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आम सहमति खत्म होने का अर्थ

देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी  सीबीआई (केंद्रीय जांच ब्यूरो) इन दिनों कई मोर्चों पर जूझ रही है। इसके आंतरिक भ्रष्टाचार के मामले अदालत में तो चल ही रहे हैं, अब दो राज्य की सरकारों ने ‘बिना...

आम सहमति खत्म होने का अर्थ
नीरजा चौधरी वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषकThu, 22 Nov 2018 01:22 AM
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देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी  सीबीआई (केंद्रीय जांच ब्यूरो) इन दिनों कई मोर्चों पर जूझ रही है। इसके आंतरिक भ्रष्टाचार के मामले अदालत में तो चल ही रहे हैं, अब दो राज्य की सरकारों ने ‘बिना अनुमति’ अपने यहां इसके दाखिल होने पर भी रोक लगा दी है। पहले आंध्र प्रदेश ने ऐसा किया, फिर पश्चिम बंगाल ने। सीबीआई का गठन दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टैब्लिशमेंट ऐक्ट 1946 के तहत हुआ है। इसके पास दिल्ली सहित तमाम केंद्र शासित क्षेत्रों में जांच का अधिकार है, पर यह राज्यों में राज्य सरकार की ‘आम सहमति’ से ही प्रवेश कर सकती है। बेशक बीच-बीच में राज्यों ने इस प्रावधान से अपने कदम वापस खींचे हैं, पर आमतौर पर यह ‘आम सहमति’ कायम रही है। हालांकि दिल्ली हाईकोर्ट का एक फैसला यह भी बताता है कि अगर किसी राज्य से जुड़ा मुकदमा किसी अन्य सूबे में दर्ज है, तो सीबीआई ‘आम सहमति’ न रहने के बावजूद उस राज्य में जांच के लिए जा सकती है। पुराने मामलों की जांच को लेकर भी यही प्रावधान तय किया गया है। 
बहरहाल, ‘आम सहमति’ न होने पर सीबीआई को केस-दर-केस राज्य सरकार की हामी लेनी होती है या फिर राज्य सरकार को जब जरूरत होती है, तो वह खुद सीबीआई को बुलावा भेजती है। अभी सीबीआई पर रोक लगाने वाले मुख्यमंत्रियों को लगता है कि चूंकि अब तक इसका इस्तेमाल राजनीतिक औजार के रूप में ही हुआ है, इसलिए केंद्र सरकार का विकल्प तलाशने के उनके प्रयासों को बिगाड़ने के लिए केंद्र इसका इस्तेमाल कर सकता है। सच भी यही है कि चंद्रबाबू नायडू और ममता बनर्जी ने कहीं-न-कहीं महागठबंधन बनाने की पहल की है। ऐसे में, तमाम विपक्षी नेताओं पर दबाव डालने के लिए सीबीआई या प्रवर्तन निदेशालय जैसी एजेंसियों का इस्तेमाल हो सकता है। हालांकि भाजपा ने इन आरोपों का खंडन किया है। उसका कहना है कि चूंकि इन नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले चल रहे हैं, इसलिए जनता को भ्रमित करने के लिए ऐसा किया गया है। उल्लेखनीय है कि सारदा, नारद चिटफंड की आंच ममता बनर्जी तक पहुंच चुकी है, जबकि चंद्रबाबू नायडू विशाखापत्तनम में जगनमोहन रेड्डी की पदयात्रा पर हुए हमले के बहाने केंद्र द्वारा सीबीआई के इस्तेमाल का शक जता चुके हैं। भाजपा अब इसे चुनावी मुद्दा बनाने की बात भी कह रही है।
