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रिजॉर्ट राजनीति की कर्नाटक शैली

अभी चंद रोज पहले कर्नाटक के करीब 100 भाजपा विधायक गुड़गांव के एक निजी रिजॉर्ट से अपने-अपने घर को लौटे हैं। इसी तरह, राज्य के करीब आधा दर्जन कांग्रेसी विधायक, जो भाजपा नेताओं से सांठ-गांठ के लिए मुंबई...

रिजॉर्ट राजनीति की कर्नाटक शैली
एस श्रीनिवासन वरिष्ठ पत्रकार, दक्षिण एक्सप्रेसMon, 21 Jan 2019 11:54 PM
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अभी चंद रोज पहले कर्नाटक के करीब 100 भाजपा विधायक गुड़गांव के एक निजी रिजॉर्ट से अपने-अपने घर को लौटे हैं। इसी तरह, राज्य के करीब आधा दर्जन कांग्रेसी विधायक, जो भाजपा नेताओं से सांठ-गांठ के लिए मुंबई के एक होटल में डेरा डाले हुए थे, अपने-अपने घर आ चुके हैं। इस बीच, वफादार कांग्रेसी विधायक भी, जो कि बेंगलुरु के करीब एक रिजॉर्ट में ठहराए गए थे, अब ‘आजाद’ कर दिए गए हैं।
अगर सचमुच भाजपा की कोई योजना कांग्रेस-जनता दल (एस) सरकार को गिराने की थी, तो उसका ऑपरेशन कमल 2.0 पिट गया है। दूसरी तरफ, यदि कांग्रेस के बागी विधायकों की योजना अपने आकाओं से बदला चुकाने की थी, तो वे भी नाकाम हो चुके हैं। यह रिजॉर्ट राजनीति की कर्नाटक शैली है, जिसमें प्रतिद्वंद्वी पार्टियां अपने-अपने विधायकों को दूसरे का शिकार बनने से बचाने के प्रयास कर रही थीं। 
करीब आठ महीने पहले कांग्रेस के एक सियासी मास्टर स्ट्रोक की बदौलत राज्य में एच डी कुमारस्वामी सरकार वजूद में आई थी, हालांकि उसका वह कदम नैतिक नहीं था। खंडित जनादेश के कारण जिस अजीब तरीके से कर्नाटक में लोकतांत्रिक घटनाक्रम घटित हुआ, उसमें 37 विधायकों वाली तीसरे नंबर की पार्टी जनता दल (एस) को सरकार के नेतृत्व का मौका मिल गया। 78 विधायकों के साथ दूसरे नंबर पर रही कांग्रेस ने भाजपा को सत्ता से दूर रखने के इरादे से अपने लिए कमतर भूमिका स्वीकारी। 
विडंबना यह है कि 104 सीटों के साथ सदन की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा ने सरकार तो बना ली, मगर यह सिर्फ तीन दिन टिक पाई। ऐसा नहीं है कि तब भाजपा ने बड़ा नैतिक रुख अपनाया था, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के इस निर्देश ने कि बहुमत का फैसला सदन में किया जाए, उसकी संभावनाएं काफी सीमित कर दी थीं और चूंकि भाजपा के पास जरूरी 112 विधायकों का संख्या-बल नहीं था, उसने अपनी शिकस्त स्वीकार ली। चूंकि राज्य में किसी एक पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था, ऐसे में भाजपा का यह दावा उसका अहंकार ही कहलाएगा कि उसके पास जनादेश है और कांग्रेस-जनता दल (एस) ने एक अपवित्र गठजोड़ करके उसे सत्ता से वंचित किया है। यदि भाजपा ने इसी सोच के तहत ऑपरेशन कमल 2.0 शुरू किया, तो इसे सही नहीं कहा जा सकता। इस तरह से सत्ता हासिल करने की उसकी चेष्टा मतदाताओं की नजर में उसकी छवि धूमिल ही करेगी। साल 2009 में भारतीय जनता पार्टी की प्रदेश इकाई ने ऑपरेशन कमल प्रोजेक्ट शुरू किया था, जिसका मकसद प्रतिद्वंद्वी पार्टियों के नेताओं और विधायकों को खुद से जोड़कर पार्टी को मजबूत बनाना था।
