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कारगिल युद्ध की विजय गाथा

छह मई, 1999 को आर्मी चीफ जनरल वीपी मलिक के साथ नल-बीकानेर हवाई अड्डे से अग्रिम चौकियों का वायु सर्वेक्षण करने के लिए हेलीकॉप्टर में चढ़ा ही था कि एक अधिकारी भागता हुआ मेरे पास आया। उसने कहा कि वापसी...

कारगिल युद्ध की विजय गाथा
मोहन भंडारी लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड)Fri, 26 Jul 2019 12:05 AM
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छह मई, 1999 को आर्मी चीफ जनरल वीपी मलिक के साथ नल-बीकानेर हवाई अड्डे से अग्रिम चौकियों का वायु सर्वेक्षण करने के लिए हेलीकॉप्टर में चढ़ा ही था कि एक अधिकारी भागता हुआ मेरे पास आया। उसने कहा कि वापसी में दिल्ली पहुंचकर तुरंत चीफ को ऑपरेशंस रूम लाना है। वक्त की नजाकत और इस खबर के महत्व को समझते हुए तुरंत मैंने चीफ को अवगत कराया। जब हम पालम टेक्निकल एरिया पहुंचे, तो शाम के सात बज चुके थे। हम सीधे साउथ ब्लॉक स्थित मिलिट्री ऑप्स रूम के लिए रवाना हो गए। वहां डायरेक्टर जनरल मिलिट्री ऑपरेशंस, यानी डीजीएमओ लेफ्टिनेंट जनरल निर्मल विज हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। ऑप्स रूम में चीफ को  4 मई, 1999 को बटालिक कारगिल पहाड़ियों पर 13,000 फीट की ऊंचाई पर तीन-चार काले रंग के ड्रेस पहने और रेडियो सेट साथ लिए लोगों की हरकत की सूचना दी गई। यह आश्चर्यजनक घटना थी। जब पाकिस्तानी डीजीएमओ लेफ्टिनेंट जनरल तौकीर जिया को इस विषय में बताया गया, तो उन्होंने ऐसी किसी भी घटना की जानकारी से इनकार किया। धीरे-धीरे यह घुसपैठ पूरे 130 किलोमीटर के विस्तार में मश्को, द्रास, काकसार, कारगिल, बटालिक, चोरबतला आदि इलाकों में फैल गई। 
हमारे सूत्रों ने अब यह पता कर लिया था कि ये पाकिस्तानी फौज के सैनिक थे। पाकिस्तान के स्पेशल सर्विस ग्रुप की दो कंपनियां भी उनके साथ तैनात थीं। इनको तोपखाने और हवाई जहाजों से भी मदद दी जा रही थी। मुशर्रफ की झूठ का भंडाफोड़ तब हुआ, जब उनकी चीन से अपने चीफ ऑफ जनरल स्टाफ, रावलपिंडी की टेलीफोनिक वार्ता को हमने पकड़ लिया। पूरे विश्व को इस वार्ता को सुनाया गया। पाकिस्तान आर्मी का मकसद श्रीनगर-लेह रोड को काटना था, ताकि लेह और सियाचिन भी कट जाएं और लाइन ऑफ कंट्रोल को बदला जाए। यह दर्शाया जाए कि घुसपैठ करने वाले मुजाहिदीन हैं। इस पाकिस्तानी ऑपरेशन के पीछे मुशर्रफ का सीधा हाथ था। इसको इतना गुप्त रखा गया था कि पाकिस्तान के नेवल चीफ और एयर चीफ को भी कानोंकान खबर नहीं हुई। प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को भी इसके बारे में कुछ पता नहीं था। 
मुझे यह कहने में बिल्कुल भी हिचकिचाहट नहीं कि पाकिस्तानी घुसपैठ भारत के सूचना तंत्र की भारी विफलता थी। इस बात को भारत के इंटेलिजेंस चीफ ने ऑप्स रूम में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सामने स्वीकार किया था। मुझे वाजपेयी के ये शब्द याद हैं- बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि लेय।  उनको पाकिस्तान द्वारा धोखा देने का बहुत दुख था। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में पाकिस्तानी घुसपैठियों को खत्म करने का हुक्म दिया। नवाज शरीफ से वाजपेयी ने जब इस तरह पीठ में छुरा घोंपने की बात टेलीफोन पर कही, तो मियां साहब ने इस घुसपैठ के बारे में अनभिज्ञता जाहिर की। 
