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गोवा की मिट्टी और मिजाज के नेता

बात 2009 की है। भाजपा लोकसभा चुनावों में हार के बाद बेदम पड़ी थी। आरएसएस ने तय कर लिया था कि लालकृष्ण आडवाणी की पीढ़ी को गुड बाय कहने का वक्त आ गया है, और नई पीढ़ी के हाथ में पार्टी की बागडोर सौंपनी...

गोवा की मिट्टी और मिजाज के नेता
आशुतोष वरिष्ठ पत्रकारMon, 18 Mar 2019 11:49 PM
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बात 2009 की है। भाजपा लोकसभा चुनावों में हार के बाद बेदम पड़ी थी। आरएसएस ने तय कर लिया था कि लालकृष्ण आडवाणी की पीढ़ी को गुड बाय कहने का वक्त आ गया है, और नई पीढ़ी के हाथ में पार्टी की बागडोर सौंपनी चाहिए। तब मनोहर पर्रिकर का नाम उछला था। आईआईटी से पढे़ बेहद ईमानदार नेता की उनकी छवि थी। संघ को लग रहा था कि गोवा का यह पूर्व मुख्यमंत्री भाजपा की स्टीरियो टाइप इमेज को तोड़ेगा और बदलते समाज से उसे जोड़ेगा। नई ऊर्जा और नए तेवर की तलाश में पार्टी के लिए पर्रिकर बिल्कुल फिट थे। लेकिन उनके एक छोटे से बयान ने सब गुड़-गोबर कर दिया। 

किसी लोकल टीवी ने उनका इंटरव्यू किया था, जिसमें उन्होंने कुछ खराब शब्दों में आडवाणी की आलोचना कर दी। वह खबर बड़ी तेजी से फैली। पार्टी में वे तमाम लोग, जो नहीं चाहते थे कि दिल्ली से बाहर का कोई आदमी भाजपा की कमान संभाले, सक्रिय हो गए। आडवाणी के कान भरे गए, आरएसएस को समझाया गया कि ऐसा आदमी कैसे सबको लेकर चल सकता है? पर्रिकर ने सफाई दी, लेकिन तीर कमान से निकल चुका था। उनके दुश्मन जीत गए। पर्रिकर का पत्ता कट गया। नितिन गडकरी पार्टी के नए अध्यक्ष बने। 

लेकिन केंद्र में आने के लिए उन्हें लंबा इंतजार नहीं करना पड़ा। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद पर्रिकर देश के रक्षा मंत्री बने। वह स्वतंत्र फैसले ले सकते थे। मोदी उन पर भरोसा करते थे। पर उनका मन कभी दिल्ली में नहीं लगा। वह हर शुक्रवार भागकर गोवा पहुंच जाते। हकीकत यह थी कि उन्हें स्वच्छंद रूप से निहायत छोटे गोवा का मुख्यमंत्री बनना ज्यादा पसंद था, बनिस्बत रक्षा मंत्री के। उन्हें दूसरों से आदेश लेना अच्छा नहीं लगता था। वह कहते थे कि वह गोवा की फिश करी बहुत मिस करते हैं। गोवा प्रेम के अलावा उन्हें छोटे तालाब की मछली बने रहना अधिक पसंद था, जहां उन पर किसी तरह की बंदिश न हो। बड़ा तालाब उन्हें बांध देता था। पर्रिकर बंधनों में जीने के आदी नहीं थे। ऐसे में, 2017 में पहला मौका मिलते ही वह गोवा भाग गए और रक्षा मंत्री का पद छोड़ दिया। पर दुर्भाग्य देखिए, कैंसर ने उन्हें अपना बंदी बना लिया और अंत तक नहीं छोड़ा। 

मनोहर पर्रिकर राजनीति में लाए गए थे। आरएसएस के सुभाष वेलेंकर उनको लेकर आए थे, पर बाद में पर्रिकर अपने गुरु से ही दो-चार हाथ कर बैठे। वेलेंकर इतने आक्रामक हो गए कि आरएसएस छोड़कर अपना संगठन बना लिया और 2017 का विधानसभा चुनाव तक लड़ डाला। वेलेंकर पर्रिकर को बर्बाद करना चाहते थे, पर वह उनका कुछ नहीं कर पाए। वेलेंकर को लगता था कि मनोहर पर्रिकर उनका चेला है, तो वह उनके इशारे पर नाचे। यह पर्रिकर को गवारा नहीं था। 

