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यह संघर्ष विराम का समय नहीं था

जम्मू-कश्मीर में संघर्ष विराम बहुत दूरदर्शी फैसला नहीं है, इसका शायद ही कोई सकारात्मक नतीजा निकले। इसमें कोई गहरी सोच नहीं दिखाई देती। इसके पीछे कोई बड़ी रणनीतिक तैयारी भी नजर नहीं आती। अगर जमीनी...

यह संघर्ष विराम का समय नहीं था
अजय साहनी आंतरिक सुरक्षा विशेषज्ञFri, 18 May 2018 01:22 AM
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जम्मू-कश्मीर में संघर्ष विराम बहुत दूरदर्शी फैसला नहीं है, इसका शायद ही कोई सकारात्मक नतीजा निकले। इसमें कोई गहरी सोच नहीं दिखाई देती। इसके पीछे कोई बड़ी रणनीतिक तैयारी भी नजर नहीं आती। अगर जमीनी हालात पर संजीदगी से नजर डाली गई होती, तो संभवत: यह एलान नहीं किया जाता। अभी राज्य में ऑपरेशन ऑल आउट चल रहा है, जिसके तहत पिछले साल रिकॉर्ड 214 आतंकी मारे गए हैं। इस साल भी अब तक 65 से अधिक दहशतगर्द मारे गए हैं। जाहिर है, यह एक ऐसा वक्त है, जब सुरक्षा बलों को सफलता मिल रही थी। संघर्ष-विराम उनके रास्ते में अचानक आया ऐसा स्पीड ब्रेकर साबित हो सकता है, जो उनकी रफ्तार झटके से रोक रहा है। अचानक ब्रेक मारना कितना नुकसानदेह होता है, यह बताने की शायद ही जरूरत है। 
यह फैसला सुरक्षा बलों के मनोबल को ठेस पहुंचा सकता है। उन्हें यह लग सकता है कि जब वे आतंकियों को लगातार निशाना बना रहे हैं, तब सरकार ने उनके हाथ बांध दिए हैं। कहने के लिए यह बंदिश सिर्फ रमजान के पाक महीने तक है, पर इस दरम्यान सुरक्षा बलों की सक्रियता कम होने से आतंकियों को शह मिल सकती है। दहशतगर्दों की जो ताकत सुरक्षा बलों की कार्रवाइयों से बिखर गई थी, उसे फिर से समेटने का उन्हें एक बेहतर मौका मिल सकता है। इसीलिए मैं इस एकतरफा सशर्त संघर्ष विराम को एक सट्टा मान रहा हूं, जो दुर्भाग्य से गलत वक्त पर खेला गया है।
लग यह भी रहा है कि इसे बिना किसी होमवर्क से लागू किया गया है। निस्संदेह पहले भी सीजफायर हुए हैं। अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में ही सन 2000 में इसी तरह के युद्धविराम की घोषणा की गई थी। मगर तब कई स्तरों पर शांति कायम करने की बातचीत चल रही थी; अलगाववादियों की तरफ से भी इसमें भागीदारी थी। दूसरे पक्ष ने संघर्ष विराम पर अपनी सहमति जताई थी। इससे तब हिंसा एक हद तक कम हुई थी। मगर वह पहल भी इसलिए असफल साबित हुई, क्योंकि इसकी आड़ में खून-खराबे में विश्वास रखने वाले दहशतगर्दों ने संघर्ष-विराम के समर्थक अलगाववादियों को मारकर उनकी जगह ले ली। इस बार आतंकी संगठनों की तरफ से कोई भरोसा नहीं दिया गया है। लश्कर-ए-तैयबा ने तो इसे तत्काल नकार दिया। उसने संघर्ष-विराम न मानने और अपनी तरफ से कार्रवाई जारी रखने की बात कही है। साफ है कि सरकार की यह एकतरफा कोशिश ज्यादा दूर तक जाती नहीं दिख रही। 
