बढ़ता तनाव, गहराती आशंकाएं
ईरान और अमेरिका क्या पारंपरिक जंग लड़ने वाले हैं? विश्व राजनीति पर नजर रखने वाले इन दिनों इसी सवाल से जूझ रहे हैं। फिलहाल दोनों देशों में शीत युद्ध जारी है, और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने...
ईरान और अमेरिका क्या पारंपरिक जंग लड़ने वाले हैं? विश्व राजनीति पर नजर रखने वाले इन दिनों इसी सवाल से जूझ रहे हैं। फिलहाल दोनों देशों में शीत युद्ध जारी है, और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ट्वीट करके चेतावनी दी है कि यदि ईरान युद्ध चाहता है, तो यह उसका आधिकारिक अंत होगा। जवाब में ईरान के विदेश मंत्री मोहम्मद जवाद जरीफ ने भी कहा है कि ऐसी धमकियों से ईरान का अंत नहीं होने वाला।
ईरान और अमेरिका में रिश्ते पिछले साल तब बेपटरी हो गए थे, जब ट्रंप प्रशासन 2015 के ‘ज्वॉइंट कॉम्प्रिहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन’ से पीछे हट गया था। यह समझौता दुनिया के शक्तिशाली देशों के समूह पी5+1 (अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, चीन और रूस) और ईरान के बीच हुआ था। तब अमेरिका की कमान बराक ओबामा के हाथों में थी। लेकिन राष्ट्रपति ट्रंप ने सत्ता संभालते ही इस समझौते पर सवाल उठाने शुरू कर दिए। उनका कहना था कि अव्वल तो ईरान इस समझौते का पालन नहीं करता, फिर यह उसके परमाणु मिसाइल कार्यक्रमों को भी बाधित नहीं करता। हालांकि समझौते की निगरानी करने वाली संस्था अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (आईएईए) ट्रंप के आरोप को सच नहीं मानती।
दोनों देशों की यह तनातनी आज की नहीं है। इसकी जड़ में ईरान व इजरायल की आपसी दुश्मनी और अमेरिका व इजरायल की दोस्ती है। साल 1979 की इस्लामिक क्रांति के बाद से ही ईरान व इजरायल और ईरान व अमेरिका एक-दूसरे से खिलाफ हैं। हालांकि मौजूदा तनाव का एक पहलू क्षेत्रीय प्रभुत्व भी है। दरअसल, अरब देश भी ईरान को एक दुश्मन के रूप में देखते हैं, और ईरान व इराक के बीच 80 के दशक में भयंकर युद्ध भी हुआ था। खाड़ी के देशों की दोहरी चिंता है कि ईरान यदि मजबूत हुआ, तो उनको अस्थिर कर सकता है। उल्लेखनीय है कि ईरान पर शियाओं का प्रभुत्व है और कई अरब देशों में शिया जनसंख्या ज्यादा है, जबकि सुन्नी बहुल सऊदी अरब खुद को मुस्लिम देश का मुखिया मानता है।
परमाणु समझौते से पीछे हटने के बाद राष्ट्रपति ट्रंप ने तेहरान पर फिर से प्रतिबंध आयद करने की बात कही थी। चेतावनी दी थी कि कोई देश यदि ईरान से कच्चा तेल खरीदता है, तो उसे भी अमेरिका प्रतिबंधित देशों की सूची में डाल देगा। हालांकि भारत सहित आठ देशों को छह महीने तक इससे छूट देने की घोषणा इस शर्त के साथ की गई कि ये सभी देश धीरे-धीरे तेल को लेकर ईरान पर अपनी निर्भरता खत्म कर लेंगे। यही वजह है कि हम कभी अपनी जरूरतों का 12-13 फीसदी तेल व गैस ईरान से मंगाया करते थे, लेकिन यह छह महीने की इस अवधि में घटकर दो-तीन फीसदी पर आ गई। अमेरिका इस आयात को घटाकर शून्य करने का पक्षधर है, और ऐसा नहीं करने पर भारतीय तेल कंपनियों पर भी प्रतिबंध लगाने की बात उसने कही है। राष्ट्रपति ट्रंप की मंशा स्पष्ट है। वह ईरान को आर्थिक रूप से कंगाल बनाना चाहते हैं। चूंकि ईरान की आमदनी का स्रोत कच्चे तेल का निर्यात है, इसलिए वह उसी पर चोट करना चाहते हैं। अमेरिका का मानना है कि इससे ईरान के लोग अपनी सरकार के खिलाफ मुखर होकर विरोध-प्रदर्शन करेंगे और वहां एक नया शासक सत्ता में आएगा।
