मुद्दों से ज्यादा प्रचार पर भरोसा
चुनाव अभियानों का रूप-रंग हाल के वर्षों में काफी बदल चुका है। हालांकि किसी प्रत्याशी को अब अपने प्रचार के लिए निर्वाचन आयोग दो सप्ताह का ही वक्त देता है, जबकि पहले 21 दिन का समय मिलता था, लेकिन...
चुनाव अभियानों का रूप-रंग हाल के वर्षों में काफी बदल चुका है। हालांकि किसी प्रत्याशी को अब अपने प्रचार के लिए निर्वाचन आयोग दो सप्ताह का ही वक्त देता है, जबकि पहले 21 दिन का समय मिलता था, लेकिन व्यावहारिक तौर पर अब चुनाव अभियान अतीत की तुलना में कहीं अधिक व्यापक हो गया है। मौजूदा लोकसभा चुनाव के लिए भी आधिकारिक तौर पर चुनाव अभियान की शुरुआत पहले चरण के प्रत्याशियों की घोषणा के तुरंत बाद मार्च के अंत या अप्रैल के शुरुआती दिनों में हुई थी, लेकिन परोक्ष रूप से इसका आगाज दिसंबर, 2018 में पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजों के साथ ही हो गया था।
कई हफ्तों में फैले मतदान के अनेक चरण केवल चुनाव-संचालन के लिए जिम्मेदार अधिकारियों की चुनौती नहीं बढ़ाते, बल्कि राजनीतिक दलों को भी अब इतने लंबे दिनों तक अपने पक्ष में माहौल बनाए रखने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है। सियासी दलों की बढ़ रही संख्या और सोशल मीडिया के आगमन के कारण चुनाव अभियान से जुड़े कई नियम बदले जा चुके हैं और राजनीतिक पार्टियों को क्या करना चाहिए व क्या नहीं, इसे भी स्पष्ट किया गया है। फिर भी, दुख की बात यह है कि ज्यादातर बदलाव भारतीय चुनावों में सकारात्मक विकास के रूप में नहीं देखे जा सकते।
सबसे महत्वपूर्ण बदलाव है, जिसे सबसे अधिक अनुभव किया जा सकता है- चुनाव अभियान में सोशल मीडिया का इस्तेमाल और पार्टी के चुनावी अभियान की रणनीति तैयार करने के लिए पेशेवरों की नियुक्ति। अगर हम मौजूदा चुनाव के आठ हफ्ते लंबे अभियानों पर नजर दौड़ाएं, तो यह चुनाव मूल रूप से राजनीतिक दलों के बीच सोशल मीडिया पर चला वाक्युद्ध लगता है। इस युद्ध की शुरुआत में सियासी दलों ने सोशल मीडिया का उपयोग अपने राजनीतिक संदेश फैलाने के एक मंच के रूप में किया, और फिर बाद में दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से इसे विपक्षी पार्टियों से जुड़ी फर्जी खबरें और गलत सूचना फैलाने के औजार में बदल दिया। जिस गति से सोशल मीडिया के मंच का दुरुपयोग किया गया, वह तो हममें से कई की कल्पना से भी परे है।
इसे कुछ इस तरह भी समझा जा सकता है कि 1970-80 के दशकों में या उससे भी पहले सियासी दलों और राजनेताओं के ‘कैंपेन मैनेजर’ हुआ करते थे। ये आज भी हुआ करते हैं, लेकिन अब इनकी प्रोफाइल, विचारधारा, पार्टी के साथ इनका लगाव और कार्यशैली में काफी बदलाव आया है। पहले ऐसे मैनेजर अनुभवी राजनेता हुआ करते थे। वह एक ऐसा शख्स होता था, जो पार्टी की विचारधारा के साथ प्रतिबद्धता रखता था और लंबे समय से पार्टी से जुड़ा रहता था। अब इस तरह के मैनेजर या तो बड़ी कंपनियों के लोग हुआ करते हैं या कोई ऐसा ‘प्रोफेशनल’, जो संभवत: पश्चिमी देशों से इंजीनियरिंग, मैनेजमेंट, गणित या सांख्यिकी जैसे विषयों में शिक्षित होता है। ऐसे प्रोफेशनल मैनेजरों में शायद ही आपको कोई ऐसा दिखेगा, जो अनुभवी राजनेता हो और कोई खास राजनीतिक विचारधारा को जी रहा हो।
