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ध्रुवीकरण के चुनावी समीकरण

इस बार बंगाल में चुनाव हर बार से थोड़ा अलग है। कह सकते हैं कि यह एक तरह से सामरिक स्तर पर लड़ा जा रहा है। बंगाल का समाज फिलहाल चार हिस्सों में बंटा हुआ है। पहला हिस्सा है, यहां का हिंदीभाषी समुदाय,...

ध्रुवीकरण के चुनावी समीकरण
हरिराम पांडेय वरिष्ठ पत्रकारMon, 22 Apr 2019 12:12 AM
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इस बार बंगाल में चुनाव हर बार से थोड़ा अलग है। कह सकते हैं कि यह एक तरह से सामरिक स्तर पर लड़ा जा रहा है। बंगाल का समाज फिलहाल चार हिस्सों में बंटा हुआ है। पहला हिस्सा है, यहां का हिंदीभाषी समुदाय, जिसमें व्यापारी वर्ग और श्रमिक वर्ग हैं। दूसरा है, बंगाल के हिंदू बंगाली। तीसरा है, बांग्लादेश से आकर बंगाल में बस गए मुस्लिम समुदाय और चौथा हिस्सा है, यहां का बुद्धिजीवी वर्ग, जिसमें बांग्ला के लेखक-पत्रकार-कवि और नाटककार शामिल हैं। ये चारों वर्ग अलग-अलग ढंग से स्थितियों को देखते हैं। इस बहुलतावादी समाज में कभी वोटों की दिशा कवि, लेखक, पत्रकार और नाटककार तय किया करते थे। समाज के सोचने-समझने के ढंग पर उनका भारी प्रभाव था। लेकिन यह प्रभाव धीरे-धीरे कम होता गया। हिंदू बंगाली, जो सीमावर्ती क्षेत्रों में बसे हुए हैं और जिन्होंने बंटवारे का दर्द झेला है या रोज-रोज आतंकित होने से ऊब गए हैं, वे एक तरह से भाजपा के पक्ष में सोच रहे हैं। यहां का हिंदीभाषी समुदाय, जिसको लुभाने में भाजपा और तृणमूल, दोनों लगे हैं, के बारे में कहा जा रहा है कि वह मोटे तौर पर भाजपा समर्थक है। यही कारण है कि तृणमूल सरकार ने हावड़ा में हिंदी विश्वविद्यालय की स्थापना की और हिंदीभाषी समाज का गठन किया। दूसरी तरफ, बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों में अलग-अलग ढंग से भय का माहौल पैदा करने की कोशिश भी हो रही है।
ममता बनर्जी के सत्तारूढ़ होने से पहले बंगाल में वामपंथी शासन था और उसका एक मजबूत संगठन था। लेकिन पिछले दिनों धीरे-धीरे संगठन छीज गया और माना जा रहा है कि वामपंथी समर्थक ममता बनर्जी के साथ या फिर भाजपा के साथ मिल रहे हैं। वैसे तो वोट लोग अपनी पसंद से देते हैं, और पार्टियां इसी पसंद को प्रभावित करने की कोशिश करती हैं। इस बार बंगाल में जो चुनाव हो रहे हैं, उनमें आतंक का तत्व कुछ ज्यादा है। बंगाल के इतिहास में यह पहली घटना है, जब आतंक का वातावरण इतना ज्यादा घना है। बेशक हिंसा कम हो रही है। और जब लोगों में सीटों के कयास लगाए जा रहे हैं, तो भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने ताल ठोककर कहा है कि उनकी पार्टी को 22 सीटें मिलेंगी। बेशक भाजपा तृणमूल के खिलाफ एक सशक्त विपक्ष के रूप में उभर रही है। पिछले साल के पंचायत चुनाव में यह दूसरे नंबर पर थी। हालांकि यह दूसरा नंबर प्रतिशत के मामले में काफी दूर था। चूंकि पंचायत चुनाव में भारी गड़बड़ी और डराने-धमकाने के आरोप थे, इसलिए उम्मीद की जा रही है कि 2019 के चुनाव में भाजपा को बंगाल