सीबीआई का राजनीतिक इस्तेमाल अब तक की तमाम सरकारों ने किया है। 1990 के दशक से तो यह खुलकर होने लगा है। सीबीआई निदेशक का प्रधानमंत्री के कमरे में बैठना जैसी बातें उस जमाने में भी होती थीं। नरसिंह राव के प्रधानमंत्रित्व काल में हवाला का मामला जब सामने आया था, तब भी ऐसा ही कहा गया था। बाद में तो शीर्ष अदालत ने इसे ‘पिंजरे का तोता’ तक कह दिया, जिसे तत्कालीन सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा ने मान भी लिया। पहले जब कभी दहेज हत्या या बलात्कार का कोई बड़ा मामला सामने आता था, तो लोग सीबीआई जांच की मांग किया करते थे। इस संस्था की विश्वसनीयता तब काफी ज्यादा हुआ करती थी। लोगों को यह भरोसा हाल के वर्षों तक डिगा नहीं था। आम धारणा यही थी कि चूंकि स्थानीय पुलिस राज्य सरकार के अधीन है, इसलिए उस पर केंद्र के अधीन रहने वाली सीबीआई के मुकाबले कहीं ज्यादा दबाव डाला जा सकता है और उसकी जांच को अपने हित में प्रभावित किया जा सकता है। मगर यह सोच अब खंडित होती  दिख रही है।
सीबीआई के भीतर जो घमासान मचा है, उसने भी इसकी छवि को बर्बाद किया है। बेशक अंदरूनी रस्साकशी पहले भी थी, पर इसे यूं पहली बार सार्वजनिक किया गया है। देश की सबसे प्रमुख जांच एजेंसी, जिसमें लोगों की इस कदर आस्था हो, उसमें यदि आंतरिक तनाव बढ़ जाए, उसे सुलझाने के लिए अदालत को दखल देना पड़े, और रोजाना भ्रष्टाचार के नए-नए किस्से सामने आने लगें, तो स्याह तस्वीर का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। अब तो सीबीआई की स्वायत्तता को बरकरार रखने के लिए इसे जिस केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) के अधीन रखा गया था, उस पर भी उंगली उठने लगी है। यह चिंतनीय है। लोकतंत्र में इन संस्थाओं की जो भूमिका है, उसका सम्मान नहीं हो रहा। इससे हमारे संघीय ढांचे के कामकाज पर असर पड़ रहा है। तमाम संस्थाओं में कामकाज को लेकर एक नाजुक संतुलन बना होता है। सभी की अपनी-अपनी भूमिका तय होती है। अब तक तमाम खामियों के बाद भी यह संतुलन बना हुआ था, मगर अब संस्थाओं में तकरार बढ़ने लगी है। इसकी वजह कुटिल सियासत है, क्योंकि राजनीतिक विवादों ने ही इन संस्थाओं की यह गति की है। जब सत्ता कुछ हाथों में सिमटकर रह जाती है और वे मनमानी करते हुए संस्थाओं का अपने हित में बेधड़क इस्तेमाल करने लगते हैं, तो संस्थाएं अपनी गरिमा खोने ही लगती हैं।
अब एक खतरा यह भी है कि अन्य गैर-भाजपा राज्य भी आंध्र प्रदेश और पश्चिम बंगाल की राह पर बढ़ सकते हैं। इससे काफी तनाव बढ़ जाएगा और सीबीआई जैसी संस्था मजाक बनकर रह जाएगी। सीबीआई की इस अधोगति के गुनहगार वे सभी राजनेता हैं, जिन्होंने इसका स्वहित में इस्तेमाल किया। उन्होंने यह समझने की कभी जहमत नहीं उठाई कि यदि सीबीआई जैसी एजेंसी अपना भरोसा गंवा देती है, तो लोकतंत्र पर भी संकट गहराने लगेगा। पतन के ये बीज काफी गहरे हैं, जिसकी विषबेल अब जाकर फल-फूल रही है।
कुछ ऐसी ही परिस्थिति अमेरिका में भी है। जब से राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने वहां कमान संभाली है, तमाम संस्थाओं को कुंद करने की कोशिश हो रही है। हालांकि मुश्किलों के बाद भी वहां कुछ संस्थाएं डिग नहीं सकी हैं। मगर अपने यहां ऐसा नहीं हो सका। हम सबको यह समझना चाहिए कि कोई भी लोकतंत्र या देश अपनी इन्हीं संस्थाओं के बूते जीता है और तरक्की करता है। अगर संस्थाओं पर से विश्वास खत्म हो जाएगा, तो लोकतंत्र का ढांचा ही गिर जाएगा। लिहाजा यह वक्त आपस में मिल-बैठकर सीबीआई की साख बचाने का है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)

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