जब भारतीयता मुखर हो उठी थी
सिंगापुर में 21 अक्तूबर, 1943 को सुभाष चंद्र बोस ने आजाद भारत की जिस प्रॉविजनल गवर्नमेंट (अंतरिम सरकार) की नींव रखी थी, कल उसकी 75वीं वर्षगांठ है। इसी सरकार ने ब्रिटेन और अमेरिका के खिलाफ जंग का एलान...
सिंगापुर में 21 अक्तूबर, 1943 को सुभाष चंद्र बोस ने आजाद भारत की जिस प्रॉविजनल गवर्नमेंट (अंतरिम सरकार) की नींव रखी थी, कल उसकी 75वीं वर्षगांठ है। इसी सरकार ने ब्रिटेन और अमेरिका के खिलाफ जंग का एलान किया था, और उसी के बाद सुभाष चंद्र बोस ने भारतीय राष्ट्रीय सेना (आईएनए) को फिर से संगठित किया, जिसे आजाद हिंद फौज भी कहते हैं। आईएनए का गठन 1942 में हुआ था।
आईएनए या प्रॉविजनल गवर्नमेंट का आजादी के आंदोलन में अहम योगदान रहा है। इसे समझने के लिए हमें वर्ष 1942 में लौटना होगा, जब मलाया में जापानी सेना से पराजय के बाद ब्रिटिश इंडियन आर्मी के एक भारतीय अधिकारी मोहन सिंह ने मैदान छोड़ने वाली ब्रिटिश सेना में शामिल न होने का फैसला किया और जापान के उस प्रस्ताव पर अपनी सहमति जताई, जिसमें भारतीय युद्धबंदियों की एक सशस्त्र टुकड़ी बनाने की बात थी। सिंगापुर की उस हार से 45,000 भारतीय युद्धबंदी जापानियों के हाथ लगे थे। माना जाता है कि 1942 के अंत तक करीब 40,000 सैनिकों ने आईएनए में शामिल होने पर अपनी सहमति दे दी। भारतीय समुदाय के नेताओं (जिन्होंने रास बिहारी बोस के नेतृत्व में इंडियन इंडिपेंडेंस लीग का गठन किया था) और भारतीय सेना के अधिकारियों की नजर में आईएनए भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का हिस्सा थी, और उन्होंने यह जाहिर भी किया था कि आईएनए तभी कार्रवाई करेगी, जब उसे ऐसा करने के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और भारत के लोग कहेंगे। इतना ही नहीं, आईएनए को दक्षिण-पूर्व एशिया में जापानियों द्वारा भारतीयों के साथ किए जाने वाले दुव्र्यवहार के निवारक और भविष्य में जापानियों द्वारा भारत को उपनिवेश बनाने की किसी भी आशंका के तोड़ के रूप में भी देखा गया। भारत के साथ इसका जुड़ाव इतना मजबूत था कि 9 अगस्त, 1942 को जब भारत छोड़ो आंदोलन का एलान किया गया, तो मलाया में भी भारतीयों ने अंग्रेजों के खिलाफ प्रदर्शन किए और आईएनए 16,300 लोगों का एक डिविजन बनाने को प्रेरित हुई। यह डिविजन 1 सितंबर, 1942 को अस्तित्व में आया, लेकिन दिसंबर आते-आते आईएनए के चरित्र और उसकी भूमिका पर भारतीय और जापानी सैन्य अधिकारियों में गंभीर मतभेद हो गए। भारतीय कम से कम 20,000 फौजियों का दल बनाना चाहते थे, जबकि जापान सैनिकों की सख्या 2,000 तक ही सीमित रखने का पक्षधर था। नतीजतन, मोहन सिंह और आईएनए के एक अन्य वरिष्ठ भारतीय अधिकारी निरंजन सिंह को गिरफ्तार भी कर लिया गया।
यही वह संदर्भ था, जिसके कारण सुभाष चंद्र बोस 2 जुलाई, 1943 को जर्मनी से सिंगापुर पहुंचे थे। 