गुस्से व प्रतिक्रिया में अलग रहा दक्षिण
जम्मू-कश्मीर में पुलवामा हमले के बाद पूरे देश ने एक सुर से इस कायराना हरकत की निंदा की और इस बर्बर कृत्य में शामिल तमाम लोगों के खिलाफ फौरन कार्रवाई की मांग की। देश भर में लोग शोक, पीड़ा और आक्रोश से...
जम्मू-कश्मीर में पुलवामा हमले के बाद पूरे देश ने एक सुर से इस कायराना हरकत की निंदा की और इस बर्बर कृत्य में शामिल तमाम लोगों के खिलाफ फौरन कार्रवाई की मांग की। देश भर में लोग शोक, पीड़ा और आक्रोश से उबल पड़े। ऐसी अनेक खबरें आईं कि सीआरपीएफ के कई जवान जिस वक्त शक्तिशाली आईईडी विस्फोट के शिकार बने, उस समय वे अपने किसी परिजन से मोबाइल पर बातें कर रहे थे। जब पूरा मुल्क नुकसान और पीड़ा की गहरी भावना से गुजर रहा था, तब कई भड़़काऊ बयान भी देखने को मिल रहे थे- कइयों को तो फौरन बदला चाहिए था। कुछ लोगों ने अपना आक्रोश जताने के लिए सोशल मीडिया को चुना, तो कई सारे लोगों ने कैंडल मार्च में भाग लिया और शहीदों की आत्मा की शांति के लिए दो मिनट का मौन रखा। लेकिन कुल मिलाकर, इस दुखद वारदात पर दक्षिण भारत की प्रतिक्रियाएं उत्तर भारत, खासकर दिल्ली-एनसीआर से बिल्कुल अलग रहीं। आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल ने इस पर काफी दर्द भरी प्रतिक्रियाएं दीं। इन तमाम राज्यों में जिस किसी राज्य का कोई सीआरपीएफ जवान शहीद हुआ, वहां के लोगों ने भारी संख्या में कतारों में लगकर अपने सपूत को श्रद्धांजलि दी। वहां उग्र भावनाओं का प्रदर्शन नहीं दिखा।
आंध्र प्रदेश और तेलंगाना से ऐसी किसी अप्रिय घटना की सूचना नहीं है। कर्नाटक में चंद छिट-पुट घटनाएं हुई हैं। बेंगलुरु में दो छात्रों को सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक पोस्ट डालने के लिए हिरासत में लिया गया। अलबत्ता, इसी शहर के चिकपेट इलाके में लगभग 15,000 दुकानें बंद रहीं और बड़ी संख्या में लोग नारे लगाते हुए और फौरन कार्रवाई की मांग करते सड़कों पर निकले। खबरों के मुताबिक, रैली में शामिल ज्यादातर लोग कारोबारी समुदाय के थे, जो देश भर से आकर वहां बसे हुए हैं और अब इस राज्य के नागरिक हैं।
तमिलनाडु में भी इस घटना को लेकर गुस्सा है, लेकिन यह आक्रोश सड़़कों पर हुजूम की शक्ल में नहीं दिखा। वहां के लोगों की मांग थी कि सरकार सख्त कार्रवाई करे। उनमें एक प्रकार की निराशा की भावना भी थी कि आखिर पड़ोसी देश पोषित आतंकी कैसे एक के बाद दूसरी वारदात को अंजाम देने में सफल हो जाते हैं? कुछ इसी तरह की प्रतिक्रियाएं केरल में भी देखने को मिलीं। वहां भी लोग गम और गुस्से में थे, लेकिन उन्होंने अपने क्रोध का इस्तेमाल किसी समूह या समुदाय पर हमला करने के लिए नहीं किया। इन सभी राज्यों में कश्मीर के लोग रहते हैं, लेकिन उनको निशाना बनाती कोई घटना नहीं हुई।
दरअसल, उत्तर और दक्षिण भारत की प्रतिक्रियाओं में इस फर्क के पीछे ऐतिहासिक वजहें हैं। एक वजह तो यह हो सकती है कि पाकिस्तान के खिलाफ भावनाओं का जैसा ज्वार उत्तर भारत में उठता है, वैसा दक्षिण में नहीं उठता। इसका कारण यह है कि ये राज्य घटनास्थल से काफी दूरी पर हैं। फिर दक्षिण भारत हिंसक आतंकी वारदातों का भुक्तभोगी नहीं रहा या फिर उसने देश के हिंसक बंटवारे और उसके बाद की त्रासदी नहीं भोगी।
कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी जल विवाद फौरन दोनों तरफ आक्रोश पैदा कर देता है या फिर श्रीलंकाई तमिलों का मसला तमिलनाडु में भावनाओं का ज्वार पैदा कर देता है। दक्षिण में ये मसले ज्यादा भावोत्तेजक हैं। इसका यह कतई मतलब नहीं कि कश्मीर की घटनाएं उन्हें नहीं छूतीं। निस्संदेह, ये उन्हें भी मर्माहत करती हैं और शेष भारत की तरह उनके भीतर भी देशप्रेम हिलोरें मारता है, लेकिन उनका गुस्सा नारों में तब्दील नहीं हो पाता। फिर वहां कई और मुद्दे हैं। मसलन, तमिलनाडु में संसदीय चुनावों से रजनीकांत का किनारा काटना एक बड़ा धमाका हैै।
देश के बाकी हिस्सों की तरह दक्षिणी राज्यों में भी मीडिया महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, लेकिन उन्होंने इस अशांत वक्त में अपना शिकार करने की कोशिश नहीं की। तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में टीवी मीडिया ने पुलवामा मामले की व्यापक कवरेज की, लेकिन उन्होंने जन-भावनाओं से नहीं खेला और न ही उत्तेजना पैदा करने वाली टीवी बहसें आयोजित कीं। बेंगलुरु के एक भाषायी चैनल से ऐसा करने की कोशिश की, लेकिन इसका कोई असर नहीं हुआ। प्रिंट मीडिया ने भी घटना के बारे में तफसील से छापा, मगर वे भी सनसनीखेज भावुकता से दूर रहे। उनकी संपादकीय टिप्पणियां स्थापित लाइन पर, मगर काफी संयत थीं।
दक्षिण की राजनीतिक पार्टियों ने जोरदार तरीके से पुलवामा हमले की निंदा की और देश के सुर में सुर मिलाते हुए पाकिस्तान पर हमला बोला और प्रभावी कार्रवाई की मांग की। उन्होंने सरकार को अपना समर्थन दिया और शहीदों के परिजनों के दुख में साथ होने का भाव व्यक्त किया। लेकिन उत्तर में जिस तरह का अति-राष्ट्रवाद दिखा, वह दक्षिण में नहीं था।
दक्षिण भारत का सामाजिक परिवेश ही कुछ ऐसा है कि उसमें भेदभाव की बहुत गुंजाइश नहीं रह जाती। फिर इन राज्यों की पुलिस और स्थानीय प्रशासन भी काफी मुस्तैद है और वह समय पर अपनी कार्रवाई करता है, जिससे किसी भी उग्र राजनीतिक या वैचारिक संगठन के इरादे पूरे नहीं हो पाते। उदाहरण के लिए, सोशल मीडिया की काफी गहरी पड़ताल हो रही है और किसी भी अतिवादी पोस्ट पर साइबर क्राइम विभाग फौरन कार्रवाई कर रहा है।
शेष भारत की तरह दक्षिणपंथी राजनीति के उदय और अति-राष्ट्रवादी बयानों ने दक्षिण को भी प्रभावित किया है। शहरी उच्च वर्ग और महानगरीय आबादी का एक हिस्सा इन अति-राष्ट्रवादी बयानों का समर्थन करता है और भारत की पुरानी समस्याओं के निदान के रूप में देखता है, लेकिन व्यापक रूप से दक्षिणी राज्य अब भी आम तौर पर अतिवादी नजरिये से परहेज बरतते हैं। चूंकि लोकसभा चुनाव करीब हैं, इसलिए वे चुनावी आईने से भी इस मसले का हासिल देख रहे हैं। कुछ राजनीतिक विचारधाराओं को इसमें मौका दिखता है, मगर लोगों का नजरिया इससे अलग है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)