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बारूद के ढेर पर बैठा शिंजियांग

चीन के जातीय अल्पसंख्यक समुदाय आज एक तरह की अनिश्चितता से घिरे हुए हैं। यह स्थिति उस नीतिगत संघर्ष का नतीजा है, जो विविध जातीय समूहों वाले इस देश में बड़ी तादाद में मौजूद ‘राष्ट्रीय...

बारूद के ढेर पर बैठा शिंजियांग
श्रीकांत कोंडापल्ली प्रोफेसर, चाईना स्टडीज, जेएनयूThu, 16 Aug 2018 11:35 PM
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चीन के जातीय अल्पसंख्यक समुदाय आज एक तरह की अनिश्चितता से घिरे हुए हैं। यह स्थिति उस नीतिगत संघर्ष का नतीजा है, जो विविध जातीय समूहों वाले इस देश में बड़ी तादाद में मौजूद ‘राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों’ को एकीकृत करने के लिए लगातार जारी है। नस्लवादी भेदभाव के खात्मे के लिए बनी संयुक्त राष्ट्र की कमेटी ने पिछले दिनों यह कहते हुए चीन की आलोचना की थी कि उसने करीब 10 लाख उइगरों (मुसलमानों) को ‘चरमपंथ-विरोधी केंद्रों’ और लगभग 20 लाख को विभिन्न ‘शिक्षा केंद्रों’ में ‘सामूहिक बंदी’ बनाकर रखा है। हालांकि चीन ने इस रिपोर्ट को खारिज कर दिया है, मगर कमेटी के सदस्यों को ठोस जवाब देने में वह असमर्थ दिखा। जैसे, चीनी प्रतिनिधि यू जिआनहुआ ने तर्क दिया कि इन जातीय अल्पसंख्यकों की गरीबी मिटाने के लिए कई कार्यक्रम लागू किए गए हैं, ‘बेल्ट ऐंड रोड इनीशिएटिव’ ने चूंकि मध्य एशियाई देशों के साथ शिंजियांग को जोड़ने वाले ऊर्जा गलियारे का विस्तार किया है, इसलिए इससे उनका जीवन स्तर भी ऊंचा उठा है, मगर कमेटी के सदस्य गाइ मैक्डूगॉल ने इस तर्क को ‘अपने बचाव में दी गई’ दलील कहा है।  
संयुक्त राष्ट्र की यह रिपोर्ट चीन की जातीय समुदाय संबंधी नीतियों व कार्यक्रमों में मौजूद विसंगतियों को उभारती है। दरअसल, इन नीतियों के इर्द-गिर्द कायम अनिश्चितता ही करीब आठ फीसदी आबादी वाले इन ‘राष्ट्रीय अल्पसंख्यकों’ को अलग-थलग कर देती है। इन जातीय अल्पसंख्यकों को लेकर बीते कई दशकों से चीन की नीति काफी ढुलमुल रही है, जबकि ये लोग देश के दो-तिहाई हिस्सों में बसे हुए हैं।
1950 के दशक में चीन ने एक ‘यूनाइटेड फ्रंट’ नीति बनाई थी, जिसके जरिए अल्पसंख्यकों को मुख्यधारा में शामिल करने और उन्हें मान्यता देने की तरफ उसने कदम बढ़ाए। पर इस नीति ने अल्पसंख्यक समुदायों में उप-राष्ट्रीयता की भावना को बढ़ाने का काम किया। 1960 के दशक की सांस्कृतिक क्रांति ने न सिर्फ इस नीति की हवा निकाल दी, बल्कि इस दौरान अल्पसंख्यक बहुल क्षेत्रों में मस्जिदों, मठों और मंदिरों को बलपूर्वक तोड़ा गया। ‘फोर ओल्ड्स’ (विचार, संस्कृति, रीति-रिवाज और आदत) को खत्म करने के उत्साह में चीन की लाल सेना ने खूब ‘धार्मिक बदला’ लिया।
1970 के दशक में आधुनिकीकरण के प्रयास शुरू हुए, तो इनमें कुछ स्थिरता व आर्थिक तरक्की दिखी। मगर जल्दी ही इस वजह से अल्पसंख्यक इलाकों में हान चीनियों का आना बढ़ गया। जातीय तनाव फैलने का एक कारण हान प्रवासियों द्वारा आर्थिक अवसर छीना जाना भी है। तब आर्थिक तरक्की के बावजूद अल्पसंख्यक इलाकों में 90 फीसदी सरकारी पदों पर हान चीनियों का कब्जा था। बेशक सरकार ने सोशल इंजीनियरिंग के अनेक प्रोजेक्ट शुरू किए, मगर इनका ज्यादातर फायदा हान चीनियों को मिला। स्थिति यह थी कि उइगरों, तिब्बतियों व मंगोलों की औसत सालाना आमदनी हान चीनियों की 25 से 33 फीसदी आय के बराबर थी। 
