पाकिस्तान पर अमेरिका का ट्रंप कार्ड
अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में डोनाल्ड ट्रंप की ताजपोशी के बाद पिछले साल से ही अमेरिका-पाकिस्तान रिश्तों में तनातनी की जो आग धीमे-धीमे सुलग रही थी, वह इन दिनों तेज हो गई है। मौजूदा तनाव की शुरुआत...
अमेरिकी राष्ट्रपति के रूप में डोनाल्ड ट्रंप की ताजपोशी के बाद पिछले साल से ही अमेरिका-पाकिस्तान रिश्तों में तनातनी की जो आग धीमे-धीमे सुलग रही थी, वह इन दिनों तेज हो गई है। मौजूदा तनाव की शुरुआत रविवार को राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा फॉक्स न्यूज को दिए उस इंटरव्यू से हुई है, जिसमें उन्होंने कहा है कि ‘पाकिस्तान हमारे लिए कुछ नहीं करता, वे हमारे लिए जरा सी भी कुछ नहीं करते।’ पाकिस्तान में ओसामा बिन लादेन का पाया जाना और अफगानिस्तान के हालात इसके सुबूत हैं। नतीजतन, उन्होंने पाकिस्तान को दी जा रही 1.3 अरब डॉलर की सालाना मदद रोक दी।
पाकिस्तान को लेकर ट्रंप अपनी नाराजगी लगातार जाहिर करते रहे हैं। पिछले साल उन्होंने इस्लामाबाद को साफ चेतावनी दी थी कि अगर उसने आतंकियों को पनाह देना जारी रखा और अफगानिस्तान में अमेरिकियों को मारने वाले ‘अराजकता के एजेंटों’ को सुरक्षित आश्रय वह मुहैया करता रहा, तो उसे ‘काफी कुछ खोना’ पड़ सकता है। इसके तुरंत बाद ही अमेरिका ने पाकिस्तान को दी जा रही सैन्य मदद में 30 करोड़ अमेरिकी डॉलर की कटौती कर दी, क्योंकि वह अपनी जमीन से संचालित हो रहे हक्कानी नेटवर्क, तालिबान आदि के खिलाफ कुछ भी करने में विफल रहा था।
इस साल की शुरुआत में भी ट्रंप पाकिस्तान को घेरते हुए नजर आए, जब अपने एक ट्वीट में उन्होंने कहा कि ‘अमेरिका तो पाकिस्तान को सहायता देता रहा है, मगर बदले में उसे ‘झूठ और धोखाधड़ी’ के अलावा कुछ नहीं मिला’। इसके बाद अमेरिका ने पाकिस्तान को मिलने वाली करीब दो अरब डॉलर की सुरक्षा मदद रोकने का एलान किया था। बीते कुछ दशकों में पहली बार अमेरिका ने अंतरराष्ट्रीय सैन्य शिक्षा और प्रशिक्षण कार्यक्रम में भी कटौती की। पाकिस्तान को झटका देने वाला दूसरा कदम था, ग्लोबल फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स की ‘ग्रे लिस्ट’ में उसे फिर से शामिल करना, क्योंकि आतंकी फंडिंग रोक पाने में वह नाकाम रहा था।
जाहिर है, पाकिस्तान के नए वजीर-ए-आजम इमरान खान के सामने सफाई देने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। पुराना राग अलापते हुए उन्होंने दोहराया कि हालांकि कोई भी पाकिस्तानी 9/11 के हमले में शामिल नहीं था, फिर भी पाकिस्तान ने अमेरिका के ‘ग्लोबल वार ऑन टेरर’ (आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक युद्ध) में साथ दिया, जिसकी वजह से कोई 75,000 पाकिस्तानी हताहत हुए और पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को लगभग 123 अरब डॉलर का नुकसान झेलना पड़ा। अमेरिका ने महज 20 अरब डॉलर की ही इमदाद दी। (हालांकि अमेरिकी आंकड़ों की मानें, तो पाकिस्तान को 2001 से लेकर अब तक 33 अरब डॉलर की सहायता मिली है।) इतना ही नहीं, पाकिस्तान के सरहदी इलाकों में लाखों की तादाद में शहरी बेघर हो गए। उनके रोजमर्रा की जिंदगी पर गहरा प्रभाव पड़ा है। बावजूद इसके, आज भी पाकिस्तान, अमेरिका को जमीनी और हवाई संचार (जीएलओसीएस/ एएलओसीएस) की सुविधा मुफ्त में दे रहा है। अगर दस खरब डॉलर और डेढ़ लाख की नाटो की फौज लगाने के बाद भी आज तालिबान प्रबल है, तो पाकिस्तान को दोषी ठहराने की बजाय अमेरिका को अपनी नीतियों की समीक्षा करनी चाहिए। प्रधानमंत्री इमरान खान ने जिस दिशा में इशारा किया, वहां के अन्य मंत्रिगण भी उसी दिशा में चल पड़े हैं।
