कितनी दूर तक जाएगी यह एकता
हाल के वर्षों में किसी शपथ ग्रहण समारोह की इतनी चर्चा शायद ही हुई होगी। जनता दल-सेकुलर के नेता एचडी कुमारस्वामी बुधवार को मुख्यमंत्री पद की शपथ जरूर ले रहे थे, लेकिन सबकी नजरें उस समारोह में मौजूद...
हाल के वर्षों में किसी शपथ ग्रहण समारोह की इतनी चर्चा शायद ही हुई होगी। जनता दल-सेकुलर के नेता एचडी कुमारस्वामी बुधवार को मुख्यमंत्री पद की शपथ जरूर ले रहे थे, लेकिन सबकी नजरें उस समारोह में मौजूद दर्जन भर से अधिक विपक्षी दलों के नेताओं पर थीं। यह अस्वाभाविक भी नहीं था। बेंगलुरु में तमाम गैर-एनडीए नेताओं की मौजूदगी सियासत की एक नई तस्वीर दिखा रही थी। एक ऐसी तस्वीर, जिसमें उम्मीदें तो हैं ही, चुनौतियां भी कम नहीं।
पहले चर्चा संभावनाओं की। चार साल में यह पहला मौका है, जब यह संदेश गंभीरता से उपजा है कि 2019 में विपक्ष एक हो सकता है। अब तक विरोधी दलों में निराशा ही दिख रही थी। कई तो यह मानकर चल रहे थे कि अगले आम चुनाव में नरेंद्र मोदी की फिर से वापसी होगी। उनका कैडर भी मानो मैदान छोड़ चुका था। मगर अब 2019 की बाजी पलटने का भरोसा जगा है। वे मानने लगे हैं कि यदि कर्नाटक में मैदान मारा जा सकता है, तो यही प्रयोग केंद्र में भी तमाम विपक्ष एक होकर दोहरा सकता है।
यह आकलन बहुत गलत नहीं है। साल 2014 में भाजपा ने 282 सीटें जीतीं जरूर, पर उसके खाते में महज 31 फीसदी वोट थे। अगर इसमें एनडीए के सहयोगी दलों का मत-प्रतिशत भी जोड़ दें, तो यह आंकड़ा 40 फीसदी के आसपास पहुंचता है। साफ है कि 60 फीसदी मतदाताओं ने गैर-एनडीए दलों पर भरोसा किया था। बार-बार चर्चा होती रही है कि यदि गैर-एनडीए पार्टियां साथ आती हैं, तो वे आसानी से एनडीए को मात दे सकेंगी। उत्तर प्रदेश में हुए हालिया उप-चुनावों में यह दिखा भी। वहां बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी के हाथ मिलाने से भाजपा को हार का मुंह देखना पड़ा।
फिलहाल पांच ऐेसे राज्य हैं, जहां अगर विपक्षी दल एक साथ आते हैं, तो भाजपा को काफी चोट दे सकते हैं। ये राज्य हैं- उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र, झारखंड और कर्नाटक। 2014 में इन राज्यों से एनडीए के 173 सांसद चुने गए थे। अगर यहां भाजपा को नुकसान पहुंचता है, तो उसके लिए कुरसी की दौड़ काफी मुश्किल हो सकती है। बुधवार को शपथ ग्रहण समारोह में जिस तरह अखिलेश यादव और मायावती; शरद पवार और सोनिया गांधी; तेजस्वी यादव, हेमंत सोरेन और राहुल गांधी साथ-साथ दिखे, उससे तो यह साफ लग रहा था कि इन सभी ने कमोबेश एक साथ इकट्ठा होना तय कर लिया है।
विडंबना है कि जिस कर्नाटक को भाजपा के लिए ‘गेटवे टु द साउथ’ (दक्षिणी राज्यों का द्वार) कहा जा रहा था, वह ‘गेटवे टु अपोजिशन यूनिटी’ (विपक्षी एकता का द्वार) बन गया है। अगर मंचासीन सभी दल एक बने रहे, तो यह मुहिम आगे बढ़ेगी। इसमें थोड़ी सी भी दरार आई या पार्टियों के मतभेद जाहिर हुए, तो बाजी फिर से भाजपा के हाथ लग सकती है। इस चुनौती का पहला पड़ाव कर्नाटक ही है। यहां सत्तारूढ़ गठबंधन के पास बहुमत से थोड़ी अधिक सीटें हैं। ऐसे में, यदि 2019 से पहले सरकार गिरी, तो वह इनके खिलाफ जाएगा। लोग ‘खिचड़ी सरकार नहीं चाहिए’ कहना शुरू कर देंगे। भाजपा इसके लिए पूरा दम-खम लगा भी रही है। इसलिए बहुत मजबूती और कौशल से कांग्रेस और जद-एस को साथ मिलकर चलना होगा।
