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अनसुनी रह जाती है जिनकी आवाज

जनतंत्र में कुछ आवाजें हैं, जो ज्यादा सुनाई देती हैं। महानगर और शहर के बड़े तबके की आवाज तो जनतांत्रिक विमर्श में सुनी ही जाती है, कस्बों, राजमार्गों और मुख्य सड़कों के किनारे के गांवों की आवाज भी कई...

अनसुनी रह जाती है जिनकी आवाज
बद्री नारायण निदेशक, जीबी पंत सामाजिक विज्ञान संस्थानSun, 24 Mar 2019 11:51 PM
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जनतंत्र में कुछ आवाजें हैं, जो ज्यादा सुनाई देती हैं। महानगर और शहर के बड़े तबके की आवाज तो जनतांत्रिक विमर्श में सुनी ही जाती है, कस्बों, राजमार्गों और मुख्य सड़कों के किनारे के गांवों की आवाज भी कई बार इसमें दर्ज हो जाती है। लेकिन जो अंतरे-कोने में पडे़ हैं, जो नदियों के किनारे के गांव हैं, जो दियारे में बसे गांव हैं, जो पहाड़ों की तलहटियों में और जंगलों के किनारे रहने वाले सामाजिक समुदाय हैं, उनकी आवाजें चुनावी लोकतंत्र में प्राय: अनसुनी रह जाती हैं। चुनाव से वे क्या चाहते हैं? चुनाव से बनने वाली सरकार से उनकी क्या अपेक्षाएं हैं? सरकार से उनकी मांग क्या है? उनके लिए चुनाव का क्या मतलब है? इन सारे प्रश्नों के जवाब हम तक नहीं पहुंच पाते। ऐसी बस्तियों में कुछ घरों में टेलीविजन और मोबाइल फोन पहुंच चुका है। अखबार भी देखने को मिल जाते हैं, लेकिन ये सब भी मुख्यधारा से उनके अलगाव को कम नहीं कर पाते। हालांकि इनके पास भी वोट हैं, वे नियमित तौर पर मतदान करते भी हैं, लेकिन उनके वोटों का असली महत्व तभी बन सकेगा, जब वे सरकार, सत्ता और राजनीतिक दलों पर दबाव का काम करेंगे। 
नदी किनारे बसने वाले तमाम गांव बाढ़ का शिकार होते हैं। उत्तर प्रदेश में बलिया, गाजीपुर, आजमगढ़, मऊ से लोकर गोण्डा, बस्ती, बहराइच का एक बड़ा हिस्सा साल में कम से कम एक बार बाढ़ का शिकार होता है। ऐसे बाढ़ग्रस्त क्षेत्र बिहार, मध्य प्रदेश तथा अन्य कई राज्यों में भी हैं, परंतु बाढ़ का प्रकोप शायद ही चुनावी जनतंत्र में कभी बड़े विमर्श का रूप ले पाता है। यही हाल उन इलाकों का भी है, जहां नियमित तौर पर सूखा पड़ता है, कई बार तो लगातार बरसों तक।
उत्तर प्रदेश में गंगा नदी के किनारे कुछ गांवों में, जहां निषाद समुदाय की अच्छी-खासी आबादी है, वहां हमने यह जानने का प्रयास किया कि उन लोगों के लिए 2019 के चुनाव का क्या मतलब है? वहां लोगों की उम्मीदें कुछ अलग ही तरह की हैं कि उनसे नदी में मछली मारने, नदी के कछार की रेतीली भूमि में कभी-कभार सब्जी आदि उगाकर जीवन बसर करने का अवसर न छीना जाए। कुछ पेंशन आदि मिल जाए, तो बेहतर, लेकिन जीविका के जो पारंपरिक साधन हैं, वे बचे रहें। नदी के किनारे से रेत निकालने जैसे काम सरकार तय करके बड़े ठेकेदारों को देती रही है, यह अवसर इन गरीब-गुरबा को भी मिले। निषाद समुदाय के साथ यहां बसे धोबी, जो गदहे रखते हैं और उन पर रेत ढोते हैं, वे भी यही चाहते हैं। आम चुनाव से उनकी चाहत कुछ नया पाने से ज्यादा जो पुराने और पारंपरिक संसाधन है, उन्हें बचाने की है। अंतरे-कोने में रहने वाले ऐसे समुदायों की भारतीय जनतंत्र से छोटी-छोटी आकांक्षाएं हैं। 