सरकारी नीतियों ने अल्पसंख्यकों में किस कदर अलगाव बढ़ाया, इसके कई उदाहरण हैं। मसलन, साल 1949 में शिंजियांग सूबे के पश्चिमी हिस्से में हान चीनियों की जो आबादी केवल सात प्रतिशत थी, वह आज 50 फीसदी से अधिक हो गई है, जबकि वहां के मूल बाशिंदे उइगरों की आबादी 1949 की 75 फीसदी से घटकर एक चौथाई रह गई है। शिंजियांग में जनसंख्या वृद्धि दर बेशक मामूली रही, मगर सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर चार प्रतिशत और प्रतिव्यक्ति आय लगभग तीन गुना बढ़ी है। हालांकि इन आंकड़ों में छिपे कई निहितार्थ हैं। मसलन, 80 फीसदी से अधिक कृषि कार्य उइगर और दूसरे अल्पसंख्यक समुदाय करते हैं, जबकि हान प्रवासी 25 फीसदी से अधिक मैन्युफेक्चरिंग व परिवहन क्षेत्र पर अधिकार जमाए हुए हैं। प्रबंधकीय और पेशेवर नौकरियों में भी प्रवासी हानों का दबदबा है। 
बहरहाल, 11 सितंबर, 2001 को अमेरिका के ‘वल्र्ड ट्रेड सेंटर’ पर हुए हमले और वैश्विक आतंकवाद की बढ़ती घटनाओं ने इस स्थिति को और गहरा किया है। हालांकि 1990 के दशक के शुरुआती वर्षों में चीन में चरमपंथी बढ़ने लगे थे, क्योंकि अफगानिस्तान में सोवियत संघ को हराने के लिए चीन की सैन्य खुफिया एजेंसी ने मुजाहिदीनों का समर्थन शुरू कर दिया था।  चीन ने अपनी ‘तीन बुराइयों’- अलगाववाद, चरमपंथ व विभाजन को बढ़ाने के कारण अल्पसंख्यकों को मुख्यधारा से जोड़ने का ‘9/11’ जैसा मौका गंवा दिया।
इस मसले से जुड़े कानूनी पक्ष को भी देखने की जरूरत है। 21 जनवरी, 2002 को चीन ने शिंजियांग में पूर्वी तुर्कस्तानों की गतिविधियों पर एक लंबा लेख जारी किया था। लेख में ‘आतंकवादियों’ की छह गतिविधियों की पहचान की गई थी- विस्फोट करना, हत्या, पुलिस व सरकारी एजेंसियों पर हमला, आगजनी व जहरखुरानी, खुफिया प्रशिक्षण अड्डों का निर्माण और दंगा-फसाद। उस लेख में शिंजियांग में राज्य तंत्र के खिलाफ बढ़ती हिंसा की बात कही गई थी। इसके बाद चीन के ‘पब्लिक सिक्योरिटी’ मंत्रालय ने दिसंबर, 2003 में  दहशतगर्दों की सूची जारी की, जिसमें चार आतंकी संगठनों व 11 आतंकियों के नाम गिनाए गए। ऐसी सूची उसने पहली बार जारी की थी। 27 मार्च, 2007 को एक और आतंकवाद निरोधी कानून पारित किया गया। 7 मई, 2009 को शंघाई सहयोग संगठन की बैठक में आतंकवाद विरोधी प्रस्ताव पास करके चीन एक कदम और आगे बढ़ा। अक्तूबर, 2011 में उसकी संसद ने आतंकवाद विरोधी कार्यों को प्रमुखता से आगे बढ़ाने एक प्रस्ताव पारित किया। फिर 26 फरवरी, 2015 को आतंकवाद निरोधी कानून मजबूत किया। 
चीन की स्थिति वहां फैली व्यापक हिंसा ने भी बिगाड़ी है। शिंजियांग की राजधानी में ही 5 जुलाई, 2009 को महज दो घंटे के एक संघर्ष में 189 लोग मारे गए थे, 816 घायल हुए और 261 गाड़ियां जला दी गई थीं। अप्रैल, 2001 में चीन ने जब ‘स्ट्राइक हार्ड’ अभियान की शुरुआत की थी, तब शिंजियांग में 200 संदिग्धों को फांसी दी गई और करीब 10 हजार लोगों को हिरासत में लिया गया था। आपराधिक मामलों में भी उइगर को राज्य की सुरक्षा के लिए खतरनाक बताया गया है। साफ है, शिंजियांग बारूद पर बैठा है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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