ऐसे किसी फैसले की जरूरत क्यों आन पड़ी? मेरा मानना है कि केंद्र ने यह फैसला दबाव में लिया है। दरअसल, जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने अपने तईं इसकी मांग करके गेंद को केंद्र के पाले में डाल दिया था। जब कोई सूबा ऐसे किसी संवेदनशील मसले पर अपना रुख पहले जाहिर कर दे, तो उसके साथ खड़े रहना केंद्र की मजबूरी बन जाती है। केंद्र पर यह दबाव तब और भी बढ़ जाता है, जब उस पर ध्रुवीकरण के आरोप लग रहे हों। केंद्र की एनडीए सरकार की अगुवाई भाजपा कर रही की जो छवि की जो छवि बनाई जा रही है उसे देखते हुए उसके लिए इस प्रस्ताव को नकारना कहीं ज्यादा मुश्किल था। अगर वह संघर्ष-विराम लागू नहीं करती, तो जाहिर तौर पर उस पर सांप्रदायिक होने के आरोप लगते। 
यह एक निचले दर्जे की राजनीति है। मुख्यमंत्री ने संघर्ष विराम की मांग इसलिए की होगी, क्योंकि उनकी मंशा शायद कश्मीरियों, खास तौर से वहां के मुसलमानों में अपनी छवि निखारने की होगी। सोच यह हो सकती है कि आगे चलकर उन्हें इसका सियासी फायदा मिलेगा। लेकिन शायद यह गलत आकलन है। हो सकता है कि उनकी पार्टी को इसका कुछ फायदा मिले, पर अमन कायम करने के लिहाज से यह फैसला बहुत लाभप्रद नहीं दिख रहा। ऐसे संघर्ष-विराम का तब ज्यादा असर होता है, जब तमाम पक्ष इसके लिए एकजुट हों। किसी एक पक्ष के मुकरने से मामला बिगड़ जाता है। 
बेशक इस संघर्ष-विराम की एक शर्त यह है कि हमला होने की सूरत में सुरक्षा बल अपनी या बेगुनाह नागरिकों की जान बचाने के लिए जवाबी कार्रवाई कर सकते हैं। मगर यह कोई अच्छी नीति नहीं मानी जाएगी। अव्वल तो जवानों की बंदूकें खामोश रहेंगी, और फिर देखा यह भी गया है कि आतंकी रमजान के महीने में अपनी गतिविधियां तेज कर देते हैं। इसका यह परिणाम होगा कि दहशतगर्दों की तरफ से हमले की रणनीति बनती रहेगी और हमें निशाना बनाया भी जाता रहेगा, मगर हमारे जवान सिर्फ जवाबी कार्रवाइयों तक सिमटे रहेंगे। ऐसे में, अगर इस महीने में दो-तीन बड़े हमले भी हो गए, तो संघर्ष-विराम बेमतलब रह जाएगा। हिंसा बढ़ने का दोष भी हमारी सरकारों पर ही मढ़ा जाएगा। 
साफ है कि यह केंद्र व राज्य, दोनों के लिए ‘नो विन’ स्थिति है। सरकारों को इस कदम से कोई खास फायदा नहीं होने वाला। कहा यह भी जा रहा है कि यह घोषणा दुनिया में बेहतर दिखने की एक कवायद हो सकती है। मगर ऐसे तर्क परोसने वाले शायद भूल जाते हैं कि अब कश्मीर को लेकर दुनिया की वह दिलचस्पी नहीं रही, जो पहले हुआ करती थी। अब सबकी नजर सिर्फ इस पर रहती है कि वहां कितने लोग अकाल मौत के शिकार बने और कितनों ने अपनी जान बचाई। 
तो फिर इस मसले का हल क्या है? मेरा मानना है कि ऐसे किसी संघर्ष-विराम को तब लागू करना श्रेयस्कर होता, जब घाटी में सक्रिय तमाम पक्ष इसे लेकर एकमत होते। किसी एक शक्तिशाली पक्ष के भी उत्सुक न रहने पर इसे टालना और पुरानी नीतियों पर आगे बढ़ना समझदारी होती। फौज और पुलिस बल के पक्ष को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। उनका मनोबल किसी भी कीमत पर टूटना नहीं चाहिए। यह सरकार का नैतिक दायित्व है। आखिरकार यही जवान कश्मीर को बचाने में अपना सर्वोच्च बलिदान देते हैं। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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