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कभी न भूलने वाली वह सुबह

सियाचिन ग्लेशियर में परचम गाड़ने के उपरांत मेरी पलटन को चुशूल की पहाड़ियों को सुरक्षित रखने का टास्क मिला। हम सब बहुत उत्साहित थे, जिसके दो कारण थे। पहला तो यह कि हम उस वीर भूमि में तैनात थे, जहां 1962...

कभी न भूलने वाली वह सुबह
मोहन भंडारी लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड)Sat, 17 Nov 2018 12:56 AM
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सियाचिन ग्लेशियर में परचम गाड़ने के उपरांत मेरी पलटन को चुशूल की पहाड़ियों को सुरक्षित रखने का टास्क मिला। हम सब बहुत उत्साहित थे, जिसके दो कारण थे। पहला तो यह कि हम उस वीर भूमि में तैनात थे, जहां 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान, इस सेक्टर में भारतीय सेना ने चीन के सैनिकों के दांत खट्टे कर दिए थे। दूसरा यह कि हमारी पलटन पीस स्टेशन पिथौरागढ़ जा रही थी।
रेजांग ला जम्मू और कश्मीर राज्य (लद्दाख क्षेत्र) में चुशूल घाटी के दक्षिण-पूर्व में उस घाटी में प्रवेश करने वाला एक दर्रा है, जो सामरिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है। रेजांग ला में लड़ी 13-कुमाऊं रेजीमेंट की वीरता की कहानियां बहुत सुनी थी और एक कमांडिंग अफसर होने के नाते, मेरे पास यह सुनहरा मौका था कि मैं उस माटी को चूमूं, जहां इस पलटन की चार्ली कंपनी ने अपना सर्वस्व राष्ट्र को समर्पित कर दिया।
एक मजबूत पेट्रोल लेकर सुबह चार बजे हम चुशूल की पहाड़ियों से उतरे और रेजांग ला दर्रे की ओर बढ़ चले। यहां जाने के ऑर्डर नहीं थे। लेकिन एक उन्माद था, एक जोश था और एक पवित्र भूमि जाने की उत्कंठा थी, जो संभवत: हम सैनिकों के लिए एक विशिष्ट स्थान रखती थी। चुशूल घाटी पर पहुंचने के उपरांत हम दर्रे की ओर बढ़ रहे थे। हमारे कदम बरबस 13 कुमाऊं द्वारा निर्मित युद्ध स्मारक की ओर बढ़ चले। कुछ समय चलने के बाद सामने दर्रा दिखाई दे रहा था। एक अजीब सी शांति, एक सूनापन और नि:स्तब्ध वातावरण। चढ़ाई अच्छी खासी थी। सांसें फूल रही थीं। कुछ सैनिकों को सुरक्षा में लगाकर हम मेजर शैतान सिंह के बंकर के पास खड़े थे। हमने इस महापुरुष को फौजी सलाम किया और उन वीरों को नमन किया, जिन्होंने राष्ट्र के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था। अभी भी टिन और गोलियों के टुकड़े वहां पर मौजूद थे। 
वह 17-18 नवंबर, 1962 की रात थी। बहुत तेज बर्फीला तूफान रेजांग ला की पहाड़ियों पर छाया था। लगभग तीन घंटों के बाद यह थम तो गया, लेकिन चारों तरफ अंधेरा बना रहा। सुबह के 3.30 बजे मौसम थोड़ा साफ हुआ और 600 मीटर तक दिखाई देने लगा। ड्यूटी पर तैनात संतरी ने चीनियों को बड़ी संख्या में आते देखा। यह बहुत विचित्र हरकत थी और इससे पहले कि कुमुक आगे भेजी जाए, चीनी सैनिक इलाके में आ चुके थे। 13-कुमाऊं की चार्ली कंपनी अब स्टैंड टू पर आ चुकी थी। मंजे हुए कंपनी कमांडर मेजर शैतान सिंह ने रेडियो पर सबको तैयार रहने को कहा। पूरी चार्ली कंपनी अपनी खंदकों में राइफल के ट्रिगर पर उंगुली लगाए साफ मौसम का इंतजार कर रही थी। सुबह के पांच बजते-बजते मौसम साफ हो गया। शत्रु खराब मौसम का फायदा उठाकर नजदीक आने में कामयाब तो हो गया, लेकिन अब वे पूरी तरह से सामने थे। चीनी सैनिक झुंडों में आकर हमला करने लगे।