गोवा की राजनीति में भाजपा के अंदर उनकी मर्जी के बगैर पत्ता भी नहीं खड़क सकता था। पर्रिकर कंट्रोल फ्रीक थे। सरकार हो या पार्टी, सब जगह उनकी मर्जी चलती थी। अधिकारी सीधे उन्हें रिपोर्ट करते थे। जब उन्हें रक्षा मंत्री बनाया गया, तब उन्होंने लक्ष्मीकांत पारसेकर को मुख्यमंत्री बनवाया, जिन्हें उनकी कठपुतली माना जाता था। गोवा में यही कहा जाता था कि बिना पर्रिकर के देखे कोई फाइल आगे नहीं बढ़ सकती थी। 
गोवा में 2017 में भाजपा सरकार नहीं बना सकती थी, अगर पर्रिकर को वहां नहीं भेजा जाता। गोवा फॉरवर्ड पार्टी ने तो समर्थन देने के समय कहा था कि वह पर्रिकर को समर्थन दे रही है। ऐसे में, उनके बिना गोवा में भाजपा का क्या होगा, कहना मुश्किल है। मनोहर पर्रिकर में निस्संदेह वे खूबियां और खामियां थीं, जो आज के युग में राजनीति में कामयाब होने के लिए जरूरी हैं। वह समझते थे कि राजनीति सत्ता का खेल है और इसके लिए वह साम-दाम-दंड-भेद से परहेज नहीं करते थे। जो खूबियां उनको सबसे अलग करती थीं, वे थीं उनकी सादगी और ईमानदारी। वह राजनीति के लिए सारे समझौते कर सकते थे, लेकिन उनकी निजी ईमानदारी बिकाऊ  नहीं थी। इस गुण ने उन्हें बाकी नेताओं से अलग कर दिया। और सादगी के तो क्या कहने! 

कई साल पहले गोवा में एक फंक्शन में मैं और वह विशिष्ट अतिथि थे। मैं पहले पहुंच गया था। थोड़ी देर बाद वह आए। कब वह मेरी बगल में बैठ गए, पता ही नहीं चला। आधी बाजू की शर्ट और मामूली चप्पल पहने वह आदमी गोवा का मुख्यमंत्री रह चुका था। पर कोई तड़क-भड़क नहीं, कोई सुरक्षा नहीं। पुरस्कार दिया और चले गए। तब उनका नाम गोवा के बाहर किसी ने ज्यादा नहीं सुना था। पर गोवा में वह कल्ट फीगर बन चुके थे। उनके बारे में मशहूर था कि बच्चे के जन्मदिन पर भी बुला लो, तो वह पहुंच जाते थे। इसका मतलब यह नहीं कि पर्रिकर अपने दुश्मनों को छोड़ देते थे। 

गोवा में ऐसे न जाने कितने मिलेंगे, जिन्होंने उनसे दो-दो हाथ करने की कोशिश की और उनका राजनीतिक करियर खत्म हो गया।
भाजपा में शायद वह अकेले नेता थे, जो अल्पसंख्यक वर्ग के तकाजों से भली-भांति परिचित थे। गोवा में ईसाई समुदाय के तकरीबन 27-28 प्रतिशत लोग हैं और करीब सात फीसदी मुसलमान। पर्रिकर वहां इन दोनों तबकों को साथ लेकर चले और उस मॉडल को खारिज कर दिया, जिसमें अल्पसंख्यक चुनावी नजर से भाजपा के लिए मायने नहीं रखते। जब पूरे देश में बीफ पर बीजेपी और संघ परिवार के लोग हंगामा मचा रहे थे, तब गोवा में बीजेपी कह रही थी कि वहां बीफ पर बैन नहीं लगेगा। 

पर्रिकर संघ के थे, लेकिन उनमें वह कट्टरता नहीं दिखती थी, जो कई अन्य में दिखाई देती है। एक मायने में वह वाजपेयी और मोदी का मिश्रण थे। वाजपेयी जैसा सबको साथ लेकर चलने का हुनर और मोदी जैसी राजनीतिक चतुराई। यह पर्रिकर का ही करिश्मा था कि 2012 के चुनाव में गोवा के चर्च ने भाजपा को खुला समर्थन देने का एलान किया था और इसके तकरीबन आधा दर्जन विधायक ईसाई थे। पर्रिकर भाजपा के भविष्य का आधुनिक चेहरा हो सकते थे। पर किस्मत को शायद कुछ और ही मंजूर था।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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