ऐसा ही एक सामाजिक समूह है संगतराश, जो पत्थर तराशकर मूर्तियां बनाता है। मिर्जापुर और प्रयागराज के सीमा क्षेत्र पर इनकी छोटी-छोटी बस्तियां हैं। ये इस क्षेत्र के पठारों और पहाड़ों से पत्थर निकाल मूर्तियां बनाते हैं। उन्हें बेचकर अपना जीवन निर्वाह करते हैं। ये संगतराश समुदाय चुनार और अहरौरा क्षेत्र के पहाड़ों से उजले और गुलाबी रंग के नरम पत्थर पाने के लिए स्टोन माइनिंग करने वाले ठेकेदारों को पैसे देते हैं। इनकी छोटी बस्तियां प्राय: सड़क के किनारे होती हैं, जिनमें हनुमानजी से लेकर सरदार बल्लभ भाई पटेल, आंबेडकर तक की पत्थर की मूर्तियां सजी होती हैं। इन संगतराशों के लिए 2019 के चुनाव में न आतंकवाद मुद्दा है, न वे राफेल जैसे मुद्दों को जानते हैं। इनके लिए आगामी चुनाव में सबसे बड़ी आकांक्षा है कि मूर्ति बनाने का ये नरम पत्थर उन्हें सरकार द्वारा सस्ते में या मुफ्त पाने का अधिकार मिले, क्योंकि यही उनकी जीविका है। 
इसी तरह, उत्तर प्रदेश में शंकरगढ़ की पहाड़ियों के आस-पास संपेरों की बस्तियां हैं। संपेरे सांप पकड़, उनका प्रदर्शन कर अपना जीवन निर्वाह करते हैं। सांप के विष की दवा बनाना भी उनका पेशा है। इनके लिए न आरक्षण कोई मुद्दा है, न ही अनुसूचित जाति-जनजाति कानून में होने वाले परिवर्तन इन्हें आंदोलित कर पाते हैं। इनके पास जमीन का छोटा टुकड़ा भी नहीं है, अत: किसानों के मुद्दे, ग्रामीण अर्थव्यवस्था के संकट जैसे मसले भी इन्हें छू नहीं पाते। वर्ष 2019 के चुनाव में इनके लिए सबसे बड़ा मुद्दा है अपनी आजीविका बचाना। 
ऐसे अनेक समुदाय, जो मुख्यधारा से दूर हैं, अभी बड़ी राजनीतिक इच्छा रखने वाले समुदाय में तब्दील नहीं हो पाए हैं, उनके लिए चुनावी जनतंत्र से कुछ पाने से ज्यादा बड़ी चाह जो है, वो बचाने की है। आधुनिक विकास और उदारवादी अर्थव्यवस्था में उनकी आजीविका छिनती जा रही है। इनमें पेंशन योजनाएं, उज्ज्वला योजना जैसी चाह का ज्यादा मतलब नहीं दिखता। इनकी तो सबसे बड़ी चाहत है कि इनका पेशा, व्यवसाय बचा रहे। इनमें से ज्यादा पारंपरिक पेशेवर समूह हैं, जिनमें मनरेगा योजना में काम पाने और श्रमिक वर्ग में तब्दील हो जाने की भी चाहत नहीं है, जो प्राय: कई अन्य गरीब समूहों में दिखाई पड़ती है। वे चाहते हैं कि नेता, राजनीतिक दल और सरकार पहले से जीविका व पारंपरिक संसाधनों पर जो उनका अधिकार था, उसे वापस दिलाने में मदद करें। लेकिन विडंबना यह है कि ऐसे सामाजिक समूहों की आकांक्षाएं चुनाव में वृत्तांत नहीं बन पाती हैं। ज्यादातर चुनावों में न इनके मुद्दे होते हैं, न ही राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में इन्हें जगह मिल पाती है। इन तक न कोई बड़ा नेता पहुंचता है, न राजनीतिक दलों के कार्यकर्ता। धीरे-धीरे हमारा राजनीतिक चुनाव अभियान, ट्विटर, फेसबुक, सोशल मीडिया, बड़ी रैलियों, रोड शो और मुख्य मार्गों से जुड़ी बस्तियों व नगरों में प्रचार तक सीमित रह गया है। चुनाव प्रचार के पारंपरिक साधन पोस्टर, पर्चे वगैरह तो खत्म ही हो गए। अच्छा होता कि ये लोग देश में चलने वाले राजनीतिक संवादों को सुनते और उसका हिस्सा बनते। राजनीतिक नेता भी इनकी आकांक्षाओं को सुन और समझ पाते। फिलहाल तो यह होता नहीं दिख रहा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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