अमेरिका अपनी इस मंशा में कितना सफल होगा, यह तो भविष्य तय करेगा, लेकिन तेहरान ने साफ कर दिया है कि यदि उस पर प्रतिबंध लगाया गया या हमला किया गया, तो वह हार्मुज जलडमरूमध्य को बंद कर देगा। हार्मुज मध्य-पूर्व (भारत से पश्चिम एशिया) से तेल-आपूर्ति का मुख्य मार्ग है, और यहीं से सऊदी अरब, कुवैत, संयुक्त अरब अमीरात जैसे तमाम मुख्य निर्यातक देशों का तेल बाहर निकलता है।
ईरान और अमेरिका की जंग किसी के हित में नहीं है। इससे दुनिया के सभी देश प्रभावित होंगे। यही वजह है कि अमेरिका और ईरान की मौजूदा तनातनी भी शीत युद्ध से आगे बढ़ती नहीं दिखती। हालांकि इस तनातनी के लंबे समय तक बने रहने से भारत पर कहीं ज्यादा गहरा असर होगा। हमारे यहां तेल और गैस की आपूर्ति तो प्रभावित होगी ही, उन 90 लाख भारतीयों के जीवन पर भी असर पड़ेगा, जो पश्चिम एशिया में काम करते हैं और भारत को हर साल लगभग 40 अरब डॉलर भेजते हैं। इसके अलावा, यह तनाव ईरान के साथ हमारे रिश्तों को भी चोट पहुंचाएगा। ईरान में हम चाबहार बंदरगाह को भी विकसित कर रहे हैं, जिससे अफगानिस्तान और एशिया में हमारी पहुंच आसान हो जाती है।
तो क्या नई दिल्ली इस विवाद को हल करने में अपनी सक्रियता दिखा सकती है? फिलहाल यह संभव नहीं लगता। हमारे लिए उलझन बड़ी है। हम किसी तनाव की सूरत में बुरी तरह प्रभावित तो होंगे, लेकिन दिक्कत यह है कि उसे दूर करने को लेकर हम कोई खास कूटनीतिक प्रयास नहीं कर सकते। ईरान की नजरों में नई दिल्ली और तेहरान की बीच बढ़ती दूरी की वजह अमेरिका है। इसीलिए पिछले दिनों ईरान के विदेश मंत्री मोहम्मद जवाद जरीफ ने भारत का दौरा किया था। हालांकि पिछली बार खाड़ी में जब तनातनी का माहौल बना था, तो हमने ईरान को तेल के पैसे चुकाने का एक तंत्र विकसित किया था। तब यूको बैंक में बकाया भारतीय रुपए जमा किए गए थे, जिसके बदले ईरान ने भारत से आयात भी किया था। हालांकि अमेरिका-ईरान परमाणु समझौते के बाद हमने ईरान को डॉलर में पैसे भेजने शुरू किए। इस बार ऐसा कुछ नहीं किया जा सकता। आज, जब ईरान से कारोबार करने पर भारतीय कंपनियों पर भी प्रतिबंध लग सकता है, तो हमें उन रास्तों के बारे में सोचना चाहिए, जिससे ईरान के साथ हमारे रिश्ते भी मधुर बने रहें और अमेरिका भी नाराज न हो। ईरान के साथ रिश्तों को ठीक-ठाक बनाए रखने की चुनौती नई सरकार के सामने आने वाली है। ईरान और अमेरिका के बीच तनातनी के चलते कच्चे तेल की कीमतें भी बढ़ सकती हैं, जिसके चलते भारतीय अर्थव्यवस्था पर गहरा नकारात्मक असर पड़ सकता है। नई सरकार को इसके बारे में भी सचेत रहना होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)