बहरहाल, ट्रंप के साथ अपनी जुबानी टीका-टिप्पणी का इमरान खान ने यही नतीजा निकाला कि अब पाकिस्तान वही करेगा, जो उसके हित में होगा। हालांकि पाकिस्तान आज तक यही करता भी आया है। वह सिर्फ उन आतंकी गुटों के खिलाफ लड़ता रहा है, जो उस पर दबाव डाले हुए थे। जो आतंकवाद पाकिस्तान के लिए अपने कूटनीतिक लक्ष्य को पाने का जरिया बना, वह उसे पनाह और प्रोत्साहन देता रहा है। पाकिस्तान ने अपनी इस नीति का औचित्य साबित करने के लिए यह भी कहा कि कई ऐसे गुट सामाजिक और दानशील कार्यों में जुटे हुए हैं, वे समाज में इस तरह घुले-मिले हैं कि उनके खिलाफ कोई भी कार्रवाई लोकप्रिय नहीं होगी और सरकार को यह बात ध्यान में रखनी पड़ेगी।
पाकिस्तान इस वक्त आर्थिक संकट में है। वह 12 अरब डॉलर की तलाश में है। पाकिस्तान को ‘बैलेंस ऑफ पेमेंट्स सपोर्ट’ (विदेशी कर्ज चुकाने के लिए आर्थिक मदद) की अत्यंत जरूरत है। इसकी एक वजह चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) के अंतर्गत चीन से लिया गया कर्ज भी है, जिसकी भरपाई निर्यात से नहीं हो पा रही। इमरान ने प्रधानमंत्री बनने से पहले एलान किया था कि उनका ‘नया’ पाकिस्तान किसी से अनुदान नहीं मांगेगा। वह खुद ‘भीख’ मांगने के लिए देश-देशांतर जाने के खिलाफ हैं, लेकिन मजबूरी है कि उन्हें दर-दर जाकर मदद मांगनी पड़ रही है। सऊदी अरब, चीन, संयुक्त अरब अमीरात, यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के दरवाजे भी खटखटाए जा चुके हैं। सऊदी अरब ने पहल की है। अक्तूबर में दोनों देशों के बीच समझौता हुआ है, जिसके अनुसार, सऊदी अरब तीन अरब डॉलर का अनुदान पाकिस्तान को ‘बैलेंस ऑफ पेमेंट्स सपोर्ट’ के तौर पर और तीन अरब डॉलर की राशि तेल के आयात के लिए देगा। मदद की उम्मीद चीन से भी है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष अमेरिका के दबाव में है, लिहाजा वह चाहता है कि सीपीईसी के तहत बन रही तमाम परियोजनाओं का पूरी तरह से खुलासा हो, ताकि मुद्रा कोष का पैसा चीन का कर्ज उतारने में इस्तेमाल न हो।
इमरान खान ने हाल ही में यह भी कहा है कि अगर जरूरत पड़े, तो वह यू-टर्न लेने को भी तैयार हैं। उनका यह बयान अपने पहले दिए बयानों से पीछा छुड़ाने की कोशिश है। हालांकि आर्थिक मामलों में यू-टर्न का उनका तर्क भले ही लागू हो, पर ट्रंप-इमरान आरोप-प्रत्यारोप से तो नहीं लगता कि राजनीतिक मुद्दों पर कोई खास बदलाव आने वाला है। अमेरिका, पाकिस्तान की नीति को अच्छी तरह समझता है और पिछले कुछ वर्षों में कई बार इसकी सार्वजनिक आलोचना भी करता रहा है। फर्क सिर्फ इतना है कि इस बार डोनाल्ड ट्रंप शब्दों से नहीं, पाकिस्तान पर आर्थिक पाबंदियां लगाकर उसकी नीति में बदलाव लाने की कोशिशों में जुटे हैं। अब वह किस हद तक सफल होते हैं, यह देखने वाली बात होगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)