एक साथ आए इन दलों की दूसरी चुनौती एक ऐसा चेहरा ढूंढ़ने की भी है, जो नरेंद्र मोदी की शख्सियत को टक्कर दे सके। मतदाता भले ही केंद्र सरकार और भाजपा से नाराज दिख रहे हैं, पर उनमें मोदी के प्रति अच्छी धारणा अब भी कायम है। इस विरोधाभास की वजहें कई हो सकती हैं, मगर लोगों को यही लगता है कि मोदी काफी कुछ करने का सामथ्र्य रखते हैं। उनके लिए मोदी पसंद इसलिए भी हैं, क्योंकि दूसरी तरफ कोई नेतृत्व नहीं दिख रहा है? यह स्थिति विपक्ष के लिए कुआं और खाई वाली है। कुआं इसलिए, क्योंकि आम चुनाव से पहले उसके लिए एक सर्वमान्य नेता चुनना काफी कठिन काम है। इससे उसके मतभेद भी जाहिर हो सकते हैं। दूसरी तरफ, आम चुनाव से पहले किसी नेतृत्व की घोषणा न होने से माहौल उसके खिलाफ जा सकता है। भाजपा इस मौके का भरपूर फायदा उठाना चाहेगी। यानी अब विपक्ष को सोच-समझकर अपने पत्ते खोलने होंगे। कई विपक्षी दलों को यह लग भी रहा है कि जमीनी राजनीति करना बेहतर होगा और नेतृत्व का मसला चुनाव बाद तक टाल देना चाहिए। ममता बनर्जी इसकी तरफ इशारा कर ही चुकी हैं। वह ‘वन ऑन वन’ टक्कर की बात कह रही हैं, यानी एक एनडीए उम्मीदवार के सामने सिर्फ एक गैर-एनडीए उम्मीदवार उतारा जाए। इससे विपक्ष का वोट नहीं बंटेगा। मगर क्या यह हो सकेगा? नजर इस पर बनी रहेगी।
अगर चुनाव से पहले विपक्ष का गठबंधन नहीं बन पाता है, तो एक नई चुनौती भी उसे परेशान कर सकती है। इसकी झलक कर्नाटक में दिखी है। मौजूदा सियासी तस्वीर बता रही है कि विपक्ष के एक साथ न आने की सूरत में भाजपा अगले आम चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी। ऐसे में, राष्ट्रपति उसे सबसे पहले सरकार बनाने का न्योता देंगे, जो विपक्ष के लिए शुभ संकेत नहीं होगा। इसीलिए चुनाव-पूर्व गठबंधन करना गैर-एनडीए दलों की मजबूरी है। क्षेत्रीय पार्टियां यही चाहेंगी कि ‘फेडरल फ्रंट’ जैसा कोई गठबंधन बने। यह कांग्रेस के बिना आकार लेता है या कांग्रेस के साथ, यह देखने वाली बात होगी।
सवाल उस पार्टी का भी है, जो गठबंधन में धुरी का काम करे। कर्नाटक प्रकरण से क्षेत्रीय पार्टियों में यह संदेश गया है कि कांग्रेस दूसरे दलों के लिए झुक सकती है। यहां करीब दोगुनी सीट जीतने के बाद भी उसने जद-एस को मुख्यमंत्री पद सौंपा है। ऐसा पहले कभी नहीं दिखा है। तो क्या कांग्रेस यह भूमिका निभाएगी? इसका जवाब भी अभी स्पष्ट नहीं है, पर यदि आम चुनाव में वह ठीक-ठीक सीटें ले आती है, तो यह जिम्मेदारी उसी के कंधे पर होगी।
फिलहाल सत्ता पक्ष और विपक्ष, सभी अपनी-अपनी रणनीति बनाने में जुट गए हैं। संभावनाएं टटोली जा रही हैं। उम्मीदों के दीये जल उठे हैं। यह सब गलत भी नहीं लग रहा। आखिर उम्मीदों पर ही तो दुनिया टिकी है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)