अब हम पूरी तरह से अपनी रणनीति बनाने में जुट गए थे। तय किया गया कि हम लाइन ऑफ कंट्रोल को पार नहीं करेंगे। पाकिस्तान के साथ कूटनीतिक संबंध बने हुए  थे। पूरे विश्व ने हमारे इस निर्णय को सराहा। वास्तव में, यह हमारे संस्कारों, परंपराओं और सिद्धांतों की जीत थी। यह पूरा युद्ध 18,000 फीट की ऊंचाइयों तक लड़ा गया। भारतीय सैनिक प्वॉइंट 5140, तोलोलिंग, टाइगर हिल, प्वाइंट 2875, स्ताग्बा और खालुबार पहाड़ियों इत्यादि पर कब्जा करने की काबिलियत रखते थे। पूरे विश्व में इस तरह के तुंग पर्वतों को फतह करने का यह एक अविस्मरणीय इतिहास है। भारतीय हवाई सेना ने 23,000 फीट की ऊंचाई से दुश्मनों के बंकरों को नेस्तनाबूद कर अपने कौशल का परिचय दिया।
तोलोलिंग चोटी 13 जून, 1999 को फतह की गई। पूरे कारगिल युद्ध का यह निर्णयात्मक केंद्र बिंदु था। यहां से पाकिस्तानी सैनिकों का भागना प्रारंभ हुआ। टाइगर हिल पर 4 जुलाई, 1999 को कब्जा किया गया। अब पूरी पाकिस्तानी सेना सब कुछ छोड़कर पीछे भागने लगी। मुशर्रफ के कहने पर नवाज शरीफ अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन से मिलने अमेरिका पहुंचे। क्लिंटन ने 10 मिनट का समय एक होटल में दिया और लाइन ऑफ कंट्रोल का अतिक्रमण करने के लिए उन्हें दुत्कारा। उन्होंने पाकिस्तानी सेना को पीछे हटाने को कहा। अपना मुंह लेकर दोनों वापस लौटे। यह शर्म की बात थी कि पाकिस्तानी सेना अपने घायलों और 200 से अधिक मृत सैनिकों को पीछे छोड़ भाग खड़ी हुई। भारत ने अंतरराष्ट्रीय रेडक्रॉस के सामने युद्धबंदियों को वापस किया।  पाकिस्तानी सैनिकों के शवों को धर्मानुसार और फौजी सम्मान के साथ दफन किया गया। विश्व में संभवत: ऐसी मिसाल कम ही मिलती है। 
9 जुलाई को हमारे प्रधानमंत्री ने नवाज शरीफ से टेलीफोन पर बात की और कहा कि अब तुम्हारा खेल खत्म है, इसलिए अपने डीजीएमओ को अटारी बॉर्डर पर भेजो, ताकि भारतीय डीजीएमओ उन्हें निर्देश दे सकें।’ 11 जुलाई को मैं अपने डीजीएमओ के साथ अटारी बॉर्डर पहुंचा। वहां लेफ्टिनेंट जनरल तौकीर जिया हमारा इंतजार कर रहे थे। मैं उन्हें जानता था, क्योंकि सियाचिन वार्ता के दौरान उनसे मिल चुका था। वह मेरे पास आए। टोपी अस्त-व्यस्त और  सिगरेट फूंकते हुए। मैंने पूछा- कैसे हैं? उनका उत्तर था- मार खाने को मुझे भेज दिया है। 
हमने उन्हें बताया कि आपको पूरी शिकस्त मिल चुकी है, इसलिए अब अपने तमाम सैनिकों को लाइन ऑफ कंट्रोल से दो किलोमीटर पीछे जाने का हुक्म दें। यह भी सुनिश्चित करें कि वापस जाते वक्त कोई भी माइंस या गतिरोध न हो। यह कार्रवाई अगले 72 घंटों में पूरी होनी चाहिए। हारे हुए जनरल की तरह तौकीर जिया ने सिर नहीं उठाया और अपनी नोट बुक में लिखते रहे। भोजन के उपरांत वह बॉर्डर पार करके अपने मुल्क में प्रवेश कर गए। हारे हुए सैनिक तो वापस गए, पर उनकी कुछ छोटी-छोटी टुकड़ियां लगातार हमारे ऊपर फायर करती रहीं। अब यह तो विश्वासघात था। पूरी शक्ति और भयंकर गोलाबारी से इन दुश्मनों की टुकड़ियों को बर्बाद किया गया। हमारी फौज ने 24 जुलाई की शाम तक लाइन ऑफ कंट्रोल पर पूरा नियंत्रण कर लिया। 25 जुलाई को इस विजय की सूचना प्रधानमंत्री को दी गई और उस शाम उन्होंने एकतरफा युद्ध-विराम की घोषणा कर दी। जाहिर है, अगर पाकिस्तान फौज धूर्तता भरी चालें नहीं चलतीं, तो इस विजय की घोषणा 10 दिन पहले ही हो जाती।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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