कांग्रेस 2014 के लोकसभा चुनावों में भारी पराजय के बाद से ही जीत के लिए संघर्ष कर रही थी। कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजों में पार्टी ने एक मौका देखा और बगैर वक्त गंवाए अपने चरित्र के उलट जाकर छोटे सहयोगी दल को गठबंधन का नेतृत्व करने की अनुमति दे दी। उसके इस एक कदम ने कई रूपों में भाजपा से संभावित राष्ट्रव्यापी मुकाबले के लिए विपक्षी दलों के साथ आने का रास्ता साफ किया। कोलकाता में तृणमूल कांग्रेस की हालिया रैली ने विपक्षी दलों की उम्मीदों का एहसास भी कराया।
छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान के हालिया नतीजों से कांग्रेस को पैर जमाने की जगह तो जरूर मिल गई है, लेकिन इसी बिना पर यदि वह अपनी पूर्ण वापसी के सपने संजोने लगी और गठबंधन के अपने साथियों पर उसने दबाव बढ़ाना शुरू किया, तो यह उसकी अदूरदर्शिता होगी। कर्नाटक में सत्तारोहण के पहले दिन से ही जनता दल (एस) यह कहता रहा है कि अपने वरिष्ठ साथी दल के साथ उसके रिश्ते बहुत सहज नहीं हैं। मुख्यमंत्री कुमारस्वामी सरकार के संचालन में कांग्रेस नेताओं का दबाव लगातार महसूस करते रहे हैं।
दरअसल, मूल कहानी इस साल के आम चुनाव से जुड़ी है। कांग्रेस और जनता दल (एस) राज्य में सीटों के बंटवारे को लेकर बात चल रही है और दोनों पार्टियां अपने-अपने दांव खेल रही हैं। राज्य की कुल 28 लोकसभा सीटों में से कांग्रेस जनता दल (एस) को ज्यादा से ज्यादा छह सीटें देने की इच्छुक है, मगर जनता दल (एस) 12 सीटें मांग रहा है। आपसी तनातनी के बावजूद दोनों पार्टियां जानती हैं कि भविष्य गठबंधन में ही निहित है। यही कारण है कि जनता दल (एस) के संरक्षक एच डी देवेगौड़ा ने राहुल गांधी के विवेक पर अपना भरोसा जताया है।
बहरहाल, राज्य में सभी गड़बड़ियों के लिए भाजपा को जिम्मेदार ठहराकर मुख्यमंत्री कुमारस्वामी बच नहीं सकते। उनका अब तक का शासन निष्प्रभावी रहा है। कर्नाटक अब भी सूखे के बाद के कुप्रभावों की जद में है। सैकड़ों किसान खुुदकुशी कर चुके हैं। बड़े पैमाने पर खेतिहर मजदूरों का पड़ोसी राज्यों में पलायन हो रहा है। अगर अब तक के शासन के आधार पर कांग्रेस-जनता दल (एस) अपने लिए वोट मांगते हैं, तो उन्हें भारी निराशा हाथ लगेगी। आलम तो यह है कि यदि अभी विधानसभा चुनाव हो जाएं, तो भाजपा आसानी से बहुमत हासिल कर लेगी। लेकिन अगर सरकार को गिराकर उसने चुनाव थोपने की कोशिश की, तो निस्संदेह यह कवायद उसके खिलाफ जाएगी। भाजपा को यह नहीं भूलना चाहिए कि तीन उत्तरी राज्यों में सत्ता परिवर्तन के बाद तटस्थ मतदाताओं में उसके प्रति पहले जैसा आकर्षण नहीं है। फिर उसे सरकार गिराने के लिए कम से कम दर्जन भर विधायक चाहिए और दल-बदल कानून के कारण ऐसा करा पाना आसान नहीं। फिर चूंकि विधानसभा चुनाव अभी काफी दूर है, इसलिए कोई विधायक इस्तीफा देकर पाला बदलने के लिए भी शायद ही तैयार हो।
कांग्रेस-जनता दल (एस) गठबंधन के लिए जरूरी है कि वे फौरन अपने घर को व्यवस्थित करें और राज्य की शासन-व्यवस्था पर फोकस करें। कर्नाटक की जनता के प्रति यह उनका दायित्व है। कांग्रेस विधायकों के बारे में आ रही खबरें यही बता रही हैं कि पार्टी के भीतर कुछ सड़ रहा है। जाहिर है, कर्नाटक सरकार के ऊपर तलवार लटकी हुई है और यह अस्थिरता तब तक बनी रहेगी, जब तक कि आम चुनाव के नतीजे न आ जाएंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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