1941 की शुरुआत में नजरबंद किए जाने वाले सुभाष बाबू चुपके से भारत से भागे थे और ब्रिटिशों के खिलाफ मदद मांगने के लिए जर्मनी जा पहुंचे थे। उनका मानना था कि चूंकि ब्रिटेन और जर्मनी एक-दूसरे के खिलाफ जंग के मैदान में उतर चुके हैं, लिहाजा जर्मनी, भारत की स्वाधीनता संग्राम में मदद देगा। मगर जर्मनी से नाउम्मीदी हाथ लगी और दक्षिण-पूर्व एशिया में अंग्रेजों पर जापान की जीत को देखते हुए वह मदद के लिए जापान की ओर रवाना हो गए। वहां वह प्रधानमंत्री तोजो से मिले, जिन्होंने उन्हें यह भरोसा दिया कि जापान की भारत पर कब्जे की कोई योजना नहीं है। सिंगापुर लौटने पर उन्होंने ‘प्रॉविजनल गवर्नमेंट’ की स्थापना की और आईएनए को पुनर्जीवित किया। सिंगापुर और रंगून में इसके दो केंद्र बनाए गए। भारतीय नागरिकों के आईएनए में शामिल होने और इसे आर्थिक मदद देने की उनकी अपील कारगर रही। सुभाष चंद्र बोस ने यह भी साफ कर दिया कि वह आईएनए को गांधीजी की अगुवाई में चल रहे भारतीय स्वाधीनता आंदोलन का हिस्सा मानते हैं। 6 जुलाई, 1944 को आजाद हिंद रेडियो पर गांधीजी को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा भी, ‘भारत की आजादी की आखिरी जंग शुरू हो चुकी है... हमारे राष्ट्रपिता! भारत की मुक्ति के इस पवित्र युद्ध में, हमें आपके आशीर्वाद और शुभकामनाओं की अपेक्षा है’। सुभाष चंद्र बोस ने ही सबसे पहले गांधीजी को राष्ट्रपिता कहा।
शाह नवाज की अगुवाई वाली आईएनए मणिपुर में जापानी सेना के हमले में शामिल हुई। हालांकि विपक्षी सेनाएं उस पर भारी पड़ीं, जिस कारण बलपूर्वक भारत को आजाद कराने की कोशिशों का भी अंत हो गया। आखिरकार 1945 के मध्य में दक्षिण-पूर्व एशिया में अंग्रेजों के आगे इस सेना को आत्मसमर्पण करना पड़ा। आईएनए के फौजियों को वापस भारत भेजा गया, जहां उनके साथ सख्ती बरती गई। मगर यह आईएनए का अंत नहीं, एक नए अध्याय की शुरुआत थी।
दरअसल, अगस्त 1942 में कांग्रेस के जिन नेताओं को भारत छोड़ो आंदोलन के सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था, उन्हें 1945 में जून के मध्य में छोड़ दिया गया। इससे लोगों में खुशी का माहौल था। 1945 के दिसंबर में चुनावों की घोषणा करने और भारत के संभावित सांविधानिक विकास पर चर्चा करने के लिए अंग्रेजों ने शिमला सम्मेलन भी बुलाया था, जिससे यह उम्मीद बंधी थी कि जल्द ही आजादी का बिगुल बजेगा। मगर आईएनए के कुछ फौजियों पर सख्ती करने और आईएनए के वरिष्ठ अधिकारियों पर लाल किले में सुनवाई करने के फैसले का आमजन पर गहरा असर पड़ा। अंग्रेजों ने एक सिख, एक मुस्लिम और एक हिंदू को कोर्ट मार्शल के लिए चुना। अपनी सांध्य बेला में पहुंच चुके ब्रिटिश हुक्मरान भूल गए कि इससे उनकी ‘बांटो और राज करो’ की नीति बेअसर हो जाएगी। सुभाष चंद्र बोस के साथ अपने पुराने मतभेदों को भूलते हुए जवाहरलाल नेहरू ने 16 अगस्त, 1945 को इन फौजियों के खिलाफ रहम की अपील की और उन्हें ‘मिसगाइडेड’ देशभक्त बताया। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने भी आईएनए के पक्ष में एक मजबूत प्रस्ताव पास किया। भारत छोड़ो आंदोलन के क्रूर दमन के साथ-साथ यह मसला आगामी चुनावों में भी प्रमुख मुद्दा बना।
आईएन ने भारतीय बनाम ब्रिटिश का माहौल बनाया और यह सवाल उठने लगा कि भारतीयों से जुड़े मसलों में फैसला लेने का अधिकार ब्रिटिशों के पास क्यों रहे? साफ है, आईएनए भारतीयों द्वारा भारत पर शासन करने के अधिकार का प्रतीक बन चुकी थी। इस मुद्दे के साथ अंग्रेजों से भारत छोड़ने की मांग तेज हुई और बाद में जिस तरह सत्ता का हस्तांतरण हुआ, यह जगजाहिर है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं)