क्या कहती है प्रवेशार्थियों की भीड़
देश के शीर्षस्थ विश्वविद्यालयों में से एक दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) में प्रवेश की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है। 1922 में स्थापित इस केंद्रीय विश्वविद्यालय में 16 संकाय, 86 विभाग और 77 संबद्ध कॉलेज...
देश के शीर्षस्थ विश्वविद्यालयों में से एक दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) में प्रवेश की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है। 1922 में स्थापित इस केंद्रीय विश्वविद्यालय में 16 संकाय, 86 विभाग और 77 संबद्ध कॉलेज हैं, जिनके विभिन्न कोर्सों में उपलब्ध 70 हजार सीटों के लिए लगभग ढाई लाख विद्यार्थी हर साल आवेदन करते हैं। देश के हर कोने से प्रतिभाशाली विद्यार्थी यह सपना लेकर इन दिनों राजधानी पहुंचते हैं कि किसी तरह डीयू के किसी नामी-गिरामी कॉलेज में दाखिला मिल सके।
दिल्ली की तरह चेन्नई, बंगलुरू, मुंबई, पुणे, हैदराबाद, कोलकाता और चंडीगढ़ जैसे महानगरो के विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में भी इसी तरह की भीड़ दिखाई देती है। इन दिनों देश के लाखों सुशिक्षित और प्रबुद्ध अभिभावकों की चिंता का प्रमुख विषय उनके बच्चों का बड़े शहर के किसी अच्छे कॉलेज में मनचाहे कोर्स में दाखिला न मिल पाना है। प्रवेश सूची के जारी होने तक उनकी सांस में सांस अटकी रहती है कि आखिर मनचाहे कालेज में उनके बच्चे का दाखिला हो पायेगा या नहीं? डीयू में दाखिले का सीजन तो अभी शुरू हुआ है और अगले माह के अंत तक खत्म हो पायेगा, किन्तु पूरे देश में यह प्रक्रिया सितंबर अंत तक चलेगी।
इसी के साथ देश में ऐसे विश्वविद्यालय, कॉलेज और कोर्स भी है जहाँ पर पिछले एक दशक से प्रवेशार्थियों की कमी चली आ रही है। विज्ञान, लिबरल आर्टस और समाज विज्ञान की तुलना में सामान्यता: इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट कोर्स के लिए हर साल लाखों युवा प्रवेश परीक्षाओं में बैठतें हैं। लेकिन पिछले एक दशक से इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट, फार्मेसी वगैरह के अनेकों कॉलेज प्रवेशार्थी न मिलने के कारण बन्द होने के कगार पर हैं। कुछ तो बंद भी हो चुके हैं। जब भारत आजाद हुआ तो देश के 25 विश्वविद्यालयों और 700 कॉलेजों मे सिर्फ एक लाख विद्यार्थी पढ़ाई कर रहे थे। आज देश के 858 विश्वविद्यालयों में और 45000 कॉलेजों में 3़5 करोड़ से ज्यादा विद्यार्थी उच्चशिक्षा पा रहे हैं। अगर उच्चशिक्षा में क्वालिटी के पैमाने पर चुनाव किया जाये तो बमुश्किल 20 प्रतिशत विश्वविद्यालय और कॉलेज ही उस पर खरे उतरेंगे। ये वहीं कॉलेज हैं जो ऐतिहासिक विरासत, कुशल प्रबंध, ब्रांडिग, अलुमनाई या स्वायत्तता के कारण अपनी धाक जमाए हुए हैं।
डीयू की तरह कई केंद्रीय विश्वविद्यालय भी लाखों प्रवेशार्थियों को हर साल आकर्षित करते हैं। इनके डिग्रीधारियों को समाज, सरकार और उद्योगजगत सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। जेएनयू़, बीएचयू़, एएमयू, जामिया मिलिया, कोलकाता विश्वविद्यालय, मद्रास विश्वविद्यालय, मुंबई विश्वविद्यालय, इलाहाबाद विश्वविद्यालय वगैरह की आकर्षण शक्ति के कई कारण हैं। इनमें से हरेक केंद्रीय विश्वविद्यालय के पास अमूल्य ऐतिहासिक विरासत है। कई विश्वविद्यालय 100 वर्ष से ज्यादा पुराने हैं जिनके लाखों अलुमनाई देश और दुनिया में विभिन्न क्षेत्रों में यश प्राप्त कर चुके हैं। इन विश्वविद्यालयों की कामयाबी के अन्य कारण केन्द्रीय सरकार से प्रचुर फण्ड प्राप्त होना, विशाल कैम्पस, शिक्षक व छात्र वर्ग में विविधता, एडमिशन में पारदर्शिता और राजनैतिक दखलंदाजी से मुक्ति आदि हैं। ऐसा नहीं है कि इन केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कोई कमी न हो। परंतु ज्यादातर स्थानों पर जागरूक शिक्षक समुदाय के मुखर रवैये से राजनीतिक दखलंदाजी पर नियंत्रण रहता है। फिर हमारे पास अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के आईआईटी और आईआईएम जैसे संस्थान हैं जिनकी उत्कृष्टता का लोहा सारी दुनिया में माना जाता है।
1991 के बाद, आर्थिक उदारीकरण के दौर में तकनीकी व पेशेवर शिक्षा का तेजी से विकास हुआ क्योंकि अर्थव्यवस्था को इंजीनियरों, प्रबंधकों और डॉक्टरों की ज्यादा जरूरत थी। इस दौर में तकनीकी व पेशेवर शिक्षा मेंं ज्यादातर संस्थान निजी क्षेत्र में स्थापित हुए। आज इंजीनियरिंग, प्रबंध, मेडिकल, फार्मेसी आदि क्षेत्रों में 85 प्रतिशत से ज्यादा संस्थान निजी क्षेत्र में हैं। देश के किसी भी शहर या ग्रामीण क्षे़त्र में आप को ऐसे होर्डिंग्स मिल जायेंगे जो कि बीटेक, एमबीए जैसे कोर्सो के लुभावने विज्ञापन दिखाते हैं और 100 प्रतिशत प्लेसमेंट के दावे करते है। इनमें से ज्यादातर संस्थान व्यावसायिक उद्देश्यों से चलाए जाते हैं और उच्चशिक्षा की बुनियादी जरूरतों को पूरा नहीं करते हैं। इन निजी संस्थानों के संचालन का एक विशिष्ट मॉडल है जिसमें संस्थान की आकर्षक बिल्डिंग बनाने, टीवी चैनलों व प्रिंट मीडिया में मंहगे विज्ञापन करने और एडमिशन मार्केटिंग पर बहुत ज्यादा ध्यान दिया जाता है। मेरिट आधारित प्रवेश, अच्छी फैकल्टी, गवर्नेंस, वित्तीय पारदर्शिता, शोध व अनुसंधान आदि महत्वपूर्ण तत्व आमतौर पर उपेक्षित रहते हैं। नितांत व्यावसायिक ढंग से चलाये जाने वाले कॉलेजों और प्राईवेट विश्वविद्यालयों से अब मध्यवर्ग का मोहभंग शुरू हो चुका है इसी कारण ये लगातार बंद हो रहे हैं।
इसी के साथ यह भी सच है कि निजी क्षेत्र के सभी संस्थान इस तरह के व्यावसायिक मॉडल पर नहीं चलाये जाते। इनमें से कई संस्थान देश के प्रतिष्ठित उद्योगपतियों, व्यवसाइयों, पेशेवरों, चैरिटेबिल ट्रस्टों और सोसायटियों द्वारा स्थापित किये गये हैं। इनके संस्थापकों ने दूरदर्शिता और सामाजिक जिम्मेदारी को ध्यान में रखा, ऐसी संस्थाएं राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी ख्याति स्थापित करने में कामयाब रहीं हैं। हमारे पास अनेक ऐसे उदाहरण भी हैं जहां विश्वस्तरीय क्वालिटी की तकनीकी व पेशेवर शिक्षा प्रदान की जा रही है। सरकार के पास सभी वर्गाें को उच्चशिक्षा प्रदान करने के संसाधन नहीं हैं, ऐसी निजी संस्थानों को प्रोत्साहना देना आवश्यक होगा।
आजादी के 70 वर्षों बाद, हम आज इस स्थिति में हैं कि हमारे कुछ विश्वविद्यालय, तकनीकी और पेशेवर संस्थान विश्वस्तरीय क्वालिटी की उच्चशिक्षा प्रदान कर रहें हैं। पर हमारी ज्वलंत समस्या राज्य विश्वविद्यालयों तथा महाविद्यालयों में दी जा रही स्तरहीन शिक्षा की है। हमारे 90 प्रतिशत युवाओं को जिस तरह डिग्रियां बांटी जा रही हैं, उससे उनके जीवन को कोई दिशा नहीं मिल सकेगी। भारत में उच्चशिक्षा का प्रमुख मुद्दा बमुश्किल 20 प्रतिशत प्रवेशार्थियों को क्वालिटी शिक्षा मिल पाना है। जब तक उच्चस्तरीय क्वालिटी संस्थानों का विस्तार नहीं होगा, कुछ खास विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में भीड़भाड़ की समस्या बनी रहेगी।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)