भारतीय सैनिकों ने एलएमली, एमएमजी और मोर्टार से शत्रु का स्वागत किया। बहुत चीनी मारे गए और अनगिनत घायल हुए। लेकिन चीनी सैनिकों के झुंड एक के बाद एक आते गए और चार लहरों में शत्रु ने चार्ली कंपनी के ऊपर चारों तरफ से हमला कर दिया। शत्रु की पांचवीं लहर जैसे ही खंदकों के पास पहुंची, वीर सैनिकों ने खंदकों से बाहर आकर चीनियों को बेनट से मारा। अब चारों तरफ चीनी सैनिकों की लाशें पड़ी थीं और बाकी कराह रहे थे। इसी तरह आगे वाली पेट्रोल के साथ मुठभेड़ हुई और चीनियों को बहुत नुकसान उठाना पड़ा। चीनियों का सामने से किया हुआ हमला 5:45 बजते-बजते फेल हो चुका था। तकरीबन 1,500 चीनी सैनिक या तो मारे जा चुके थे या अपनी अंतिम घड़ियां गिन रहे थे। अब शत्रु को पता चल चुका था कि रेजांग ला पर बैठी भारतीय फौज की 13-कुमाऊं एक काल की तरह थी और उनसे आसानी से पार पाना असंभव था।
तब चीनियों ने रेजांग ला के ऊपर तोपों, मोर्टार, 106 आरसीएल और 132 एमएम रॉकेटों से अंधाधुंध फार्यंरग शुरू कर दी। दुर्भाग्य से मेजर शैतान सिंह की कंपनी के पास न तो कोई तोपखाने या मोर्टार का सपोर्ट था और न ही कहीं से भी किसी प्रकार की सहायता मिल पाई थी। चीनी सैनिकों ने फिर से हमले की तैयारी शुरू कर दी। मेजर शैतान सिंह ने चीनी सैनिकों को फिर एक बड़ी लहर के रूप में आते देखा। अब जवानों ने खंदकों से बाहर आकर शत्रुओं को गुत्थम-गुत्था की लड़ाई कर भारी नुकसान पहुंचाया। गोला-बारूद समाप्त हो चुका था, सिर्फ यही विकल्प बचा था।
चीनियों ने देखा कि मेजर शैतान सिंह कंपनी हेडक्वार्टर से असाधारण नेतृत्व कर रहे थे, इसलिए शत्रु ने कंपनी हेडक्वार्टर पर हमला बोलकर उन्हें समाप्त करने का हुक्म दिया। मेजर शैतान सिंह के हाथ में एलएमजी की गोली लगी, लेकिन उन्होंने बचे-खुचे जिंदा सैनिकों के जोश और आत्मविश्वास को कम नहीं होने दिया। उन्हें अपनी जान की कोई परवाह नहीं थी। वह खंदक के बाहर आकर सबका मनोबल बढ़ा रहे थे। अचानक शत्रु की एमएमजी की एक गोली उनके पेट 
में लगी। इसके बावजूद उन्होंने स्वयं अपनी पट्टी की। बहुत ज्यादा खून बह चुका था। उन्होंने कहा, ‘मुझे यहीं छोड़ दो’ और बचे हुए 2-3 जवानों को बटालियन हेडक्वार्टर जाकर सूचना देने को कहा, क्योंकि रेडियो संपर्क टूट चुका था, फोन की लाइन कट चुकी थी। वह वहीं रहे और बर्फ में समाधि ली। इस भीषण हार के बाद चीन ने 21 नवंबर, 1962 को एकतरफा युद्ध-विराम की घोषणा कर दी।
बाद में 13-कुमाऊं फिर इकट््ठा तो हुई, लेकिन चार्ली कंपनी के बगैर। अब इसका नाम ‘रेजांग ला कंपनी’ हो गया। 13-कुमाऊं में आज भी चार्ली कंपनी नहीं है, सिर्फ ‘रेजांग ला कंपनी’ है। 1963 फरवरी में इंटरनेशनल रेड क्रॉस के तत्वावधान में एक ग्रुप रेजांग ला गया था। सभी वीर जवानों के शव बर्फ से ढके पाए गए। मेजर शैतान सिंह का शरीर भी वहीं मिला। 
मुझे वापस आते-आते दोपहर के 12 बज चुके थे। आते ही जीओसी ने मुझसे पूछा- मैं क्यों एक प्रतिबंधित इलाके में गया? मैंने जवाब दिया, ‘जीवन में स्वर्णिम अवसर कुछ ही आते हैं।’ वह हंसते हुए बोले, ‘मुझे तुमसे यही उम्मीद थी।’
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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