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एक संस्कृति जिससे सब सीख सकते हैं

हालिया इंडोनेशिया यात्रा के दौरान दुनिया के दो बड़े धर्मों- हिंदू और इस्लाम से जुड़े कुछ रोचक तथ्यों से साबका पड़ा, जिससे समझ बनी कि धर्म और संस्कृति एक-दूसरे को प्रभावित तो करते हैं, पर जरूरी नहीं कि...

एक संस्कृति जिससे सब सीख सकते हैं
विभूति नारायण राय पूर्व आईपीएस अधिकारीTue, 18 Dec 2018 01:16 AM
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हालिया इंडोनेशिया यात्रा के दौरान दुनिया के दो बड़े धर्मों- हिंदू और इस्लाम से जुड़े कुछ रोचक तथ्यों से साबका पड़ा, जिससे समझ बनी कि धर्म और संस्कृति एक-दूसरे को प्रभावित तो करते हैं, पर जरूरी नहीं कि वे अविभाज्य हों। धर्म का कारोबार पुरोहितों के जरिए चलता है। पंडित, मौलवी या पादरी न हों, तो हमें पता ही न चले कि ईश्वर हमसे क्या अपेक्षा करता है? ऐसे में, अगर आप किसी ऐसे भूभाग में पहुंच जाएं, जहां धर्म तो खूब हो, लेकिन पुरोहित बमुश्किल दिखाई दें, तो कैसा अनुभव होगा? 
बाली में 10-12 दिन बिताने के दौरान मुझे यह समझना बड़ा दिलचस्प लगा कि कैसे एक धर्मभीरू समाज सांस्थानिक पौरोहित्य के बिना भी अपना काम चलाता है और किसी बाहरी हस्तक्षेप की अनुपस्थिति के चलते कैसे कर्मकांड सीधे-सच्चे और दिखावट रहित हो सकते हैं। दुनिया की किसी भी जगह पर शायद ही इतने पूजा स्थल होंगे। 40 लाख से अधिक आबादी वाले इस द्वीप का अस्सी प्रतिशत हिंदू है और लगभग हर हिंदू घर के बाहर एक मंदिर है। घरों और मंदिरों की देहरी के बाहर दिन में एक से अधिक बार प्रसाद चढ़ाया जाता है। बड़ी दुकानों या होटल जैसे बडे़ प्रतिष्ठानों में तो अलग-अलग कोनों-अंतरों को मिलाकर अनेक चढ़ावे हो सकते हैं।
यह देखना बड़ा रोचक है कि चढ़ावे में होता क्या है? पत्तियों से बनी एक छोटी सी तश्तरी में कुछ अन्न के दाने, मौसम के फूल और स्थानीय वनस्पतियों के अंश। यही है चढ़ावा और इसके लिए कोई बाहरी पुजारी नहीं आता। घर का ही कोई सदस्य देवता के सामने या घर-दुकान के विभिन्न स्थलों पर चढ़ावे की तश्तरियां रख देता है। हम तीसरे पहर कुछ खरीद रहे थे और मालकिन की छोटी सी लड़की एक बड़े बर्तन में बहुत सारा चढ़ावा लेकर आई और अलग-अलग कोनों में रखने लगी। पता चला कि दुष्ट आत्माएं इन्हीं जगहों पर छिपती हैं, इसलिए वहां देवताओं का आह्वान जरूरी है। लड़की के पास एक पात्र में जल था, जिसे वह कुछ बुदबुदाते हुए पत्तियों के गुच्छे से आस-पास की वस्तुओं पर छिड़क रही थी। इस जल को मंत्रसिद्ध करने के लिए भी पुजारी के जरूरत नहीं है।
एक शवयात्रा में अलबत्ता एक व्यक्ति जुलूस के आगे सब पर पवित्र जल छिड़कता और मंत्र बुदबुदाता चलता दिखा। टैक्सी ड्राइवर से बात करने पर पता चला कि वह भी कोई पेशेवर पुजारी नहीं है, समुदाय का कोई भी व्यक्ति इस दायित्व का वहन कर सकता है। हिंदू धर्म की वर्ण-व्यवस्था से मुक्त बाली के हिंदुओं में ब्राह्मण जैसी कोई जन्मजात पुरोहितों की कतार है भी नहीं। ईश्वर और उसके मानने वालों के मध्य कोई बिचौलिया न होने से कर्मकांड वहां सादे और सस्ते हो गए हैं। ज्यादातर बड़े मंदिरों में साल भर रामकथा पर आधारित नृत्य चलते रहते हैं, उनमें भी आप यही सादगी पाएंगे। लोक और शास्त्र का वहां अद्भुत समन्वय है। मैंने पाया कि नाम से हिंदू, मुसलमान या ईसाई की शिनाख्त थोड़ी मुश्किल सी है।