में ज्यादा सीटें मिलेंगी। यहां दो स्थितियां काबिले गौर हैं। पहली यह कि ज्यादा सीट लेने के लिए भाजपा को 2014 से ज्यादा वोट हासिल करने पड़ेंगे और दूसरा यह है कि अभी तक बंगाल में भाजपा का प्रसार विपक्षी दलों की कीमत पर हो रहा है। खासकर कांग्रेस और माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व वाले वाम मोर्चे के मूल्य पर। दूसरी तरफ, इस अवधि में तृणमूल ने अपने वोट का हिस्सा बढ़ाया है। अगर तृणमूल के मतदाताओं का एक बहुत बड़ा हिस्सा भाजपा में मिल जाता है, तो बात बदल सकती है। ममता बनर्जी 1998 में जब कांग्रेस से बाहर आई थीं और उसी वर्ष उन्होंने लोकसभा चुनाव लड़ा था, तो उन्हें सात सीटें मिली थीं। लेकिन वोट का हिस्सा 24.4% था। उस समय तृणमूल ने राज्य की सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार नहीं खड़े किए थे, और जितने पर खड़े किए थे, उनमें उसे 35.5% वोट मिले थे। भाजपा का यहां कोई सहयोगी दल नहीं है और न ही इस क्षेत्र में इसके पांव जमे हैं। इसका मतलब है कि उसे 2014 के वोट के हिस्से से कम से कम 10 प्रतिशत ज्यादा वोट पाने होंगे। जिसे हासिल करना काफी कठिन होगा।
यहां एक सवाल यह तो है ही कि 2014 के बाद से स्थिति में ऐसा क्या बदलाव हुआ, जिससे राज्य में भाजपा का विकास हुआ? बस एक बात सामने आती है, वह है माकपा का पतन। अगर माकपा और भाजपा के कुल वोटों को मिला दिया जाए, तो 2009 में वे 47 प्रतिशत थे और 2014 में 47.8 प्रतिशत। हालांकि 2014 में वोट का भाग काफी भाजपा के पक्ष में गया है। यहां यह ध्यान देने की बात है कि वामपंथ के पतन के बाद पश्चिम बंगाल में केवल भाजपा ऐसी पार्टी नहीं है, जिसे लाभ हुआ है। तृणमूल को भी इससे लाभ मिला है। 2004 में इसके पक्ष में 21 प्रतिशत वोट पड़े थे, जो 2014 में बढ़ते हुए 39 फीसदी और 2016 में 45 प्रतिशत हो गए। यदि तृणमूल अपने वोटों की बढ़त बनाए रखती है, तो भाजपा के लिए ज्यादा सीटें पाना टेढ़ी खीर हो जाएगा। इसी के चलते राज्य में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिशें चल रही हैं।
अटकलें यह भी लगाई जा रही हैं कि चुनाव के बाद क्षेत्रीय दलों के गठबंधन से केंद्र में क्षेत्रीय दलों की सरकार बन सकती है और उसकी नेता ममता बनर्जी हो सकती हैं। लेकिन फिलहाल यह दूर की कौड़ी तो है ही, बहुत व्यावहारिक भी नहीं लग रहा। क्षेत्रीय गठबंधन किन शर्तों पर और कितनी दूर तक होगा, यह कह पाना बड़ा कठिन है। सारे कयासों और अटकलों के बावजूद बंगाल में भाजपा के उभार का फिलहाल यह मतलब नहीं है कि तृणमूल की चमक समाप्त हो जाएगी और उसे भयानक नुकसान पहुंचेगा। हालांकि, भाजपा सभी ममता विरोधी वोटों को अपने पाले में लाने की कोशिश कर रही है और माना यह भी जा रहा हैै कि बाकी देश में लगातार पिछड़ने के कारण इस चुनाव में उसे बंगाल में अच्छी-खासी बढ़त मिल सकती है और वह हिंदीभाषी क्षेत्रों में होने वाले नुकसान की कुछ भरपाई यहां कर सकती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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