राम, रावण और तमिल राजनीति
जलीकट्टू से प्रतिबंध हटाए जाने के दो साल बाद यह ग्रामीण खेल एक बार फिर जोरदार तरीके से तमिलनाडु में लौटा। इस समय राज्य की नदियां व तालाब लबालब हैं, और फसल अच्छी होने के कारण भी इस खेल को लेकर उत्साह...
जलीकट्टू से प्रतिबंध हटाए जाने के दो साल बाद यह ग्रामीण खेल एक बार फिर जोरदार तरीके से तमिलनाडु में लौटा। इस समय राज्य की नदियां व तालाब लबालब हैं, और फसल अच्छी होने के कारण भी इस खेल को लेकर उत्साह दोगुना रहा। बैल को काबू में करने का यह खेल एक हफ्ते तक चलने वाले पोंगल त्योहार का हिस्सा है। दरअसल, सूर्य के उत्तरायण होने पर इस त्योहार के जरिए लोग अच्छी फसल के लिए सूर्य देवता और प्रकृति के प्रति अपनी श्रद्धा अर्पित करते हैं।
पिछले हफ्ते जलीकट्टू की मेजबानी के लिए मशहूर मदुरई के तीन कस्बों- अलंगानल्लूर, पलामेदु और अवनीपुरम में उत्साही किसानों, पशु प्रशिक्षकों व सूबे के शीर्ष राजनेताओं का जबर्दस्त जमावड़़ा देखने को मिला। काफी सारे विदेशी सैलानी भी इस खेल को देखने के लिए इस कस्बों तक चले आए। हरेक शहर में करीब 700 बैलों को खेल के मैदान में छोड़ा गया, जिनको पकड़ने के लिए कम से कम 2,000 बैल प्रशिक्षक वहां जमा हुए। करीब 200 इनमें से घायल हुए, जिनमें से कुछ को गंभीर चोटें आईं, बल्कि चार को अपनी जान गंवानी पड़ी। इंसान और पशु की इस प्रतिस्पद्र्धा में दोनों ही पक्षों के विजेताओं को उदारता के साथ सम्मानित किया गया। उन्हें कार से लेकर सोने-चांदी के सिक्के तक तरह-तरह के इनाम से नवाजा गया। बैलों के साथ बर्बर और क्रूर व्यवहार का आरोप लगाते हुए जलीकट्टू का विरोध करने वाले पशु-प्रेमियों की आवाजें इस उत्साही शोर-शराबे में खो गईं।
जिस बैल को ‘इस साल का विजेता’ घोषित किया गया, वह पुलिस इंस्पेक्टर अनुराधा का है। वह खुद एक चैंपियन हैं। पिछले साल आयोजित कॉमनवेल्थ भारोत्तोलन चैंपियनशिप में उन्होंने स्वर्ण पदक जीता था। हालांकि अपने विजेता बैल का पुरस्कार हासिल करने के लिए वह इस मौके पर मदुरई में मौजूद नहीं थीं, क्योंकि टोक्यो ओलंपिक की तैयारी के लिए वह अभी पटियाला में ट्रेनिंग ले रही हैं। इस विजेता बैल का नाम रावण है। अनुराधा के भाई ने दावा किया है कि रावण नाम रखने का कोई खास कारण नहीं था। चूंकि यह काफी उग्र दिखता है और इसे काबू करना बेहद कठिन है, इसलिए यह नाम रख दिया गया। लेकिन राज्य का एक बड़ा तबका इस पर भड़क उठा है और इस बैल से जुड़ी तरह-तरह की कहानियां ट्विटर पर वायरल हो रही हैं।
दूसरी तरफ राज्य का एक अन्य बड़ा तबका सुपरस्टार रजनीकांत के एक हालिया भाषण से काफी आक्रोशित है। दरअसल, तुगलक पत्रिका के प्रकाशन की 50वीं सालगिरह पर आयोजित एक समारोह को संबोधित करते हुए उन्होंने कुछ मुद्दों पर इस पत्रिका की साहसिक पत्रकारिता की जोरदार सराहना की। रजनीकांत ने कहा कि 1971 में द्रविकार कषगम (डीके) ने एक रैली आयोजित की थी, जिसमें उसके कार्यकर्ताओं ने भगवान राम और सीता की तस्वीरों के साथ दुव्र्यवहार किया था, और तुगलक अकेली पत्रिका थी, जिसने निडरता के साथ इसे तफसील से छापा था। इसके अंक तब हाथोंहाथ बिकते थे।