इंडोनेशिया दुनिया का सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी का देश है। एक करोड़ से अधिक रिहाइश वाली राजधानी जकार्ता में घूमते हुए आपको जिस इस्लाम के दर्शन होते हैं, वह अरब, पश्चिम एशिया या हमारे पड़ोस के पाकिस्तान से भी पूरी तरह भिन्न है। यह एक उदार और समावेशी इस्लाम है, जो उस कट्टरपंथी वहाबी इस्लाम से पूरी तरह भिन्न है, जिसके किस्से हम रोज पढ़ते हैं। क्रिसमस आने वाला है और पूरा जकार्ता उसी के जश्न में डूबा था। गिरजाघर और मॉल रोशनी के झालरों से जगमगा रहे थे। कट्टरपंथियों के हमलों से वहां औरतें अभी बची हुई हैं और हर जगह दिखती हैं। मुस्लिम औरतों को पहचानने का वहां एक ही तरीका है कि वे सिर पर स्कार्फ बांधे रहती हैं। बाजारों में वे खरीदार और विक्रेता, दोनों रूपों में थीं और खूब थीं। समुद्र तट पर खाने-पीने के अड्डे पटे हुए थे और वहां भी सिर पर कसकर स्कार्फ लपेटे औरतों को दूसरों की तरह जोड़ों में उल्लास और प्रेम की सार्वजनिक अभिव्यक्ति करते देखा जा सकता है। उन्हीं के साथ आत्मविश्वास से लबरेज वे औरतें भी थीं, जो काउंटर से लगायत सर्विस तक की जिम्मेदारियां संभाल रही थीं और सिर्फ स्कार्फ से उनके मुस्लिम होने का पता चलता था।
ऐसा नहीं है कि रेडिकल इस्लाम की नजर इस उदार इस्लाम पर नहीं पड़ी है। उदारता तो उनके अस्तित्व के लिए खतरा है, इसलिए कट्टरपंथी हमेशा उसे नष्ट करने की कोशिश करते रहते हैं। इंडोनेशिया में भी अल-कायदा या आईएस से सहानुभूति रखने वाले संगठनों के प्रभामंडल में पिछले कुछ वर्षों में बढ़ोतरी ही हुई है। अपनी इसी यात्रा में मैंने जकार्ता के हृदय स्थल पर लाख से अधिक कट्टरपंथियों को एकत्रित होकर 2019 के राष्ट्रीय आम चुनाव में ऐसे व्यक्ति को राष्ट्रपति चुनने का इरादा जाहिर करते सुना, जो शरिया नाफिज करने का हामी हो। पिछले दिनों मौज-मस्ती करते विदेशी पर्यटकों के एक समूह में बम विस्फोट कर वे अपने इरादों और क्षमता का प्रदर्शन कर ही चुके हैं। गनीमत है कि अब तक उन्हें सरकार का समर्थन नहीं मिला है और राज्य सख्ती से उनसे निपट रहा है। पर यह संभावना डरावनी लगती है कि कल अगर तुर्की की तरह इंडोनेशिया में भी कट्टरपंथी सत्ता पर काबिज हो गए, तो क्या उसी तरह की कोशिशें यहां भी नहीं होंगी, जिनके तहत कमाल अतातुर्क का प्रगतिशील समाज नष्ट कर मध्ययुगीन निजाम कायम करने का सपना देखा जा रहा है। 
नए आजाद हुए इंडोनेशिया में तत्कालीन राष्ट्रपति सुकार्णो से रामलीला देखते हुए एक पाकिस्तानी मंत्री ने पूछा कि वह कैसे इसकी इजाजत दे सकते हैं, तो उनका जवाब था कि उन्होंने धर्म बदला है, संस्कृति नहीं। अपनी संस्कृति से यही जुड़ाव उन्हें समावेशी और उदार बनाए हुए है। देखना सिर्फ यह है कि वह कब तक इसे बचाए रख पाएंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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