टी शुरू करते हैं और फिर फेसबुक पर शांत शिकारी और चीखते-चिल्लाते, बचने के लिए भागते शिकार आने शुरू होते हैं, तो ये दृश्य चित्र लंबे समय के लिए आपकी स्मृति का हिस्सा बन जाते हैं। पर यह ऐसी स्मृति है, जिससे आप जल्द ही छुटकारा पाना चाहेंगे। इसी हत्याकांड से जुड़े एक दूसरे पात्र के विजुअल कुछ घंटों में ही विश्व चेतना पर छा जाते हैं, जिन्हें हम हमेशा अपने साथ रखना चाहेंगे। सभ्यताओं के संघर्ष, जेहादी इस्लाम और इस्लामोफोबिया जैसे विमर्शों के युग में इन बिंबों से एक भिन्न दुनिया बनती है। यह देखना आश्वस्ति कारक था कि धर्मों, नस्लों और रंगों में बंटी दुनिया के हर हिस्से से इस पात्र को समर्थन और प्रशंसा मिली।
घटना के फौरन बाद न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न का बयान आया कि यह वह न्यूजीलैंड नहीं है, जिसे वह और उनके जैसे तमाम लोग जानते-पहचानते हैं। इस बयान के साथ अगले कुछ दिनों तक जैसिंडा की जो छवियां अखबारों और परदों पर आईं, वे वर्षों तक घृणा के विरुद्ध मनुष्य जाति के संघर्ष का हिस्सा बनी रहेंगी। अपने सिर पर दुपट्टा ओढ़े मृतकों के परिजनों को सांत्वना देते रो पड़ने वाली छवि पिकासो की महान पेंटिंग ‘विलाप करती औरत’ की याद दिलाती है। फर्क सिर्फ इतना है कि चटख रंगों वाली उस पेंटिंग में एक अमूर्त चेहरा है और यहां एक जानी-पहचानी छवि है। कला समीक्षक मानते हैं कि पिकासो की अकेली विलाप करती औरत में तमाम औरतें हैं, जो विश्वयुद्धों में अपने प्रियजनों को खोने का शोक मना रही हैं। यहां भी रोती हुई जैसिंडा अकेली नहीं हैं, उनमें दुनिया भर की अनगिनत स्त्रियां समाहित हैं और ये सभी उस पगलाई हिंसा का मातम कर रही हैं, जो गाहे-बगाहे उनके प्रियजनों को लील रही है। जिस तरह का आचरण जैसिंडा ने संकट की इस घड़ी में किया, उसने एक झटके में उन्हें दुनिया के महान नेताओं की कतार में खड़ा कर दिया है।
हालांकि प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न ने हत्यारे ब्रेंटन टैरंट का नाम यह कहते हुए नहीं लिया कि इससे प्रसिद्धि पाने का उसका मकसद पूरा हो जाएगा, पर अब तो सोशल मीडिया से लेकर सारे अखबारों और चैनलों पर उसे नाम से ही संबोधित किया जा रहा है। इसे छिपाने का कोई औचित्य नहीं है। एक बात स्पष्ट है कि न्यूजीलैंड, यूरोप और अमेरिका की गोरी ईसाई आबादी के विशाल बहुमत ने इस स्व-घोषित दक्षिणपंथी नस्लवादी के लिए कोई सम्मान नहीं दिखाया। हर जगह हाथों में मोमबत्तियां लिए लोगों के समूह उमड़े और उन्होंने मृतकों के परिजनों के साथ हमदर्दी का इजहार किया। यह देखना भी कम दिलचस्प नहीं था कि पारंपरिक रूप से किसी भी तरह के परदे के खिलाफ पश्चिम की महिलाओं ने कई जगह सिर्फ एकजुटता प्रदर्शित करने के लिए सिर पर चादर ओढ़ी।
हमारे लिए इस घटना के क्या निहितार्थ हो सकते हैं? एक बात स्पष्ट है कि न्यूजीलैंड की सत्ता पार्टी को पीड़ितों के साथ खड़े होने में कोई चुनावी फायदा नहीं है। मुसलमान न्यूजीलैंड की आबादी में एक प्रतिशत के लगभग हैं, इसलिए चुनावी गणित में उनका कोई दखल नहीं हो सकता। अगर मुख्यधारा के सभी दलों ने हिंसा की निंदा की और वे पीड़ित अल्पसंख्यकों के साथ खड़े दिखे, तो इसके पीछे उनकी यह समझ थी कि उदारता और सहिष्णुता ही उनके समाज को आगे ले जाएगी। क्या भारत के नेताओं से इसी परिपक्वता की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए? धर्मनिरपेक्षता फौरी कामयाबी हासिल करने की रणनीति नहीं, बल्कि जीवन मूल्य होनी चाहिए। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं है।
एक तरफ, जब कुछ राजनीतिक दलों की समझ बन रही है कि सबसे बड़े अल्पसंख्यक समूह के वोटों के बिना भी वे सत्ता में आ सकते हैं, तो वहीं दूसरी तरफ धर्मनिरपेक्षता की दुकान चलाने वाले एक गैर-मुस्लिम बुद्धिजीवी ने मुंबई से घटना के दूसरे ही दिन बयान जारी किया कि चूंकि मरने वाले मुसलमान थे, इसलिए उनके लिए विश्व समुदाय ने कहीं मोमबत्तियां नहीं जलाईं। इससे उनके मुस्लिम प्रशंसकों में उनकी टीआरपी जरूर बढ़ी, पर जैसिंडा और उन जैसे अनगिनत ईसाइयों का अपमान भी हुआ, जो दुख की घड़ी में मुसलमानों के साथ थे और सभ्यताओं के संघर्ष को नकार रहे थे।
पाकिस्तान के कट्टरपंथी इस्लामी विश्लेषक ओरिया मकबूल जान ने तो पश्चिम के ईसाइयों की हमदर्दी को ढकोसला करार देते हुए उनके खिलाफ जेहाद को मुसलमानों के लिए अकेला विकल्प घोषित कर दिया। पर मुंबई से इंडियन मुस्लिम फॉर सेकुलर डेमोक्रेसी नामक संगठन के फीरोज मीठीबोरवाला ने अपने मुस्लिम साथियों से सवाल किया कि सीरिया, मिस्र या नाइजीरिया जैसे मुल्कों में ईसाइयों के कत्लेआम के खिलाफ दुनिया भर के मुसलमान वैसी प्रतिक्रिया क्यों नहीं व्यक्त करते, जिस तरह न्यूजीलैंड और पश्चिम के ईसाइयों ने क्राइस्टचर्च की घटना के बाद की थी? यह समय इस पर गंभीरता से सोचने का है कि धर्मनिरपेक्षता किस तरह एक जीवन मूल्य बन सकती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)