डीके ने रजनीकांत के इस उद्गार को द्रविड़ आंदोलन और इसके संस्थापक पेरियार को बदनाम करने की कार्रवाई बताया है। इसके कार्यकर्ताओं ने सुपरस्टार के खिलाफ पुलिस में शिकायत भी दर्ज कराई है कि उन्होंने जान-बूझकर पेरियार की छवि बिगाड़ने की चेष्टा की है। डीके की राजनीतिक इकाई ‘द्रमुक’ ने भी दावा किया है कि पेरियार ने 1971 की वह रैली रूढ़िवाद के खिलाफ आयोजित की थी और उसके जुलूस को दक्षिणपंथी संगठन जनसंघ के कार्यकर्ताओं ने काले झंडे दिखाए थे। तत्कालीन मुख्यमंत्री एम करुणानिधि ने रैली और काले झंडे के साथ प्रदर्शन करने, दोनों की इजाजत दी थी।
डीके नेता सुबा वीरापांडियन के मुताबिक, जनसंघ के ही एक प्रदर्शनकारी ने पेरियार पर ‘चप्पल’ फेंकी थी। हालांकि वह अपने लक्ष्य से चूक गया और पेरियार के पीछे चल रही गाड़ी में लगी देवताओं की तस्वीर पर जा लगी। पेरियार पर चप्पल चलाने की घटना से कार्यकर्ता बुरी तरह उखड़ गए और उनमें से एक कार्यकर्ता ने फिर देवताओं की तस्वीरों के साथ दुव्र्यवहार किया। पेरियार को तो इस पूरे घटनाक्रम के बारे में बहुत बाद में पता लगा। कहा जाता है कि इसके बाद जनसंघ ने एक नया फसाना गढ़ दिया कि खुद परियार ने राम-सीता की तस्वीरों के साथ अपमानजनक व्यवहार किया।
आखिर पांच दशक पहले घटी एक घटना की क्या प्रासंगिकता है? इस पर अब क्यों बहस छिड़ी है? रजनीकांत का दावा है कि आज के अखबार इतने निर्भीक नहीं कि वे ऐसे मुद्दे प्रकाशित कर सकें। बहरहाल, अनेक राजनेताओं ने उस घटना को याद करके फौरन अपना-अपना नजरिया पेश कर दिया, जिसके मुताबिक रजनीकांत या तो उस घटना को ठीक-ठीक जानते नहीं या फिर उन्होंने जान-बूझकर यह कहानी गढ़ी, क्योंकि यह हिंदुत्ववादी राजनीति के मुफीद बैठती है, जिसके करीब वह खडे़ दिखते हैं। जाहिर है, तमिलनाडु में अपने पांव जमाने के लिए भाजपा-आरएसएस रजनीकांत के साथ गठजोड़ करने की काफी इच्छुक है।
भगवान राम और रावण से जुड़ी कहानियां तमिलनाडु में हमेशा से विवाद का मुद्दा रही हैं। अत्यंत धार्मिक इस राज्य में भगवान राम के काफी सारे श्रद्धालु रहते हैं। कई लोगों का कहना है कि तमिलनाडु में वैष्णव परंपरा की जड़ें काफी गहरी हैं, लेकिन काफी सारे लोग खुद को रावण से जोड़ते हैं, क्योंकि द्रविड़ आंदोलन और उसकी दलीलों में राम आर्यों के प्रतिनिधि चरित्र हैं, जिन्होंने दक्षिण के मूल निवासी द्रविड़ों पर आक्रमण किया था। उनके लिए रावण उनकी माटी का महानायक पुत्र है। विडंबना देखिए कि द्रविड़ आंदोलन ब्राह्मणवाद विरोधी रहा, जबकि रावण को एक ब्राह्मण माना जाता है।
भारत की विविधता को दर्शाने के लिए उत्तर भारत में अक्सर यह कहा जाता है कि हर कोस पर माटी और बोली बदल जाती है। रामायण के भी कई संस्करण हैं। हालांकि मौजूदा भाजपा सरकार द्वारा लगातार ‘एक देश, एक वोट... एक यह, एक वह...’ का राग जारी है। जाहिर है, इससे विविधता का सवाल उछलेगा ही। ऐसे माहौल में रजनीकांत द्वारा पेरियार विवाद को जिंदा करने को महज छपा बयान पढ़ने की बात मानना भोलापन कहलाएगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)