इन मैनेजरों के काम करने का तरीका भी अलग है। पार्टी-कार्यकर्ताओं से मिलने या निर्वाचन-क्षेत्रों में जाने की बजाय ये अपना ज्यादातर वक्त कंप्यूटर और मोबाइल पर गुजारते हैं। ये पिछले चुनावों के आंकड़ों का विश्लेषण करते रहते हैं और कई अन्य तरह के सियासी गुणा-भाग में अपना दिमाग खपाते रहते हैं। चुनावी नारे भी अब कार्यकर्ताओं के बीच से एकाएक नहीं उभरते, बल्कि उन्हें भी इन पेशेवर मैनेजरों द्वारा सोच-समझकर तैयार किया जाता है। अब किसी भी राजनीतिक दल के चुनावी अभियान का नेतृत्व करना कमोबेश एक व्यवसाय सा बन गया है, इसीलिए किसी दूसरे व्यापारी की तरह ये प्रोफेशनल मैनेजर भी यही चाहते हैं कि उनका व्यवसाय ज्यादा से ज्यादा बढ़े और एक पार्टी से दूसरी पार्टियों तक उनकी पहुंच बने।
हालांकि इतना सब कुछ होने के बाद भी ये मैनेजर चुनाव प्रचार की पारंपरिक शैली नहीं बदल पाए हैं। अब भी बडे़ पैमाने पर मतदाताओं को प्रभावित करने का कारगार माध्यम बड़ी रैलियां हैं। ‘डोर टु डोर कैंपेन’ यानी पदयात्रा कम जरूर हो गई है, लेकिन अब इसे हाई-टेक रोड शो में बदल दिया गया है, जिसमें राजनेताओं की सुविधा का पूरा ख्याल रखा जाता है। पदयात्रा में जहां राजनेता लंबी दूरी पैदल नापते थे, वहीं अब वे एक बड़ी सी गाड़ी के ऊपर खड़े होकर अपना हाथ हिलाते रहते हैं। उन पर फूलों की पंखुड़ियां भी फेंकी जाने लगी हैं। और भीड़ में कम संख्या देखकर यदि किसी प्रत्याशी को लगता है कि शायद वह जनता का विश्वास नहीं जीत पा रहा है, तो सेलिब्रिटी, खासतौर से फिल्म स्टार को अंतिम विकल्प के रूप में वह आजमाता है। हालांकि रोड शो में नेताओं और मतदाताओं के आपसी रिश्तों में वह गरमाहट नहीं आती, जो पदयात्रा में आती रही है। वैसे, भाजपा का ‘पन्ना प्रमुख’ अब वोटरों को एकजुट करने का कहीं ज्यादा प्रभावी औजार बन गया है।
बेशक पेशेवर मैनेजर कमोबेश हर पार्टी से जुड़े हैं और रणनीति भी सोच-समझकर बनाई जा रही है, लेकिन चुनावी भाषणों का स्तर अब काफी गिर गया है। मौजूदा चुनाव में ही हमने देखा कि किस तरह तमाम नेताओं ने सरकार बनाने की सूरत में जनहित के काम गिनाने की बजाय एक-दूसरे की आलोचना करना ज्यादा पसंद किया। उन्होंने अपनी ऊर्जा नकारात्मक चुनाव अभियान में खर्च की। व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप के साथ-साथ उन्होंने एक-दूसरे के परिजनों पर भी निशाना साधा।
बहरहाल, अब जब प्रचार अभियान पर परदा गिर चुका है और पिछले दो महीनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी और कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी जैसे तमाम नामचीन नेताओं की ताबड़तोड़ रैलियां और रोड शो हो चुके हैं, तब क्या हम यह बता पाने की स्थिति में हैं कि वह एक मुख्य मुद्दा क्या था, जिस पर कांग्रेस ने चुनाव लड़ा या वह कौन सा ऐसा वादा है, जिसे भाजपा ने पूरा करने की बात मतदाताओं से कही है? जाहिर है, अंत-अंत तक पार्टियां जनता को यह न बता सकीं कि वे किन-किन मुद्दों पर चुनाव लड़ रही हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)